ब्रह्ममूर्ति संत हुए जगत में अवतरित । आए उद्धार हेतु दीनों का जगत में ॥ – संत नामदेव
संत नामदेवजी उक्त श्लोक में बताते हैं कि दीनों के उद्धार हेतु साक्षात ब्रह्मस्वरूप संत इस जगत में अवतरित हुए हैं । संत ईश्वर का सगुण रूप होते हैं । आज के इस कलियुग में केवल संत ही चैतन्य के स्रोत हैं । माया में फंसे और ईश्वरप्राप्ति के मूल उद्देश्य से भटके हुए जीव को ईश्वर की दिशा में पुनः अग्रसर बनानेवाले संत ही होते हैं । आज ऐसे सच्चे संतों के दर्शन एवं मार्गदर्शन दुर्लभ हो चुका है । तब भी जो सच्चे संत हैं, उनके प्रति परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का भाव कैसा होता है, इसके कुछ प्रातिनिधिक उदाहरण हम इस लेख में देखेंगे । शब्दशः बताना हो, तो परात्पर गुरुदेवजी ने संतों का मोल जितना जाना है, उतना शायद ही अभीतक किसी ने जाना होगा । परात्पर गुरुदेवजी के शब्दातीत भाव को शब्दबद्ध करने में मर्यादाएं हैं । ‘संतों के प्रति स्वयं का भाव बढाकर उनके मार्गदर्शन का क्रियान्वयन करना’, ही वास्तव में परात्पर गुरुदेवजी को जानकर लेना है !
१. साधकों की उन्नति से आनंदित होना
परात्पर गुरुदेवजी के लिए साधक ही सबकुछ हैं । उन्होंने एक बार कहा था, ‘मुझे सभी पुष्पों में ‘साधक पुष्प’ सबसे अधिक प्रिय है ।’ यह सत्य ही है; क्योंकि उन्हें सदैव ही ‘साधकों के लिए क्या करूं और क्या न करूं’, ऐसा लगता है ।
आज की सद्गुरु (कु.) स्वाती खाडयेजी वर्ष २०१३ में संतपदपर विराजमान हुईं । तब देवद के सनातन आश्रम में हो रहे उनके सम्मान समारोह को परात्पर गुरुदेवजी रामनाथी आश्रम से संगणकीय प्रणाली के माध्यम से देख रहे थे । उसी समय उनके अल्पाहार का समय हुआ; इसलिए रसोईघर की एक साधिका उनके लिए अल्पाहार लेकर आई । तब परात्पर गुरुदेवजी ने कहा, ‘‘क्या यह देखकर पेट नहीं भरता ? उसके लिए अलग से अल्पाहार की क्या आवश्यकता है ?’’ परात्पर गुरुदेवजी के यह बोल प्रत्येक साधक के लिए प्रेरणादायक हैं । साधक की आध्यात्मिक उन्नति होनेपर वह साधक जितना आनंदित नहीं होगा, उतने गुरुदेवजी आनंदित होते हैं । गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी का एक वचन है, ‘शिष्य की उन्नति का सर्वाधिक आनंद तो गुरु को ही होता है ।’ उसके अनुसार अब १०४ साधक (अगस्त २०२०) संतपदपर विराजमान हुए हैं, इससे परात्पर गुरुदेवजी बहुत आनंदित होते हैं । साधकों की आध्यात्मिक उन्नति देखकर उनकी भावजागृति भी होती है ।
२. संतों से भेंट की आतुरता से प्रतीक्षा करना
विगत कुछ वर्षों से अखिल भारतीय हिन्दू राष्ट्र अधिवेशन के उपलक्ष्य में विविध जनपदों में धर्मप्रसार की सेवा करनेवाले संत रामनाथी आश्रम आते हैं । तब परात्पर गुरु सभी संतों की आतुरता के साथ प्रतीक्षा करते हैं । सद्गुरु एवं संतों के आश्रम आनेपर उन्हें आश्रम में आए विविध परिवर्तन दिखाना, स्वयं के निवासकक्ष में आए परिवर्तन दिखाना, संतों के शरीर में आए विशेषतापूर्ण परिवर्तन को पहचानकर अगली पीढीयों के लिए उनका चित्रीकरण कर रखना आदि के नियोजन करने के लिए कहते हैं । इस अवधि में संतों को अल्पाहार एवं भोजन देते समय भी विविध पदार्थ बनाने का नियोजन किया जाता है । परात्पर गुरु डॉक्टरजी रामनाथी आश्रम में आनेवाले साधक और संतों का मानो किसी माईके आई हुई कन्या की भांति आदरातिथ्य करते हैं ।
३. संतों द्वारा उपयोगित वस्तुओं का संग्रह करना
संतों का अमूल्य सहवास प्राप्त वस्तु उनके चैतन्य से भारित हो जाती हैं । आज के इस रज-तमात्मक वातावरण में ये वस्तुएं चैतन्य की धरोहर ही हैं । साधकों को निरंतर यह चैतन्य मिले; इसके लिए परात्पर गुरुदेवजी संतों द्वारा उपयोगित वस्तुओं का जतन करते हैं, उसके कुछ उदाहरण हैं –
३ अ. सनातन के पहले परात्पर गुरु कालिदास देशपांडेजी जब एक बार परात्पर गुरु डॉक्टरजी से वार्तालाप कर रहे थे, तब उनकी आंखों में भावाश्रु आ गए । तब परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने वो भावाश्रु समष्टि हेतु अमूल्य होने से उन्हें टिपने के लिए कहा था ।
३ आ. सनातन की सद्गुरु प.पू. शकुंतला पेठेदादीजी, परात्पर गुरु देशपांडेकाकाजी आदि संतों के देहत्याग के पश्चात परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने उनके उपयोग की वस्तुओं का अच्छे प्रकार से जतन किया है ।
३ इ. ११.१२.२००२ को परात्पर गुरु डॉक्टरजी के चरणोंपर समर्पित सेवती के पुष्प सद्गुरु (कु.) अनुराधा वाडेकरजी ने प.पू. फडकेदादीजी को दिए थे । दादीजी ने उन पुष्पों का जतन किया था । उनके देहत्याग के पश्चात परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने भी उन पुष्पों का जतन करने के लिए कहा । अब उन पुष्पों को १६ वर्ष बीत चुके हैं । उनमें से एक पुष्प की पंखुडियां कुछ मात्रा में निकल आई हैं; परंतु आज भी उन पुष्पों को सूक्ष्म गंध आती है ।
३ ई. सनातन की धर्मप्रसारक सद्गुरु (कु.) अनुराधा वाडेकरजी द्वारा उपयोगित बटुवे को दैवीय सुगंध आ रही थी । उन्होंने उस बटुवे को, साथ ही उनके द्वारा कला की शिक्षा की अवधि में बनाए गए चित्रों का भी परात्पर गुरुदेवजी ने अमूल्य धरोहर के रूप में जनत किया है ।
कई संतों के आश्रम में शिष्यों अपने गुरु द्वारा उपयोगित वस्तुओं को संग्रहित करते हैं । शिष्यों की विशेषतापूर्ण वस्तुओं को संग्रहित कर उसपर आध्यात्मिक शोध करनेवाले परात्पर गुरुदेवजी एकमात्र गुरु हैं ।
४. संतों के शरीर में आए विशेषतापूर्ण आध्यात्मिक बदलावों का अध्ययन करना
व्यक्ति की साधना का परिणाम उसका शरीर, उसके द्वारा उपयोगित वस्तुएं और इर्द-गिर्द के वातावरणपर होता है । कई बार साधना बढनेपर शरीरपर चमक आना, बाल और त्वचा का मुलायम हो जाना जैसे बदलाव दिखाई देते हैं ।
शारीरिक तत्त्व की भांति कुछ भागोंपर भाव-भक्ति की नीली, चैतन्य की पीली और प्रेमभाव की गुलाबी आभा दिखाई देती है । साधक के वस्र, उपयोगित वस्तुएं और अन्य वस्तुओं पर ऐसे दृश्य परिणाम दिखाई देते हैं । ये दृश्य परिणाम संतत्व की एक प्रचीती होती है । सनातन संस्था के संतों के सादगीयुक्त एवं सहज जीवनशैली के कारण सामान्य व्यक्ति उन्हें संत के रूप में पहचान नहीं सकते । उनका सान्निध्य प्राप्त साधकों की अनुभूतियों के माध्यम से साधकों को संतों की श्रेष्ठता ध्यान में आती है, तो शरीर में आए शुभसूचन बदलावों से समाज को संतों का संतत्त्व समझ आता है । परात्पर गुरुदेवजी ने सनातन संस्था के संतों के शरीर में आए बदलावों का चित्रीकरण किया है । अगली पीढीयों के लिए सनातन संस्था की यह एक अमूल्य धरोहर है । गुरुदेवजी के मार्गदर्शन में संतों के जन्मपत्रिकाओं का अध्ययन कर उसके द्वारा अनोखा शोधकार्य चल रहा है ।
५. संतों की साधनायात्रा को जान लेकर उसे समाज के लिए उपलब्ध करवाना
परात्पर गुरुदेवजी द्वारा विशद की गई गुरुकृपायोग के अनुसार साधनामार्ग का ‘जितने व्यक्ति उतनी प्रकृतियां और उतने ही साधनामार्ग’ यह प्रमुख तत्त्व है । उसके अनुसार प्रत्येक साधक की साधना के प्रयासों में एक प्रकार की नवीनता होती है । ये प्रयास सभी को ज्ञात हो तथा अन्य साधकों भी उसके अनुसार प्रयास करना संभव हो; इसके लिए परात्पर गुरु डॉक्टरजी साधना के विशेषपूर्ण प्रयास करनेवाले साधक और संतों की जीवनयात्रा के संदर्भ में नियतकालिकों से लेख प्रकाशित करते हैं । उनकी भेंटवार्ता का चित्रीकरण कर उस साधनायात्रा को अगली पीढीयों के लिए उपलब्ध करा देते हैं ।
कृतज्ञता !
परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी में संत, उनकी वस्तुएं तथा संतों के मार्गदर्शन के प्रति अत्युच्च कोटि का भाव है । वास्तव में शिष्य को गुरु की सेवा करनी होती है; परंत संतों के प्रति साधक और समाज में भाव बढे; इसके लिए गुरुदेवजी अपने आचरण से हमें बना रहे हैं । ‘श्रीगुरुदेवजी की इस सीख के अनुसार हम साधकों में ही संतों के प्रति भाव बढे तथा हम सभी के द्वारा उन्हें अपेक्षित साधना हो, यह श्रीचरणों में प्रार्थना !’
– कु. सायली डिंगरे, सनातन आश्रम (१०.७.२०१९)
संत बने शिष्यों के जीवनचरित्र का संकलन
करनेवाले विश्व के एकमात्र गुरु डॉ. आठवलेजी !
सामान्यरूप से शिष्य गुरु का चरित्र लिखते हैं । हमें कहींपर भी गुरु के द्वारा शिष्यों का चरित्र लिखा हुआ दिखाई नहीं देता । सनातन संस्था के कई साधक परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के मार्गदर्शन में साधना कर संत बन चुके हैं । ऐसे संतों का, उदा. सद्गुरु (कु.) अनुराधा वाडेकरजी के जीवनचरित्र का (उनकी साधनायात्रा, कार्य, सीख इत्यादि) परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी स्वयं संकलन कर रहे हैं । उसके पूर्ण होनेपर वे सनातन संस्था के अन्य संतों का भी जीवनचरित्र लिखनेवाले हैं । इसी प्रकार से जन्म से ही संत २ वर्षीय पू. भार्गवरामजी के चरित्रग्रंथ भी प्रकाशित हुए हैं ।
कोई साधक जब संत बन जाता है, तब परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी जितना आनंदित होते हैं, उतना ही आनंद उन्हें संतों के चरित्र का संकलन करते समय भी होता है । परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने शिष्यों को गुरुत्व (संतत्व) प्रदान कर स्वयं के पास शिष्यत्व (संतों के चरित्र का सेवाभाव से संकलन करना) रखने का नया आदर्श केवल सनातन संस्था के ही नहीं, अपितु विश्वभर के संतों के सामने रखा है !’