१. रामायण एवं श्रीमद्भगवद्गीता
रामायण | श्रीमद्भगवद्गीता | |
१. निर्मिति का युग | त्रेतायुग | द्वापरयुग |
२. ग्रंथ के रचैता | महर्षि वाल्मिकि | महर्षि व्यास |
३. ग्रंथ का विषय | श्रीरामजी के जीवनचरित्र का वर्णन | विविध योगमार्ग में विद्यमान साधनामार्ग के मार्गदर्शक सूत्र |
४. ग्रंथ समझ आने में सुलभता | सरल | कठिन |
५. ग्रंथ का ज्ञान किस साधक हेतु उपयुक्त ? | ||
५ अ. साधक का योगमार्ग | प्रमुखता से भक्तियोग | प्रमुखता से ज्ञानयोग |
५ आ. साधक का आध्यात्मिक स्तर (प्रतिशत) | ५५ से ७५ प्रतिशत | ६० से ९० प्रतिशत |
६. ग्रंथ के भावपूर्ण वाचन से होनेवाला परिणाम | मन में विद्यमान माया का आकर्षण न्यून होकर भक्ति का उदय होना | अज्ञान का आवरण नष्ट होकर व्यक्ति का धर्माचरण और साधना के लिए क्रियाशील बनना |
७. ग्रंथ में कार्यरत शक्ति | इच्छा + ज्ञान (टिप्पणी १) | ज्ञान + क्रिया (टिप्पणी २) |
८. ग्रंथ में विद्यमान चैतन्य किस स्तर को किस पाताल की अनिष्ट शक्तियों से सूक्ष्म युद्ध करता है ? | ५वां और ६ठा पाताल | ७वां |
९. ग्रंथ का सूक्ष्म रंग | नीला (टिप्पणी ३) | पीला (टिप्पणी ४) |
टीप १ : ग्रंथ पढनेवालों के मन में प्रभु श्रीरामजी के जीवनचरित्र को जानकर लेने की जिज्ञासा अर्थात सात्त्विक इच्छा जागृत होती है । अतः इस ग्रंथ से इच्छा एवं ज्ञान से संबंधित शक्ति कार्यरत है ।
टीप २ : इस ग्रंथ का वाचन करनेपर व्यक्ति के मन की शंकाओं का निराकरण होकर उसे नित्य जीवन कैसे जीनी चाहिए, इसका उत्तम मार्गदर्शन मिलता है । इस ग्रंथ से प्रक्षेपित होनेवाला ज्ञान एवं क्रिया के स्तरों की शक्ति के कारण व्यक्ति को प्राप्त ज्ञान के कारण वह क्रियान्वयन के स्तरपर सक्रिय होता है ।
टीप ३ : रामायण ग्रंथ भक्तिमय होने के कारण वह सूक्ष्म से नीला दिखाई देता है ।
टीप ४ : श्रीमद्भगवद्गीता ग्रंथ ज्ञानमय होने के कारण वह सूक्ष्म से पीला दिखाई देता है ।
२. विविध प्रकार के लेखनों की तुलना
धर्मविरोधियों द्वारा किया गया लेखन | भावनात्मक स्तर का लेखन (ललित साहित्य) | श्रीमदभगवद्गीता जैसा श्रेष्ठतम ग्रंथ अथवा उसका भाष्य | |
१. ग्रंथ अथवा पुस्तक से प्रक्षेपित होनेवाली शक्ति | |||
अ. अच्छी शक्ति (प्रतिशत) | ० | ० से ५ | ५० से ९० |
आ. कष्टदायक शक्ति (प्रतिशत) | ३० से ९० | १ से २० | ० |
२. लेखन की प्रेरणा किससे मिलती है ? | पाताल एवं नरक में विद्यमान बडी अनिष्ट शक्ति के कारण | भुवलोक के भूत, अतृप्त लिंगदेह और कनिष्ठ स्वर्गलोक के यक्ष, किन्नर एवं गंधर्वों के कारण (टिप्पणी १) | ईश्वरी कृपा के कारण |
३. लेखक | |||
३ अ. आध्यात्मिक स्तर (प्रतिशत) | २० अथवा उससे अल्प | २५ से ४५ | ७० से भी अधिक |
३ आ. प्रकार | धर्मविरोधी लेखक अथवा विद्रोही लेखक | लेखक अथवा कवी | महान संत अथवा ऋषिमुनी |
४. लेखन का परिणाम | |||
४ अ. लेखकपर होनेवाला परिणाम | अहं बढकर उसके अनिष्ट शक्तियों के नियंत्रण में जाना | मानसिक अथवा बुद्धिजन्य स्तरपर विचार करने से आध्यात्मिक स्तरतक पहुंचना संभव न होना | लेखक का उच्चतम आध्यात्मिक अवस्था का अनुभव कर ईश्वर के निकट पहुंच जाना |
४ आ. पाठकोंपर होनेवाला परिणाम | पाठकों के मन की धर्म के प्रति श्रद्धा न्यून होकर धर्मविरोधी विचार बढकर उनका अधर्माचरणी बन जाना | पाठकों के मन की भावनाएं जागृत होकर उनके मानसिक स्तर के विचारों में अथवा काल्पनिक जगत में फंसने की संभावना होना | पाठकों को आध्यात्मिक ज्ञान मिलकर सत्य के शाब्दिक दर्शन होना तथा उनके मन में धर्माचरण एवं साधना का विचार बढने से उनका ईश्वरप्राप्ति की दिशा में अग्रसर हो जाना |
४ इ. वास्तुपर | वास्तु में कष्टदायक शक्ति का प्रक्षेपण होकर वास्तु का दूषित होना तथा वास्तु में कष्टदायक शक्ति का स्थान उत्पन्न होना | वास्तु में भावनात्मक तरंगों के फैलने से वास्तु का भावनिक विचारों का केंद्र बन जाना | वास्तु में चैतन्य फैलने से वास्तु का चैतन्यदायक बन जाना तथा वहां चैतन्य का स्थान बन जाना |
५. लेखक को लेखन करने से मिलनेवाला फल | धर्मविरोधी कृत्य करने से तीव्र पाप लगकर उसे मृत्यु के पश्चात नरक में जाना पडना | लेखक का निरंतर मानसिक अथवा बुद्धिजन्य स्तरपर रहने से उसकी आध्यात्मिक उन्नति रुक जाती है । मृत्यु के पश्चात वह गंधर्वलोक, पितृलोक अथवा भुवलोक जाता है तथा प्रारब्ध के अनुसार पृथ्वीपर जन्म लेकर जन्म-मृत्यु के चक्र में स्थाई रूप से फंस जाता है । | सकाम लेखन करनेवाले लेखक को पुण्य मिलता है तथा देवलोक में स्थान मिलता है । निष्काम लेखन करनेवालों की शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति होकर उन्हें मुक्ति अथवा मोक्ष प्राप्त होता है । |
६. ग्रंथ अथवा पुस्तक का प्रभाव कितने कालतक टिकता है ? | कुछ वर्ष (टिप्पणी २) | कुछ मास | चिरंतन |
टीप १ : भुवलोक के भूत तथा अतृप्त लिंगदेहों द्वारा सुझाए गए विचार कष्टदायक होने से इस ललित साहित्य से कष्टप्रद शक्ति का प्रक्षेपण होता है । यक्ष, गंधर्व अथवा किन्नर द्वारा सुझाए जानेवाले विचार अल्प मात्रा में सकारात्मक होने के कारण इस ललित साहित्य से अल्प मात्रा में अच्छक्ष शक्ति का प्रक्षेपण होता है ।
टीप २ : धर्मविरोधी लेखन का प्रभाव कई वर्षोंतक टिका रहता है तथा उससे कई पीढीयों की धार्मिक एवं आध्यात्मिक हानि हो सकती है । उससे समय-समयपर धर्मविरोधी लेखन का खंडन करना आवश्यक है ।
३. श्रीकृष्णजी द्वारा विविध प्रकार के चक्र छोडकर विविध प्रकार का कार्य किया जाना
श्रीकृष्णजी ने अर्जुन को श्रीमद्भगवद्गीता विशद करते समय अर्जुन के मन में व्याप्त अज्ञान का नाश करने हेतु ज्ञानचक्र छोडा । उसके पश्चात उन्होंने महाभारत के युद्ध में लडनेवाले कौरवरूपी दुर्जनों के नाश हेतु सूक्ष्म से उनपर सुदर्शनचक्र छोडकर तथा स्थूल से पांडवों के शस्त्रों से वार कर उनका विनाश किया । तत्पश्चात उन्होंने धर्मचक्र छोडकर अधर्म का नाश कर धर्मराज युधिष्ठिर के माध्यम से धर्मसंस्थापना की ।
४. श्रीमद्भगवद्गीता की आध्यात्मिक विशेषताएं
श्रीमद्भगवद्गीता का ज्ञान इतना विशेषतापूर्ण है कि उससे प्रत्येक के मन की शंकाओं का निराकरण होता है । इस ज्ञान में विद्यमान चैतन्य के कारण मन, बुद्धि, चित्त एवं अहं की शुद्धि होती है और आनंद की प्राप्ति होती है । गीता का ज्ञान एवं चैतन्य चिरंतरन टिकनेवाला है । प्रत्येक व्यक्ति के आध्यात्मिक स्तर के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को इस ग्रंथ के एक ही विषय के अलग-अलग भावार्थ समझ में आते हैं । गीता का ज्ञान इतना सकारात्मक है कि उसे ग्रहण करनेपर किसी को आई निराशा तथा उसके मन की नकारात्मक का तुरंत दूर होती है । गीता से प्रत्येक व्यक्ति को विभिन्न परिस्थितियों में आध्यात्मिक स्तर का जीवन जीने का उत्तम मार्गदर्शन मिलता है । इसके ज्ञान से साधना का योगमार्ग, प्रकृति, रूचि, वर्ण एवं भिन्न स्तरवाले साधकों को अचूक एवं परिपूर्ण मार्गदर्शन मिलता है ।
५. विविध स्तरोंवाले व्यक्तियों को श्रीमतद्भगवद्गीता में
विद्यमान ज्ञान को विविध वाणियों के स्तरपर ग्रहण करना संभव होना
अर्जुन का आध्यात्मिक स्तर ८० प्रतिशत से अधिक होने से भगवान श्रीकृष्णजी द्वारा उसे परावाणी से प्रदान किया गया ज्ञान सहजता से ग्रहण करना संभव हुआ । संतों का आध्यात्मिक स्तर ७० प्रतिशत से भी अधिक होने से उन्हें श्रीमद्भगवद्गीता का ज्ञान पश्यंति वाणी के स्तरपर ग्रहण करना संभव होता है । ५५ प्रतिशत स्तर के आगे के साधकों को श्रीमद्भगवद्गीता का ज्ञान मध्यमा स्तरपर ग्रहण होता है । सामान्य लोगों को श्रीमद्भगवद्गीता का ज्ञान वैखरी वाणी से ग्रहण करना संभव होता है ।
६. श्रीगुरु जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्णजी का सगुण
रूप होने से उनके द्वारा साधक एवं शिष्यों को श्रीमद्भगवद्गीता
का ज्ञान सरल, सुलभ और बोलीभाषा में देकर मार्गदर्शन किया जाना
प्रत्येक साधक अर्जुन की भांति है और वह इस भवसागर में फंसा है । उसे अपने नित्य जीवन को व्यतीत करने समय अर्जुन की भांति ही प्रश्न आते हैं और उसे अपने आंतरिक षड्रिपुओं से निरंतर संघर्ष करना पडता है । श्रीगुरु जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्णजी के सगुण रूप होते हैं । भगवान श्रीकृष्णजी श्रीगुरु के रूप में सगुण से प्रकट होकर साधक एवं शिष्यों को सरल, सुलभ और बोलीभाषा में श्रीमद्भगवद्गीता का ज्ञान प्रदान कर मार्गदर्शन करते हैं ।
७. धारिका का टंकण करते समय प्राप्त अनुभूति
इस धारिका का टंकण करते समय मेरे सिरपर विद्यमान दबाव न्यून होकर मेरे मन में व्याप्त नकारात्मक विचार और शरीरपर विद्यमान दबाव न्यून होकर मेरा मन सकारात्मक हुआ और मुझे हल्कापन प्रतीत हुआ ।
कृतज्ञता !
हमें प्रत्यक्षरूप से श्रीकृष्णरूपी गुरुदेवजी प्राप्त हुए हैं तथा वे हमें निरंतर भगवद्गीता का ज्ञान प्रदान कर हमारे मन में ज्ञानगंगा प्रवाहित कर हममें विद्यमान पाप और अज्ञान को नष्ट करते हैं; इसलिए भगवान श्रीकृष्णजी एवं गुरुदेवजी के चरणों में कोटि-कोटि कृतज्ञता !’
– कु. मधुरा भोसले (सूक्ष्म से प्राप्त ज्ञान), सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा
आज के समय में हिन्दू युवा अपने धर्म से विमुख हो रहा है । अतः आज जरूरत है कि सभी मिल कर ऐसी व्यवस्था करें कि हमारी आज के युवा हिन्दुत्व के ज्ञात आदर्शों एवं व्यवहार को अपने जीवन में उतार कर हिन्दुत्व को आगे बढा सके ।