निपाणी, कर्नाटक के गर्भवैज्ञानिक श्री. अनिरुद्ध पट्टणशेट्टी को निःसंतानता क्षेत्र का कई वर्षों का अनुभव है । निःसंतानता केंद्र में नौकरी करते हुए उनके ध्यान में आई कुछ अप्रिय घटनाओं को विगत कुछ रविवार से सनातन प्रभात में क्रमशः प्रकाशित किया था । श्री. पट्टणशेट्टी द्वारा इस संबंध में पूछा गया प्रश्न तथा वैद्य मेघराज पराडकर ने अध्यात्मशास्त्र के आधारपर उसका दिया गया उत्तर यहां दे रहे हैं ।
श्री. अनिरुद्ध पट्टणशेट्टी : अध्यात्मशास्त्र के अनुसार मां के पेट में पल रहे ६ वे ८ मास के शिशु में प्राण का प्रवेश होता है । वीर्य में शुक्राणुओं की हलचल होती रहती है तथा स्त्रीबीज भी बढना आरंभ होता है । तो क्या तब उनमें प्राण नहीं होते ? इसका उत्तर यदि ‘नहीं’, ऐसा है, तो शुक्राणुओं की हलचल एवं स्त्रीबीज में वृद्धि के पीछे क्या कारण है ?
उत्तर : अध्यात्मशास्त्र के अनुसार ‘मां के गर्भ में पल रहे लगभग ६ से ८ मास के शिशु में प्राणों का प्रवेश होता है’, ऐसा नहीं है, अपितु जिस क्षण गर्भाशय में शुक्राणु एवं स्त्रीबीज का संयोग होता है, उसी क्षण उसमें जीवात्मा प्रवेश करता है । गर्भ की वृद्धि होने के लिए भी चैतन्य ही कारणभूत होता है । इसके संदर्भ निम्न प्रकार से हैं ।
१. शुक्रोणितजीवसंयोगे तु खुली कुक्षिगते गर्भसंज्ञा भवति ।
– चरकसंहिता, शारीरस्थान, अध्याय ४ सूत्र ५
अर्थ : जब शुक्राणु, स्त्रीबीज और जीव का गर्भाशय में संयोग होता है, तब उस संयोग को‘ गर्भ’ कहा जाता है ।
२. शुक्रशोणितसंसंर्गम् अन्तर्गर्भाशयगतं जीवः अवक्रामति सत्त्वसम्प्रयोगात् तदा गर्भः अभिनिर्वर्तते ।
– चरकसंहिता, शारीरस्थान, अध्याय, सूत्र ३
अर्थ : शुक्राणु एवं स्त्रीबीज के गर्भाशय में हुए संयोग में जब अंतकरण से घिरा हुआ आत्मा (जीवात्मा) प्रवेश करता है, तब ही वह गर्भ बन जाता है ।
स्पष्टीकरण : गर्भधारणा हेतु केवल शुक्राणु एवं स्त्रीबीज का संयोग होना ही आवश्यक नहीं होत, अपितु उस क्षण उसमें जीवात्मा का प्रवेश होना भी अत्यावश्यक होता है । जीवात्मा का प्रवेश नहीं हुआ, तो गर्भधारणा नहीं होती । जीवात्मा का प्रवेश होना कर्म (प्रारब्ध) पर निर्भर होता है ।
३. तं चेतनावस्थितं वायुः विभजति … ।
– सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थान, अध्याय ५, सूत्र ३
अर्थ : वायुतत्त्व चैतन्ययुक्त गर्भ को आकार देता है ।
४. ‘मां के पेट में पल रहे ६ से ८ मासों की शिशु में प्राण का प्रवेश होता है’, ऐसा जहां कहा गया है, वहां कदाचित उन्हें ‘इस कालावधि में ‘बुद्धि व्यक्त स्वरूप में आती है’, ऐसा कहना होगा; क्योंकि आयुर्वेद में ऐसा बताया गया है कि ५वे मास में मन और ६ठे मास में बुद्धि व्यक्त स्वरूप में आते हैं । इसका निम्नांकित संदर्भ दिया गया है ।
पंचमे मनः प्रतिबुद्धतरं भवति । षष्ठे बुद्धिः ।
– सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थान, अध्याय ३, सूत्र ३०
अर्थ : ५वें मास में गर्भ का मन और ६ठे मास में बुद्धि जागृत होती है ।
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