कांदा मुळा भाजी । अवघी विठाई माझी ॥ लसूण मिरची कोथंबरी । अवघा माझा हरि ॥
स्वकर्मात व्हावे रत । मोक्ष मिळे हातो हात ॥ सावत्या ने केला मळा । विठ्ठल देखियला डोळा ॥
संत सावता महाराज, गृहस्थि के कर्तव्यों में विठ्ठलरूप का स्मरण करते । एेसे स्मरण कर निर्वहन करने को वे बोली भाषा में कहतें – ‘कांदा मुळा भाजी । अवघी विठाई माझी ॥’ अर्थात ‘प्याज मूली सब्जी, यही हैं मेरी विठाई (भगवान श्री विठ्ठल) । सावता माली ने ईश्वर के नामजप पर अधिक जोर दिया । ईश्वरप्राप्ति के लिए संन्यास लेने अथवा सर्वसंगपरित्याग करने की आवश्यकता नहीं है । प्रपंच करते हुए भी ईश्वर प्राप्ति हो सकती है ऐसा कहनेवाले सावता महाराजजी ने अपने बाग में ही ईश्वर को देखा ।
संत सावता महाराज (संत सावता माली) की कालावधि वर्ष १२५० से १२९५ तक है । सावता माली ‘कर्म करते रहना ही वास्तविक ईश्वरसेवा है’, इस प्रवृत्तिमार्ग की सीख देनेवाले संत हैं । वारकरी संप्रदाय के एक वरिष्ठ एवं श्रेष्ठ संत के रूप में वे प्रसिद्ध है । श्री विठ्ठलजी उनकी आराध्य देवता है । वे कभी भी पंढरपुर नहीं गए, अपितु प्रत्यक्ष श्री विठ्ठलजी ही उनसे मिलने आते ।
फूल, फल, सब्जियां आदि फसलों की खेती करना उनका पारंपरिक व्यवसाय था । ‘हमारी बागबानी की जाति । खेती करे सिंचाई की ।’, ऐसा वह अपनी एक रचना में कहते हैं । ‘ऐहिक जीवन में कर्तव्यकर्म करते-करते ही काया, वाचा और मन से ईश्वरभक्ति की जा सकती है और यह अधिकार सब को है । ‘न लगेंगे कष्ट, न आएंगे संकट । नाम ही सरल पथ है वैकुंठ का ।’, ऐसा वे कहते थे । उन्होंने बडी निष्ठा से तथा एक व्रत के रूप में धार्मिक प्रबोधन तथा ईश्वरभक्ति के प्रसार का कार्य किया ।
सावता महाराजजी ने पांडुरंग को छुपाने के लिए खुरपी से अपनी छाती फाडकर बालमूर्ति ईश्वर को हृदय में छुपाकर ऊपर उपरने से बांधकर भजन करते रहे । आगे संत ज्ञानेश्वर एवं नामदेव पांडूरंग को ढूंढते सावता महाराजजी के पास आए, तब उनकी प्रार्थना के कारण पांडूरंग सावता मालीजी की छाती से निकले । ज्ञानेश्वर एवं नामदेव पांडुरंग के दर्शन से धन्य हो गए । सावता महाराज कहते हैं – भक्ति में ही खरा सुख तथा आनंद है । वहीं विश्रांति है ।
सांवता म्हणे ऐसा भक्तिमार्ग धरा ।
जेणे मुक्ती द्वारा ओळंगती ।।
उनके व्यक्तित्व में समरसता और अलगता का विलक्षण संतुलन प्रतीत होता है । आज उनके केवल ३७ अभंग (रचनाएं) उपलब्ध हैं ।