दसवां संस्कार : मेधाजनन

महत्त्व

मेधा अर्थात बुद्धि की सू्क्ष्म अवस्था । जिसकी मेधा जागृत है, उसे सर्व साध्य होता है । त्रिसुपर्ण ग्रंथ में मेधा को ब्रह्मरस कहा गया है । यह अवस्था प्राप्त होेने पर द्वैताभास एवं भ्रम नष्ट होकर जीवन-सत्य समझ में आने लगता है; इसलिए यह संस्कार आवश्यक है । ऋषिकुल में इसी दृष्टि से शिक्षा देकर उसकी मेधा जागृत करते थे । – परात्पर गुरु पांडे महाराज, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल.

 

मुहूर्त

उपनयन के पश्‍चात चौथे दिन यह विधि की जाती है ।

 

संकल्प

मेरे कुमार के उपनयनव्रत की समाप्ति पर, वेदग्रहण करने की सामर्थ्य रूप बुद्धि उत्पन्न होने पर, श्री परमेश्‍वर की तृप्ति हेतु मेधाजनन नामक कर्म करता हूं । जिसका दूसरा नाम है मेधा, उस सावित्री का पूजन करता हूं, ऐसा संकल्प करें । जनेऊ के पश्‍चात आगे की बातों के लिए बटु आशीर्वाद मांगता है ।

१. स्वस्ति : स्वस्ति अर्थात कल्याण

२. श्रद्धा : श्रद्धाबिना ज्ञान नहीं ।

३. मेधा : मेधा अर्थात आकलनक्षमता

४. यश

५. प्रज्ञा : विचारशक्ति

६. विद्या : विद्या के कारण ज्ञान होता है ।

७. बुद्धि : विद्या प्रस्तुत करने का कौशल्य, विवेचककौशल्य ।

 

विधि

इस विधि में पलाश की छडी पर मेधादेवी का आवाहन कर उनकी पूजा करते हैं । इस विधि में पलाश के छडी पर ‘सुश्रव’ यह मंत्र पाठ करते हुए ब्रह्मचारी को (बटु) (ब्रह्मवृक्ष की) डाली के चारों ओर सर्व जल छोडते हुए उसकी तीन बार परिक्रमा करनी पडती है । परिक्रमा के पश्‍चात बटु स्नान कर ब्रह्मवृक्ष के स्थान पर उपनयन विधि में बताए अनुसार नवीन यज्ञोपवीत, अजिन (चर्म), मेखला, दंड इत्यादि मंत्रपूर्वक धारण करे एवं पुराने ब्रह्मवृक्ष के स्थान पर विसर्जित करे । इसके पश्‍चात ब्राह्मण मेधासूक्त पढकर प्रार्थना करते हैं ।

संदर्भ : सनातन – निर्मित ग्रंथ सोलह संस्कार

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