आषाढ मास में आनेवाली दीप अमावस्या के दिन किए जानेवाले दीपपूजन का महत्त्व !

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अग्नि के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु आषाढ अमावस्या को अर्थात दीपान्वित अमावस्या को किया जानेवाला दीपपूजन !

 

१. दीपपूजन का शास्त्र

दीप की ज्योति अग्नितत्त्व का प्रतीक है । अग्नि के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु आषाढ अमावस्या को दीपपूजन किया जाता है ।

२. पंचतत्त्वों में से अग्नितत्त्व का अनन्यसाधारण महत्त्व

पृथ्वीपर विद्यमान सभी सजीव-निर्जिव पदार्थ पृथ्वी, आप, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश इन पंचतत्त्वों के कारण बने हैं । पंचतत्त्वों में से अग्नितत्त्व का महत्त्व अनन्यसाधारण है । अग्नि गुणरूप है तथा हम अग्नि के कारण सामने की वस्तु (रूप) को देख सकते हैं । ज्ञानेंद्रिय नेत्र अग्नितत्त्व से संबंधित है । अग्नि अपने प्रकाश से अंधकार का नाश कर सत्य का ज्ञान कराता है । प्राणिमात्रों के उदर में अग्नि वैश्‍वानर रूप में वास कर अन्न का पाचन करता है । ग्रहमाला का अधिपति सूर्य अग्नि का रूप है तथा वह अखिल विश्‍व का भरण-पोषण करता है ।

वैदिक काल में अग्निदेवता का स्थान सर्वोच्च था । ऋग्वेद में अग्नि के लिए ‘होता’ विशेषण है । ‘होता’ का अर्थ देवता अथवा शक्ति का आवाहन करनेवाला माध्यम ! यज्ञ में संबंधित देवताओं का आवाहन करनेपर अग्नि यज्ञ का हविर्भाग उनतक पहुंचाता है । उससे अग्नि के देवता एवं मनुष्य को जोडनेवाला जोड माना गया है ।

(संदर्भ : भारतीय संस्कृतिकोश, खंड पहला, पृ. ७८)

३. दीपान्वित अमावस्या

आषाढ अमावस्या को दीपान्वित अमावस्या भी कहते हैं । इस दिन दीपों का पूजन किया जाता है । सुहागन महिलाएं घर के दीपों को एकत्रित कर उन्हें स्वच्छ करते हैं तथा उनके इर्द-गिर्द रंगोली बनाते हैं । इन दीपों को प्रज्वलित कर उनका पूजन करती हैं । पूजा में पक्वानों का भोग लगाकर निम्न मंत्र से दीप से प्रार्थना करते हैं ।

दीप सूर्याग्निरूपस्त्वं तेज उत्तमम् ।

गृहाण मत्कृतां पूजां सर्वकामप्रदो भव ॥

अर्थ : हे दीप, आप सूर्यरूप एवं अग्निरूप हैं । तेज में आप उत्तम तेज हैं । आप मेरे पूजन का स्वीकार कर मेरी सभी इच्छाएं पूर्ण करें ।

इसके पश्‍चात दीप की कथा सुनते हैं । यह पूजन करने से आर्युरारोग्य एवं लक्ष्मी की प्राप्ति होती है, यह मान्यता है ।

(संदर्भ : भक्तिकोश, चतुर्थ खंड, पृ. ८७७)

– श्री. राज कर्वे, ज्योतिष विशारद, फोंडा, गोवा (४.८.२०१८)

 

४. दीपपूजन करने से होनेवाले आध्यात्मिक स्तर के लाभ

४ अ. आषाढी अमावस्या को दीपपूजन करने से दीप को तेजतत्त्व से
युक्त सात्त्विकता और चैतन्य प्राप्त होकर अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण से उसकी रक्षा होना

चातुर्मास में देवताओं के निद्राधीन होने से (क्रियाविरहित होने से) वायुमंडल में रज-तम तरंग एवं अनिष्ट शक्तियों की प्रबलता बढती है । साथ ही वर्षाकालीन एवं मेघयुक्त वातावरण के कारण पृथ्वीपर सूर्यप्रकाश अल्प मात्रा में मिलता है । इस प्रकार चातुर्मास में सात्त्विकता, चैतन्य एवं तेजतत्त्व का अभाव होता है । अन्य तिथियों की तुलना में पूर्णिमा एवं अमावस्या को अनिष्ट शक्तियों का बल बढकर वो विविध सात्त्विक घटकोंपर सूक्ष्म से अधिक मात्रा में आक्रमण करते हैं । चातुर्मास की आषाढी अमावस्या को भी अनिष्ट शक्तियों का आक्रमण बडी मात्रा में होता है । उससे आषाढी अमावस्या के दिन दीपपूजन का विशेष महत्त्व है । इस पूजन से दीप को तेजतत्त्वयुक्त सात्त्विकता एवं चैतन्य प्राप्त होकर अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण से उसकी रक्षा होती है ।

४ आ. वायुमंडल के रज-तमयुक्त तरंग और कष्टदायक शक्तिओं
के कारण दीप के इर्द-गिर्द आनेवाले सूक्ष्म आवरण का दीपपूजन से नष्ट हो जाना

दीप के इर्द-गिर्द वायुमंडल में कार्यरत रज-तमयुक तरंगों का तथा कष्टदायक शक्तियों का सूक्ष्म आवरण दीपपूजन से नष्ट होता है । अतः दीप प्रज्वलित करनेपर उसकी ज्योति का प्रकाश स्वच्छ, स्पष्ट एवं प्रखर दिखने लगता है और ज्योति भी स्थिर रहती है । दीप की ज्योति को कालिख लगने की मात्रा भी अल्प हो जाती है ।

४ इ. दीप में विद्यमान देवतातत्त्व का पूजन होने से उसका देवत्व जागृत होकर उसका वर्षभर कार्यरत रहना

दीप में विद्यमान देवतातत्त्व का पूजन होने से उसका देवत्व जागृत होकर वह संपूर्ण वर्षतक कार्यरत होता है । दीप को देखकर हाथों का अपनेआप जोडा जाना, दीप की ओर देखकर भाव जागृत होना, दीप का प्रकाश अधिक तेजस्वी तथा चैतन्यमय होने का प्रतीत होना, यह सभी दीप में विद्यमान देवत्व के जागृत हो जाने के लक्षण हैं ।

४ ई. दीप के इर्द-गिर्द अग्निनारायण के तेजतत्त्व का अभेद रक्षाकवच बनकर अनिष्ट शक्तियों से उसकी संपूर्ण वर्षतक रक्षा होना

दीप के पूजन से उसे अग्निनारायण का लक्षांश तेज ग्रहण होकर पुनः ऊर्जा मिलती है । इस ऊर्जा के बलपर दीप की साधना (सात्त्विकता) अविरतरूप से चालू रहने में सहायता मिलती है । अग्निनारायण के तेज के अंश की प्राप्ति के कारण दीप के इर्द-गिर्द तेजतत्त्व का अभेद रक्षाकवच बनकर अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण से संपूर्ण वर्षतक दीप की रक्षा होती है ।

४ उ. दीप के पूजन से दीप की अनिष्ट शक्तियों से युद्ध करने की क्षमता बढना तथा उसका संपूर्ण वर्षतक टिकाए रहना

दीपपूजन से उसे प्राप्त तेजतत्त्वयुक्त अग्निनारायण के रक्षाकवच के कारण दीप का क्षात्रतेज बढता है । उससे दीप में उसपर होनेवाले अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण तथा उनके साथ सूक्ष्म से युद्ध करने की क्षमता बढती है और वह संपूर्ण वर्षतक टिकी रहती है ।

४ ऊ. दीपपूजन के कारण पूजक को भक्तरूपी दीप तथा ईश्‍वर के कृपाशीर्वाद प्राप्त होना

दीप ईश्‍वर का सेवकभाव का भक्त है । भक्त का पूजन करने से भक्त आनंदित होने के साथ ही ईश्‍वर भी प्रसन्न होते हैं और उससे पूजक को भक्तरूपी दीप और ईश्‍वर के कृपाशिर्वाद प्राप्त होकर उसकी साधना अच्छी होती है ।

४ ए. दीपपूजन से पूजक की समष्टि साधना होना

दीपपूजन करने से दीप की साधना में सहायता मिलने से दीपपूजन से पूजक की समष्टि साधना होकर उसे उसका फल प्राप्त होता है ।

 

५. प्रज्वलित दीप का स्पर्श करने से उसकी साधना
में बाधा उत्पन्न होने से पाप लगना तथा उसके लिए प्रायश्‍चित लेने की आवश्यकता होना

दीप की साधना अखंडित चलती है । अतः उसे हमारा स्पर्श होने से उसकी साधना में बाधा उत्पन्न होती है । साथ ही हमारे स्पर्श के कारण दीप की ओर रज-तमप्रधान तरंग प्रक्षेपित होने से उसके इर्द-गिर्द कष्टदायक शक्तियों का आवरण आ सकता है । इसलिए हिन्दू धर्मशास्त्र में दीप को स्पर्श करना पाप माना जाता है । दीप को अज्ञानवश स्पर्श हुआ, तो उससे लगनेवाला पाप दूर करने हेतु स्वच्छ पानी से हाथ धोकर दीप के सामने तडप के साथ क्षमा मांगनी चाहिए । इससे पापक्षालन होकर व्यक्ति को ग्रस्त दीपस्पर्श का दोष दूर होता है । (दीप प्रज्वलित करने के पश्‍चात उसको बार-बार स्पर्श करना अयोग्य है । किसी भी विधि में इस प्रकार से स्पर्श करने के लिए नहीं कहा गया है । – वेदमूर्ति केतन शहाणे)

 

६. दीपपूजन एवं दीपयज्ञ

दीपपूजन करना व्यष्टि साधना के अंतर्गत आता है । ऐसे अनेक दीपों का पूजन करना समष्टि साधना के अंतर्गत होने से उसे दीपयज्ञ कहा जाता है । आषाढ मास में दीपयज्ञ करने की परंपरा है ।

– कु. मधुरा भोसले, श्रावण कृष्ण द्वितीया, कलियुग वर्ष ५११३ (१५.८.२०१११, रात ८ बजे)

संदर्भ : दैनिक सनातन प्रभात

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