अधिकांशत: सदैव होनेवाली भूल के लिए प्रायश्चित कर्म है नित्यनैमित्तिक कर्म अर्थात दैनिक पूजा-अर्चना, स्नान-संध्या, व्रत इत्यादि । (इन कर्मों के सन्दर्भ में विस्तृत विवरण सनातन के ग्रंथ कर्म का महत्त्व, विशेषताएं व प्रकार में दिया है ।
१. सदैव होनेवाली एवं अधिकांशतः अटल चूकें
अ. अनजाने में हुए अपराध, उदा. चलते समय अथवा पानी उबालते समय होनेवाली जीव-जन्तुओं की हत्या
आ. अपनी इच्छा, वासना, काम-क्रोध-लोभादि षड्रिपु आदि पर नियंत्रण न रखना
इ. धर्म में बताए हुए विधिनिषेधों का पालन न करना
ई. अपने कर्तव्य का पालन न करना, उदा. मां-पिताजी की अपेक्षित सेवा न करना
उ. अन्यों को कष्ट हो, ऐसे कर्म करना, उदा. दूसरेको दुःख हो, ऐसे बोलना कृतघ्नता के पाप के लिए कोई प्रायश्चित नहीं है । कृतघ्न व्यक्ति के शवको लोमडी, कुत्ता भी स्पर्श नहीं करता है । कौआ भी उसके पिण्डको स्पर्श नहीं करता । – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी
२. विविध प्रायश्चित
अ. वैश्वदेव
वैश्वदेव (पंचमहायज्ञों में से एक यज्ञ) के कारण अनजाने में हुए पापों का नाश होता है ।
आ. विष्णुस्मरण प्रायश्चित
प्रत्येक कर्म के अंत में विष्णवे नमः । कहकर विष्णुस्मरण करना, विष्णु नाम का जप १ सहस्र बार / उससे अधिक बार करना अथवा विष्णुसहस्रनाम का उच्चारण करना । (१९)
इ. (मां) गंगा से संबंधित प्रायश्चित
शरीर द्वारा तीन प्रकार के पाप होते हैं – चोरी करना, विधि के अतिरिक्त हिंसा करना एवं परस्त्रीगमन ।
वाणी के चार पाप हैं – दूसरे के मनको ठेस पहुंचे, इस प्रकार से बोलना, असत्य बोलना, चुगली करना एवं अकारण बडबड करना ।
मन के तीन पाप हैं – दूसरे के धन के प्रति लोभ, अनिष्ट विचार तथा दुराग्रह ।
गंगा में स्नान करने से उपरोक्त सर्व दस पापों का नाश होता है; इसलिए गंगाको दशहरा कहते हैं । गंगास्नान सबके लिए संभव नहीं । अतएव इन पापों का नाश करने हेतु स्कंदपुराण में यह उपाय दिया है – ज्येष्ठ शुक्ल दशमी की तिथि पर भावयुक्त अंतःकरण से स्नान करें एवं दान दें । निकटवर्ती नदी को गंगानदी मानकर नदी मेें तिल एवं जल का अर्घ्य दें । उपरोक्त दस पापों से मुक्त होने हेतु गंगा से प्रार्थना करें ।
ई. उपवास
अन्न के बिना शरीर कृश करना एवं साथ ही अहिंसा, सत्य, दया, संयम, सौजन्य, सद्गुण आदि आत्मसात करना, उपवास शब्द का इतना व्यापक अर्थ है ।
उ. व्रताचरण
प्रायश्चित के रूप में कुछ व्रत किए जाते हैं, उदा. पापमोचनव्रत । भ्रूणहत्या के पाप से मुक्ति पाने हेतु यह व्रत किया जाता है । इसमें बारह दिन अन्न ग्रहण किए बिना बिल्ववृक्ष के नीचे रहकर यह व्रत किया जाता है । (उपवास और व्रतों के सन्दर्भ में विस्तृत विवरण सनातन के ग्रन्थ धार्मिक उत्सव एवं व्रतों का अध्यात्मशास्त्रीय आधारमें दिया है ।)
ऊ. तीर्थयात्रा पर जाना
किसी अन्य स्थान पर किए गए पाप पुण्यक्षेत्र में जाने से नष्ट होते हैं; परंतु पुण्यक्षेत्र में किया गया पाप किसी भी प्रकार से नष्ट नहीं होता ।
ए. दान
सुवर्णदानं गोदानं भूमिदानं तथैव च ।
नाशयन्त्याशु पापानि ह्यन्यजन्मकृतान्यपि ॥ – संवर्तस्मृति, श्लोक २०१
अर्थ : सुवर्णदान, गोदान तथा भूमिदान जैसे दान से अन्य जन्मों में किए पाप भी तुरन्त नष्ट होते हैं ।
(दान के सन्दर्भ में विवरण सनातन के ग्रन्थ वर्णाश्रमव्यवस्थामें दिया है ।)
ऐ. भक्ति
ईश्वर की शरण जाने पर , उनका पूजन-अर्चन करने पर एवं उनका नामजप करने से भी भक्तों के सर्व पाप धुल जाते हैं, ऐसा आग्रहपूर्वक प्रतिपादित किया गया है ।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
– श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १८, श्लोक ६६
अर्थ : सम्पूर्ण धर्मोंको मुझमें त्यागकर तुम केवल मेरी शरण में आ जाओ । मैं तुम्हें सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा । तुम शोक मत करो ।
ओ. वेदाभ्यास
मनुस्मृति, अध्याय ११, श्लोक ४५ के अनुसार, अबुद्धिकृत अनायास घटित पाप वेदाभ्यास से धुल जाता है । मोहवश एवं बुद्धिपूर्वक किया गया पाप विविध प्रकार के प्रायश्चितों से नष्ट होता है ।
औ. समष्टि साधना
धर्मशास्त्र की मर्यादा की रक्षा करने हेतु अथक प्रयत्न करनेवाले व्यक्तिको सर्व पापों से मुक्ति मिलती है (समष्टि साधना का महत्त्व) :
जो समर्थ है और धर्मशास्त्र की मर्यादा की रक्षा करने हेतु यथाशक्ति अथक प्रयास करता है, वह सर्व पापों से मुक्त हो जाता है । उसे सम्यक ज्ञान प्राप्त होता है । – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी
३. तीव्र प्रायश्चित
अ. अत्यंत कठोर उपवास
अ. एक हाथ में जितना जल समाए, उतना जल दिनभर में केवल एक ही समय पीना, इस प्रकार नौ दिन रहना और तदुपरांत तीन दिन उपवास करना (वसिष्ठ)
आ. बारह दिन निराहार रहना (सुमन्तु)
इ. इक्कीस दिन सवेरे, दोपहर एवं सायंकाल के समय शीतल जल पीना एवं संयमित आचरण करना (प्रायश्चित विवेक)
इन प्रायश्चितों से सर्व पातकों का क्षालन हो सकता है ।