‘ऐसी मां और ऐसी लडकी हो सकती है’, यह किसी को सत्य नहीं लगेगा; किंतु इस माता-पुत्री की जोडी ने इसे प्रमाणित कर दिखाया है । इस लेख में लिखे गए अनेक उदाहरणों से यह ध्यान में आएगा । ‘मातृदेवो भव’ इन शब्दों का प्रयोग किया जा सकेगा, ऐसी हैं श्रीमती संगीता जाधव ! इस ‘आदर्श मां’ के कुछ उदाहरण आगे दिए गए हैं ।
बचपन से मां ने कैसे बनाया और वह स्वयं कैसी सिखी, इसका वैष्णवी जैसा सुंदर वर्णन अभीतक किसी ने नहीं किया है । उसे साधना के संस्कार देनेवाले माता-पिता उसे मिले, यह उसके पूर्वजन्म का पुण्य है ।
इसके कारण ही बचपन से ही बच्चों को (कु. वैष्णवी और श्री. प्रतीक) को पूर्णकालीन साधना हेतु प्रेरित करनेवाले और बहुत ही अल्प समय के लिए एकत्रित होते हुए भी किसी प्रकार की दूरीरहित और तब भी एक-दूसरों में न फंसा हुआ यह एक आदर्श परिवार भी है ।
मां कैसे शीघ्रता से संत बन सकीं और लडकी भी किस प्रकार से शीघ्र ही साधना में आगे बढनेवाली है, इसकी कल्पना इस लेख से हो सकती है । ‘उनकी आगे की उन्नति भी इसी प्रकार से तीव्रगति से होगी’, इसके प्रति मैं आश्वस्त हूं ।’
आदर्श माता !
१. बचपन से ही लडकी को साधना के संस्कार कैसे देने चाहिएं ?, इसका आदर्श सामने रखनेवाली आदर्श मां !
२. मन की बडे संघर्ष की स्थिति में भी लडकी को स्वयं उसका मार्ग ढूंढने हेतु सिखानेवाली और जीवन में वास्तविकता में पहली गुरु मां !
३. अपनी लडकी को ‘पूर्णकालीन साधक क्या होता है ?’, इसका चिंतन करने लगाकर उसके मन में साधना की तीव्र तडप उत्पन्न करनेवाली दुर्लभ मां !
४. ‘किया जा रहा प्रत्येक कृत्य योग्य अथवा अयोग्य ?’, इसे ईश्वर को पूछने के लिए कहकर प्रत्येक प्रसंग में लडकी को ईश्वर के साथ जोडनेवाली तथा उससे स्वावलंबन का आनंद प्राप्त कर देनेवाली मां !
५. ‘अब ईश्वर ही पालनहार हैं’, इस श्रद्धा के बलपर सभी में होते हुए भी एकांत में ईश्वर के साथ होनेवाली मां !
६. परात्पर गुरुदेवजी के प्रति विद्यमान दृढ श्रद्धा के कारण अत्यंत कठिन प्रसंगों में भी बहुत ही सहजता से स्थिर रहने में सक्षम मां !’
– परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी
रामनाथी, गोवा के सनातन आश्रम में रहनेवाली कु. वैष्णवी जाधव है २१ वर्ष की ! अर्थात अब बचपन का नटखटपन समाप्त होकर बाहरी विश्व को देखने की क्षमता रखनेवाली तथा स्वयं उसपर थोडा-बहुत विचार करने की क्षमता रखनेवाली ! बाहरी विश्व में इस आयु के बच्चों के आचार-विचार और उनकी बातों को देखा जाए, तो गुरुकृपा की छत्रछाया में बच्चे विचार से किस प्रकार से परिपक्व हो जाते हैं, यह उसके द्वारा लिखे गए इस लेख से स्पष्ट होता है । ‘पू. (श्रीमती) जाधवदीदी ने छोटी वैष्णवी को उसके बचपन में किस प्रकार से संस्कारित किया ?, उसके अज्ञानवश उसकी साधना में रूचि कैसे बढाई ? आज की युवा वैष्णवी को माया का दंश न झेलना पडे; इसके लिए उसका कैसे मार्गदर्शन किया ? जब उसके मन का संघर्ष हो रहा था, तब कैसे विचार किया जाता है ?, इसे सीखाकर साधना में भी लडकी को स्वावलंबी होना चाहिए, इसके लिए उन्होंने कैसे प्रयास किए ?, इन अनुकरणीय भावबंधों को भी कु. वैष्णवी ने धीरे से उजागर किया है । बच्चों को संस्कारित करनेवाले ऐसे अभिभावकों को बनानेवाली हमारी गुरुमाता के चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम ! आनेवाली पीढी, ऐसी बन गई, तो गुरुदेवजी का हिन्दू राष्ट्र स्थापना का लक्ष्य बहुत ही सहजता से साध्य होगा !
१. छोटी आयु में ही लडकी को प्रत्येक कृत्य अच्छे
प्रकार से, ठीकठाकता से और योग्य प्रकार से करने के संस्कार देना
‘मुझे बचपन से ही माता-पिता का सान्निध्य अल्प मिला । मैं ५ – ६ वर्षतक घरपर ही रही और उसके पश्चात शिक्षा हेतु पुणे में १ वर्ष और उसके पश्चात मिरज आश्रम में ४ वर्षोंतक रही । मेरी माता-पिता से वर्ष में केवल २ ही बार और वह भी १०-१५ दिनों के लिए भेंट हो पाती थी, अन्यथा केवल भ्रमणभाषपर ही संवाद हो पाता था । इतना अल्प सान्निध्य होते हुए भी माता-पिता ने मुझे जो संस्कार दिए, उसके कारण मैं साधना में आई और आज भी साधना कर पा रही हूं । मां ने मुझे बचपन से ही चादर को कैसे ठीक से मोडना चाहिए ?, हस्ताक्षर कैसे अच्छे लिखने चाहिएं ?, घर के सामने का परिसर स्वच्छ कैसे रखना चाहिए ?, ऐसे कई छोटे-बडे कृत्य गंभीरता से सिखाए । मां भले ही प्रसार में जाती हो; परंतु हम जितने समयतक एकत्रित रहते थे, उतने समय में ही उसने मुझे कई संस्कार दिए । बरतन मांजते समय उसमें यदि कांच के गिला अथवा कप हों, तो सबसे पहले उन्हें मांजकर बाजू में रखने चाहिएं, जिससे वे फूटेंगे नहीं इत्यादि बारिकियां वे मुझे भ्रमणभाषपर साधकों के साथ बातें करते समय भी बताती थी । उसका एक ही समय साधकों की ओर और मेरी ओर भी ध्यान होता था । मां ने अपनी साडियां भी इतने अच्छे प्रकार से रखी हैं और उनका उपयोग किया है कि आज भी उसकी २०-२५ वर्ष पहले की साडियां अच्छी स्थिति में हैं । घर में कहींपर भी थोडीसी अस्वच्छता होती है, तो वह उसे अच्छा नहीं लगता । वह अपनी स्थिति की की चिंता न कर सभी काम समेटकर घर को स्वच्छ रखती है । साधना में आनेपर वह हम सभी को सेवा, भाव और साधना के दृष्टिकोण सिखाती थी ।
२. सभी के साथ मन से प्रेम कर भी सभी से अलग रहने की
क्षमता रखनेवाली और गुरुमाता के संदर्भ में बिना थके बोलती रहनेवाली मेरी मां !
मेरे बचपन से ही माता-पिता के साथ बातें करने के लिए साधकों का मानो मेला ही लगा रहता था । उसके पश्चात जब मां सोलापुर जनपद छोडकर प्रसार हेतु अन्यत्र जाने लगी, तब भी छुट्टियों में मां जब घर आती थी, तब प्रतिदिन ही सभी साधकों का सत्संग होता ही था । मां सभी साधकों को परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के संदर्भ में और साधना के संदर्भ में कितना भी बताने के लिए कभी नहीं थक जाती । उसे उसमें इतना आनंद आता है कि ‘मैं साधकों को कितना दूं और कितना छोडूं’, यह उसकी स्थिति होती है । वह प्रत्येक साधक को आग्रहपूर्वक खिलाती है । छोटे से लेकर बडोंतक सभी मां से खुले मन से बोल सकते हैं और उससे साधना में आगे भी बढते हैं । अब पूर्णकालीन साधना करनेवाले साधक जब मुझे मिलते हैं, तब वे मुझसे कहते हैं कि तुम्हारी मां के कारण ही हम पूर्णकालीन साधक बन गए हैं । कुछ साधक मुझे कहते थे, ‘‘वैष्णवी, हमें तुमसे ईर्ष्या होती है । काकूजी यदि हमारी मां होतीं तो …’’ वास्तव में कहा जाए, तो वह मेरी मां अल्प और साधकों की ही मां अधिक है; क्योंकि मैने उसे साधकों से मां की भांति प्रेम करते हुए मैने देखा है । हम कभी खरीदारी के लिए गए, तो मां उसके साथ सेवारत साधिकाओं के कलए बटुआ, कपडे, कान के आभूषण इत्यादि उनकी पसंद की वस्तुएं लेती है । मां सभी के साथ उतना ही प्रेम करती है और उनसे चूकें होनेपर उतनी ही अधिकारवाणी से बोलती है । अन्यों की चूकें बताने के संदर्भ में मां की विशेषता यह है कि भले ही वह कितना भी क्षोभ से बोले; परंतु उससे कोई भी आहत नहीं होता । कभी-कभी उसके चिल्लाने से मुझे क्रोध आता था; परंतु साधकों में उसके प्रति क्रोध नहीं होता, इसके विपरीत उन्हें मां के प्रति प्रेम ही लगता है ! परात्पर गुरु डॉक्टरजी जो बताते हैं कि समस्त सनातन संस्था एक परिवार है, इसकी प्रतिती मैने कई बार की है ।
मां की और एक विशेषता यह है कि सभीपर इतना प्रेम कर और सभी से इतनी निकटता होते हुए भी वह किस में नहीं फंसी है । वह प्रत्येक साधक की ओर तत्त्वनिष्ठता और साक्षीभाव से देखती है । सामने के व्यक्ति के जीवन में भले ही कितना भी कठिन प्रसंग आया हो, तो भी मां उसके कारण कभी विचलित नहीं होती । ‘परात्पर गुरुदेवजी को सबकुछ ज्ञात है और ईश्वर ही साधकों के पालनहार हैं’, इस श्रद्धा के बलपर मां सभी के साथ होते हुए भी एकांत में ईश्वर के साथ होती है ।
३. गुरुमाता के भक्तिरस में स्वयं नहाकर अपनी लडकी को भी भक्तिरस में डुबोना
‘मां’ कहते ही आंखों के सामने आता है परात्पर गुरुदेवजी का स्मरण और भावभक्ति !’ हम उसे चाहे कितनी बार मिले होंगे अथवा उसके साथ बात की होगी, उतनी बार मां ने कभी भी ‘क्या तुम्हें मेरा स्मरण होता है ? और ‘क्या तुम मुझसे मिलोगी ?’, ऐसा कभी नहीं पूछा । सदैव उसका एक ही प्रश्न होता है, ‘‘तुम्हारे श्रीकृष्णजी क्या कहते हैं ? अथवा ‘‘तुम्हें गुरुदेवजी के संदर्भ में क्या अनुभूतियां हुईं ? अथवा अब तुम्हारे साथ बातें करते समय मुझे इधर रामनाथी आश्रम का चैतन्य मिल रहा है ।’’ उसके साथ बातें करना, तो एक सत्संग ही होता है । बचपन से ही मां ने मुझे उसके साथ मानसिक स्तरपर जोडने की अपेक्षा ईश्वर के साथ ही जोडा । मैं ८वें वर्ष में मिरज आश्रम गई । मैं वहां ४ वर्षतक थी । उस अवधि में मुझे उसका कभी स्मरण होनपर मैं उससे संपर्क करती थी, तब वह मुझे कहतीं, ‘‘वैष्णवी, मैं भला तुम्हें क्या दे सकती हूं ? तुमसे प्रेम करनेवाला भगवान तो तुम्हारे पास ही है । परात्पर गुरुदेवजी साक्षात नारायण हैं । तुम साक्षात वैकुंठ लोक में ही हो । हम वहां (आश्रम) आने के लिए तडपते हैं, तो अब तुम ही बताओ कि ईश्वर के सान्निध्य में तुम हो अथवा हम ?’’ उसकी इन बातों के कारण ही मुझे अपनेआप ही गुरुदेवजी से बातें करने की और उनके चरणों में आत्मनिवेदन की आदत लगी ।
४. बचपन के उस निर्मल भावविश्व में गुरुमाता के प्रति
भक्ति के बीज बोए जाने के कारण गुरुमाता के प्रति कृतज्ञताभाव उत्पन्न होना
जब मैं विद्यालय जाती थी, तब एक बार मां मिरज आश्रम आई थी । वह मुझे अपने साथ लेकर बैठी आरै कहने लगीं, ‘‘वैष्णवी, चिरंतन आनंद की प्राप्ति तो साधना और मनुष्यजीवन का ही लक्ष्य है । भले तुम कितनी भी शिक्षा क्यों न लें; परंतु यह आनंद तुम्हें और कोई नहीं दे सकता । उसे केवल गुरुदेव ही दे सकते हैं । गुरुचरणों में ही सबकुछ है, इसका सदैव ध्यान रखो ।’’ तब मैं केवल १० वर्ष की थी; इसलिए वह क्या बोल रही थी, इसका मुझे कोई बोध नहीं हुआ; परंतु ईश्वर ने ही मेरे अंतर्मनपर उसके वो शब्द स्थायीरूप से अंकित कर दिए । वास्तव में कहा जाए, तो साधना में आने के पश्चात गुरुदेव ही हमारी चिंता करते हैं और हमें संस्कारित करते हैं, ऐसा नहीं है । बचपन से ही माता-पिता के माध्यम से ईश्वर ने मुझे साधना के संस्कार देकर साधना में ले आए । परात्पर गुरुदेवजी ने माता-पिता के माध्यम से अनेक प्रकार से मुझे संस्कार देकर मुझे साधना में ले आए । परात्पर गुरु मेरे जीवन में साधना की नींव कब से रख रहे थे, इसका केवल स्मरण करने से ही मन कृतज्ञता से भर आता है ।’
५. माया से संबंधित कृत्य भी साधना के
दृष्टिकोण से किया जाना और अखंडित गुरुस्मरण में रत होना
साधना के प्रति सतर्कता, तडप और निदिध्यास ये मां के मुख्य गुण हैं । वह भले घर में हो अथवा आश्रम में, परिजनों में हों अथवा साधकों में; उसके मन में सदैव साधना के ही विचार होते हैं । सामने की प्रत्येक बात को वह साधना से अर्थात ईश्वर से जोडती है । परिजन भले ही उसे माया से संबंधित बातें बता रहे हैं, तो भी ईश्वर कैसे हमारी चिंता करते हैं ?, वे क्या दिखा रहे हैं, यह बताकर वह सभी को साधना से जोडने का प्रयास करती है । वह घर में अथवा कहीं भी हो, तब भी अखंडित सेवा, नामजप, परात्पर गुरुदेवजी का स्मरण, अनुभूतियां और साधकों से प्रेम करना इन बातों को छोडकर उसने और कुछ किया हो, ऐसा मैने इतने वर्षों में नहीं देखा है । हम जब किसी परीजन से मिलकर घर लौटते हुए मां हमें पूछती थी, ‘‘तुमने इससे क्या सीखा ? तुमने उनके घर में साधना के रूप में कौनसा कृत्य किया ? तुम्हें ईश्वर का स्मरण कितना होता था और ईश्वर ने उससे तुम्हें क्या सिखाया ?’’ इसके कारण अपनेआप ही अंतर्मुखता उत्पन्न होकर परिजनों के घर जानेपर भी वहां मनोरंजन के लिए न जाकर अपनेआप साधना का भान होता था ।
६. ‘पूर्णकालीन साधक क्या होता है ?’, इसपर चिंतन करने के लिए
कहकर मन में साधना की तीव्रता से तडप उत्पन्न करनेवाली मेरी अलबेली भावुक मां !
मैं जब पूर्णकालीन साधना करने लगी, तब एक बार घर में कार्यक्रम था । तब मेरा घर जाना नहीं था; किंतु मैने घर जाने हेतु मां से बहुत हठ किया । मां मुझे समझा रही थी, तब भी मैने रोते-रोते क्रोध से मां से कहा, ‘‘तुम ऐसा ही करती हो । तुम्हें मुझे समझ ही नहीं लेना है ।’’ तब मां ने उतनी ही स्थिरता से मुझे बताया, ‘‘देखो वैष्णवी, तुम्हें बुरा लगेगा; परंतु तुम इसे ध्यान में लो कि इससे तुम्हारी साधना का जो समय व्यर्थ होगा, वह तुम्हें पुनः कभी नहीं मिलेगा । मुझे तुम्हें घर ले जाने में कोई समस्या नहीं है; परंतु उससे तुम्हारे साधना की कितनी क्षति होगी, वह मेरे बिना तुम्हें और कोई नहीं बताएगा । तुम्हें कुछ क्षण बुरा लगेगा; परंतु क्या तुमने इसपर विचार किया है कि उससे तुम्हारी साधना का कितना व्यय होगा ? आज घर में कार्यक्रम होगा और वह कुछ घंटों में समाप्त भी होगा; परंतु उससे तुम्हें क्या मिलेगा ? साधना के लिए संपूर्ण जीवन है, ऐसा नहीं है । हममें जितनी तडप होती है, उतनी गति से ईश्वर हमारी ओर दौडे चले आते हैं । तडप ही न हो, तो साधना का यह समय ऐसे ही व्यर्थ होता रहेगा । ईश्वर को निरंतर पुकारते रहना चाहिए । तुम अपने निर्धारित लक्ष्यपर विचार करो और क्या करना है, इसे सुनिश्चित करो ।’’, ऐसा बताकर उसने मुझपर ही निर्णय छोड दिया । तब ऐसा लगा कि ऐसी मां कहां मिलेगी, जो केवल अपने बच्चों की साधना का विचार करती हो और उसके लिए वह कितनी भी बुराई लेने के लिए सिद्ध हो !’
७. परात्पर गुरुदेवजी के प्रति विद्यमान दृढ श्रद्धा के कारण
अत्यंत कठिन प्रसंग में भी बडी सहजता से स्थिर रहना संभव होना
७ अ. लडके के मस्तिष्क को मार लगनेपर भी गुरुदेवजी के प्रति दृढ श्रद्धा के बलपर स्थिर रहना
पहले मां का स्वभाव बहुत चिंता करनेवाला था । पिताजी को घर आने में विलंब होनेपर उसका रक्तचाप बढता था; परंतु साधना में आनेपर ईश्वर ही कैसे बदलाव लाते हैं, इसका उदाहरण मां है । एक बार प्रतीकभैय्या की दुर्घटना हुई और उसमें उसके मस्तिष्क को मार लगी थी । उस समय मैं मिरज में शिक्षा ले रही थी और मां प्रसार में थी । भैय्या की दुर्घटना होने का ज्ञात होनेपर भी वह स्थिर थी और तब भी उसमें ‘परात्पर गुरुदेवजी ही चिंता करेंगे’, यह दृढ श्रद्धा थी ।
७ आ. मां की बडी बहन की मृत्यू होनेपर भी सकारात्मक स्थिति में रहकर
ईश्वर का अनुभव करना और स्वयं भाव की स्थिति में रहकर दूसरों को भी उसी स्थिति में ले जाना
मां की बडी बहन की मृत्यु होनेपर भी मां ने इस प्रसंग का बहुत स्थिरता के साथ सामना किया । मां को जब कभी मौसी का स्मरण होता था, तब वह भावना के स्तरपर न रहकर अथवा उसका स्मरण न कर परात्पर गुरुदेवजी से प्रार्थना करना, आत्मनिवेदन करना जैसे कृत्य करती थी । तब मौसी के घर जानेपर भी उसने उस घर के वातावरण को ही बदल डाला । उसने अखंडित नामजप लगाकर रखा । वह सभी परिजनों को आध्यात्मिक स्तरपर धीरज दे रही थी । घर के सभी को मौसी की मृत्यु के पश्चात भी ‘ईश्वर ने उसे किस प्रकार से गति प्रदान की है ?, ईश्वर ने ही उसके सभी अंतिम संस्कार कैसे करवा लिए ?, कदम-कदमपर ईश्वर ही इसकी कैसे अनुभूति करा रहे हैं’, इसका वह समय-समयपर सभी को भान करवा रही थी । उसके कारण हमारे परिजनों को १३ दिन का सत्संग ही मिला और उससे उनमें श्रद्धा बढने का भी प्रतीत हुआ । मौसी की मृत्यु के पश्चात भी १३ दिनोंतक मां ने जिसके साथ भी बात की, उसमें उसने मौसी की स्मृतियों के संदर्भ में अथवा भूतकालीन प्रसंगों के संदर्भ में न बोलकर ईश्वर ने उसे कितनी और किस प्रकार से अनुभूतियां दीं ? अपनी बहन के माया में होते हुए भी ईश्वर ने उसकी कैसे चिंता की ?, यही वह सभी को बताती थी । मां की यह विशेषता है कि वह स्वयं में लिप्त न होकर भाव के स्तरपर रहती है और दूसरों को भी भाव की स्थिति में ले जाती है ।’
८. घर के किसी भी प्रसंग में अथवा समस्या में फंसने न देना
मेरे आश्रम में पूर्णकालीन होने से मां कभी मुझे घर की बातें, समस्याएं अथवा प्रसंगों के संदर्भ में कुछ नहीं बताती । यदि मुझे ज्ञात हुआ, तो भी वह मुझसे यही कहती है, ‘‘वैष्णवी, ये माया के विषय कभी न समाप्त होनेवाले हैं । अतः तुम उनकी ओर ध्यान न देकर अपनी साधना की ओर ध्यान दो ।’’ परिवार का कोई विषय हो, तो वह कहती है, ‘‘प्रत्येक व्यक्ति अपना प्रारब्ध भोगकर उसे समाप्त कर रहा है, तो हमें चिंता करने की क्या आवश्यकता है ? हमें केवल ईश्वर की ओर ही देखना है ।’’
९. किया जा रहा प्रत्येक कृत्य योग्य अथवा अयोग्य,
इसे ईश्वर से पूछने के लिए कहकर प्रत्येक प्रसंग में ईश्वर से
जोडनेवाली तथा उससे स्वावलंबन का आनंद प्राप्त करा देनेवाली मेरी मां !
वास्तव में कहा जाए तो, माता-पिता ने मुझे कभी भी माया की इच्छित वस्तु देने के लिए कभी ‘नहीं’ नहीं कहा; परंतु माया की बातों से मिलनेवाले सुख की अपेक्षा त्याग और साधना का आनंद बडा होता है’, यह उन्होंने मुझे समय-समयपर दिखा दिया है । उन्होंने कभी भी ‘मैं साधना करती हूं; इसलिए मुझे ऐसा ही रहना चाहिए’, ऐसा कभी बलपूर्वक नहीं किया, अपितु ‘तुम्हारे अंतर्मन की ध्वनि तुम्हें योग्य और अयोग्य क्या है, यह बताती है’, ऐसा कहकर उन्होंने मुझे सदैव ‘ईश्वर को क्या अच्छा लगेगा ?’, इसपर चिंतन करने के लिए ही कहा है । माता-पिता ने हमपर किसी बात की अनिवार्यता की, तो हम उसका तनिक भी स्वीकार नहीं करते अथवा किया भी, तो वह मन से नहीं होता; परंतु जब हमारे अंतर में विद्यमान ईश्वर ‘यह उचित होगा’, ऐसा जब बताते हैं, तब हम उसका आनंद के साथ स्वीकार कर उसके अनुसार आचरण करते हैं । मां मुझे सदैव ऐसा ही करने के लिए कहती है । वह मुझे ईश्वर से पूछने के लिए कहती है और उसके पश्चात ‘क्या उत्तर सही है ?, ईश्वर ने जो बताया, वह कैसे उचित है ?’, इसे समझाती है । उससे मन को संतुष्टि तो मिलती है; किंतु ‘ईश्वर द्वारा बताया गया उत्तर हमारी समझ में आया’, इसमें जो आनंद होता है, वह अलग ही होता है ।
१०. पूर्णकालीन साधना में रहकर भी गृहस्थी के सभी कर्तव्यों का निर्वहन करना
मां भले ही माया से कितनी भी विरक्त हो और सदैव प्रसार में ही सेवारत हो; परंतु वह एक दिन छोडकर दादा-दादी से संपर्क कर उन्हें धीरज देना, परिजनों के संपर्क में रहना, गृहस्थी से संबंधित जो कर्तव्य होते हैं, उनका निर्वहन करना यह सब करती है । छुट्टियों में कुछ दिनों के लिए हम जब घर में एकत्रित होते हैं, तब हमें जो अच्छा लगता है, उस पदार्थ को बनाकर हमें खिलाना, हम सभी को क्या चाहिए ?, इसे देखना ये सब वह करती है । बचपन से भले ही हम बहुत अल्प समय के लिए एकत्रित हों, तब भी हममें कोई दूरी नहीं और हम सभी एक-दूसरों में फंसे भी नहीं हैं ।
११. मन के बडे संघर्ष की स्थिति में भी स्वयं ही मार्ग
निकालने सिखानेवाली और जीवन में वास्तव में मेरी पहली गुरु मेरी मां !
‘मां’ शब्द के केवल स्मरण से ही स्वाभाविकरूप से भावुक और सभी की चिंता करनेवाली मां आंखों के सामने आती है; किंतु मेरे जीवन में मेरी मां एक मार्गदर्शक और गुरु के रूप में ही रही है । कभी मेरा संघर्ष हो रहा हो अथवा मेरे मन की स्थिति ठीक न हो, तब भी उसने कभी भी मुझे उसकी आधारवाली लाठी बनना नहीं सिखाया । भले कोई भी प्रसंग हो अथवा संघर्ष होनेपर ‘मां से संपर्क करना चाहिए’, ऐसा उसने मुझे कभी नहीं सिखाया । ‘तुम अपने पैरोंपर खडी हो जाओ । संघर्ष से उपाय निकालना सिखो । मन का जब बहुत संघर्ष होता हो, तो घर जाना उसका विकल्प नहीं है । वह एक पलायनवाद है और पलायन करनेवाला कभी नहीं जीत सकता’, यही वह सदैव सिखाते आई है । मैं अन्य बच्चों की माताओं को जब देखती हूं, तब यह बात ध्यान में आती है । उन्होंने अपने बच्चों को संघर्ष करना और संघर्ष में उपाय निकालना नहीं सिखाया; इसलिए उनकी प्रगति का मार्ग कुंठित हुआ है । माता-पिता ने मुझे यह सिखाया है कि भले ही कदम-कदमपर संघर्ष हो; परंतु हमें अपने लक्ष्य से विचलित नहीं होना है और यही ईश्वर की मुझपर बडी कृपा है ।
१२. सदैव प्रत्येक प्रसंग को सकारात्मकता से लेने से कृतज्ञताभाव का बढना
एक बार मैने मां से पूछा, ‘‘मां, क्या कभी तुम्हारे मन का कभी संघर्ष होता ?’’ तब उसने उत्तर दिया, ‘‘जब-जब संघर्ष का समय आया, तब-तब ईश्वर ने मुझ में भाव की स्थिति उत्पन्न कर मुझमें कृतज्ञता ही बढाई है ।’’ भले कोई भी अप्रिय प्रसंग हो, तब भी वह उस संदर्भ में कभी भी नकारात्मक विचार नहीं करती । ‘ईश्वर की कितनी कृपा है ?’, यही विचार होने के कारण स्वाभाविकरूप से उसके मन में ईश्वर के प्रति कृतज्ञता ही उत्पन्न होती है ।
१३. गुरुमाता के प्रति दृढ श्रद्धा उत्पन्न करनेवाली
मां की सत्यदर्शक बातें सुनकर स्वयं को सौभाग्यशाली मानना
एक बार मां ने मुझसे कहा, ‘‘वैष्णवी, गुरुदेवजी ने हमें अपने हाथ के तलुवेपर ले लिया है । ऐसे कई जीव हैं, जो अपना प्रारब्ध रोते-बिलखते, अत्यंत निढाल होकर और रक्तलांच्छित होकर भोगकर समाप्त करते हैं । ऐसे लोग संघर्ष करने में ही अपने जीवन का बडा भाग व्यय करते हैं और भोग भोगनेपर भी उसका दुख उनके मन से कभी नहीं निकल पाता; परंतु जिनपर गुरुकृपा होती है, उन्हें गुरुदेवजी अपने हाथ के तलुवेपर ले बैठे होते हैं और उपर से यह कहते हैं, ‘‘देखो, तुम्हारा प्रारब्ध ऐसा है ।’’ तुम्हारे जीवन में भले ही ऐसा कोई भी प्रसंग घटित हुआ हो अथवा संघर्ष हुआ हो; किंतु तुम गुरुदेवजी के तलुवेपर बंसी हो । वह प्रारब्ध की केवल झलक मात्र है । गुरुदेवजी ने तुम्हें किस स्थिति से बाहर निकाला है, इसकी तुम्हें कल्पना नहीं है, इसे सदैव ध्यान में रखो ।’’ मां की ये बातें सुननेपर मेरी आंखों के सामने कई बातें आ गईं । वास्तव में हमें जिसे संघर्ष कहते हैं, क्या वो वास्तव में संघर्ष होता है ? हमारी अपेक्षा कई जीवों ने हम से कई गुना अधिक भोगा हुआ है । मैं सबसे भाग्यशाली हूं कि मुझे ऐसे गुरु मिले हैं !’ इसके पश्चात ‘हम किन विचारों में फंस रहे हैं’, इसका अपनेआप भान हो जाता है ।
१४. गुरुमाता द्वारा माता-पिता की गई प्रशंसा
परात्पर गुरुदेवजी ने मुझे कई बार कहा है, ‘‘वैष्णवी, तुम सचमुच बहुत भाग्यशशाली हो; क्योंकि तुम्हें ऐसे माता-पिता मिले हैं । दूसरों के माता-पिता अपने बच्चों को माया में खींचते रहते हैं; परंतु तुम्हाले माता-पिता तुम्हारे और माया के मध्य में खडे होते हैं और उसके कारण ही आज तुम साधना में हो । तुम्हें साधना के संस्कार मिले हैं ।
१५. ऐसे माता-पिता मिलने के कारण गुरुमाता
के प्रति उमड आई कृतज्ञता और गुरुचरणें में की गई भावपूर्ण प्रार्थना
‘हे गुरुदेवजी, मैं तो मेरी मां के संदर्भ में लेख लिख रही थी; किंतु तब मन में मां की अपेक्षा आप ही का स्मरण अधिक था । उसका कारण यह है कि मेरी मां मेरी नहीं है, अपितु वह सभी साधकों की माता है और उसमें इन गुणविशेषताओं को अंतर्भूत करनेवाले आप ही हैं ! मुझे ऐसे संत के गर्भ में जन्म देनेवाले ईश्वर आप ही हैं । इसके लिए मैं अपने माता-पिता के चरणों में कृतज्ञता व्यक्त करूंगी ही; परंतु हे भगवन्, मैं आपके चरणों में कैसे कृतज्ञता व्यक्त करूं ? मैं कितने जन्म इस माया में फंसी हुई होगी, यह मुझे ज्ञात नहीं; किंतु इस जन्म में आपने प्रत्यक्ष गुरुरूप में आकर आपने अपने ही गर्भ में जन्म दिया है ! इस भवसागर में भी आप ही मेरी जीवननौका को आगे ले जा रहे हैं । हे गुरुदेवजी, मुझमें व्याप्त स्वभावदोष एवं अहं के कारण ही मैं आपके निरपेक्ष प्रेमभाव का अनुभव करने में अल्प पडती हूं । आपके द्वारा दी गई इन सभी बातों का मैं अपनी आध्यात्मिक उन्नति हेतु लाभ उठाने हेतु अल्प पडती हूं । हे गुरुमाता, आपकी कृपा मेरे ध्यान में आए । अहं के कोश को तोडकर आपके कृपाजल से मेरा रोम-रोम ईश्वर के नाम से भर जाए’, यही आपके चरणों में प्रार्थना !’
– कु. वैष्णवी विष्णुपंत जाधव, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा
स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात
गुरू माऊलींचा विजय आसो.