दास्यभाव का मूर्तिमंत उदाहरण हैं संत जनाबाई !
महाराष्ट्र के परभणी जनपद के गंगाखेड में उनका जन्म हुआ । आगे जाकर वे पंढरपुर में संत नामदेवजी के पिता दामाशेट शिंपी के पास आईं । तब से लेकर वे संत नामदेवजी के परिवार की सदस्य बन गईं । वे स्वयं को ‘नामदेवजी की दासी’ कहलवाती थीं । विठ्ठलचरणों में संपूर्ण जीवन समर्पित की हुईं जनाबाई ने देहभान भूलकर दिन-रात संत नामदेवजी के घर में सेवा की । उनके लिए मानो प्रत्येक कर्म ही ब्रह्मरूप बन गया था । वे विठ्ठलभक्ति में इतना रत होकर सेवा करती थीं कि विठ्ठलजी स्वयं आकर उन्हें उनकी सेवा में सहायता करते थे ।
एक बार जनाबाई का उनके पडोस की एक महिला के साथ गोबर की उपलियों को सूखाने की बातपर बहुत झगडा हुआ; क्योंकि उन दोनों ने एक-दूसरे से सटे ही उपलियां सुखाने हेतु रखी थीं । उनके इस विवाद को सुलझाने हेतु गांव के मुखिया वहां आए । उन्होंने पूछा, ‘‘आपकी उपलियों को पहचाने कैसे ?’’ तब जनाबाई ने उन्हें बताया, ‘‘जिस उपली से विठ्ठलजी के नाम की ध्वनि सुनाई देगी, वह मेरी होगी !’’ उसके अनुसार मुखिया ने जब उपलियों को अपने कानों से लगाया तो जनाबाई की उपलियों में से विठ्ठल-नाम की ध्वनि सुनाई दी । हमारा नामजप किस श्रेणी का होना चाहिए, इसका अनुमान इस उदाहरण से ध्यान में आता है ।
‘पूर्वकर्मों को भुगतकर ही समाप्त करना पडता है’,
इसके संदर्भ में संत जनाबाई के जीवन में घटित प्रसंग !
संत जनाबाईजी एक बार अपने पति को भोजन परोस रही थीं । पहला निवाला लेते ही पति ने क्रोधित होकर ‘भोजन में नमक क्यों नहीं डाला ?’, यह पूछते हुए जनाबाई को पीटना आरंभ किया तब उन्हें रोना आया । वे विठ्ठलजी की मूर्ति के सामने खडी होकर पूछने लगीं, ‘‘हे श्री विठ्ठल, आपके यहां होते हुए भी आपके भक्त को इस स्थिति से क्यों गुजरना पडता है ? क्यों ?’’ तब भगवान विठ्ठल ने जनाबाई के मस्तकपर अपना हाथ रखा । तब जनाबाई को अपने पूर्वजन्म के एक प्रसंग का स्मरण हुआ, वह निम्न प्रकार से है –
पूर्वजन्म में जनाबाई एक राजकन्या थी । उसने एक बार गाय के सामने कुछ खाने के लिए रखा, जिसे गाय नहीं खा रही थी । तब जनाबाई ने लाठी से गाय को पीटा; परंतु तब भी गाय ने वह खाना स्वीकार नहीं किया । जब विठ्ठलजी ने जनाबाई के मस्तक से अपना हाथ वापस लिया, तब जनाबाई के होश आ गए । विठ्ठलजी उन्हें कहने लगे, ‘‘जनाबाई पूर्वसंचित और उसके फल से कोई अछुता नहीं है । अपने सभी कर्मों को भुगतकर ही इस भवसागर से पार होना पडता है । तुम्हारी भक्ति तो इस जन्म की है । तुम्हें अपना पूर्वसंचित इसी जन्म में चुकाकर मेरी चिरंतन समाधि में विलीन होना है !’’
तात्पर्य : अच्छा कर्म कर भी भले ही उसका फल न मिलता हो; तब भी जनाबाई की इस कथा से आपको इसका समर्पक उत्तर मिलेगा । भले ही ऐसा हो; परंतु आप अच्छा कर्म करना न छोडें । वही आपके जीवन का लक्ष्य होना चाहिए ! संत तुकाराम महाराज कहते हैं –
‘आपही तारते हैं । आपही मारते हैं । आप ही उद्धार करते हैं । आपही ।
संदर्भ : जालस्थल
संत नामदेवजी जनाबाई के गुरु थे । इस कारण जनाबाई ने अपनी गीतरचनाओं का नाम (अभंगों का नाम) ‘दासी जनी’, ‘नामदेवजी की दासी’, ‘दासी नामदेवजी की’ ऐसे रखे है । अपने दासीपन, शूद्र जाति और स्त्रीत्व का भान व्यक्त करनेवाले कई अभंग संत जनाबाई के मन से शब्दों में प्रकट हुए हैं । विठ्ठलजी को माईबाप और कुछ प्रसंगों में मित्र अथवा सखा समझकर जनाबाई ने भगवान विठ्ठल से किया हुआ संवाद, हमें उनके अनेक हृद्य अभंगों से दिखाई देता है ।
‘सकल संतगाथा’ ग्रंथ में जनाबाई के अनुमानसे ३५० अभंग मुद्रित हुए हैं । उनके अभंग कृष्णजन्म, थालीपाक, प्रल्हादचरित्र, बाललीला आदि विषयोंपर आधारित हैं । हरिश्चंद्रआख्यान नामक आख्यानरचना भी उनकी देन है ।
झाडलोट करी जनी । केर भरी चक्रपाणी ॥१॥
पाटी घेऊनिया शिरीं । नेऊनियां टाकी दुरी ॥२॥
ऐसा भक्तिसी भुलला । नीच कामें करुं लागला ॥३॥
जनी म्हणे विठोबाला । काय उतराई होऊं तुला ॥४॥
भावार्थ : भक्त जनाबाईं घर की साफसफाई करती है; परंतु वह कचरा स्वयं श्रीकृष्णजी उठाते हैं और अपने सिरपर टोकरी लेकर उसे दूर फेंककर आते हैं । केवल भक्ति के भूखे श्रीहरि, भक्त के लिए हीन काम भी करते हैं । इसलिए जनाबाई विठ्ठलजी से कहती हैं, मैं आपका यह ऋण कैसे चुकाऊं ?
(इस रचना से ईश्वर कैसे भाव के भूखे होते हैं, इसकी अनुभूति होती है ।)
वामसव्य दोन्हींकडे । देखूं कृष्णाचें रूपडें ॥१॥
चराचरी जें जें दिसे । तें तें अविद्याची नासे ॥२॥
माझे नाठवे मीपण । तेथें कैंचे दुजेपण ॥३॥
सर्वांठायीं पूर्ण कळा । दासी जनी पाहे डोळां ॥४॥
भावार्थ : मुझे दाहिनी तथा बाईं दोनों ओर श्रीकृष्णजी ही दिखाई देते हैं । इसलिए अज्ञान शेषही नहीं रहता । मुझे मेरे ‘मैं’पन का स्मरण ही नहीं रहता । तो द्वैतभाव कैसे आएगा ! (संत नामदेवजी की) दासी जनाबाई सभी में सभी कलाओं से युक्त श्रीकृष्णजी को देखती हैं ।
जनी म्हणे बा विठ्ठला । जीवें न सोडीं मी तुला ॥
जनीसवे दळी देव । देखोनिया तिचा भाव ॥