अनुक्रमणिका
१. भावभक्ति की अनुभूति करानेवाली पंढरपुर की वारी !
व्यक्तिगत जीवन के अभिनिवेष बाजू में रखकर ईश्वर के नामस्मरण में देहभान भूलानेवाला एक आध्यात्मिक समारोह है पंढरपुर की पैदल यात्रा (वारी) ! श्रीक्षेत्र आळंदी एवं देहू से निकलनेवाली क्रमशः संतश्रेष्ठ ज्ञानेश्वर महाराज एवं जगद्गुरु तुकाराम महाराज की पालकियां महाराष्ट्र का सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक वैभव ! धूप-वर्षा की चिंता न करते हुए कंधेपर भगवा ध्वज लेकर करताल-मृदंग की गूंज में पैदल चलनेवाले वारकरी भावभक्ति के प्रतीक ! इनमें से किसी के भी मुखपर चिंता नहीं अथवा निवास के स्थानपर सुविधाओं की अपेक्षा नहीं । इन वारकरियों को प्रतिदिन १० से २० कि.मी. की दूरी पैदल चलकर पार करनी पडती है । इसके लिए सुबह शीघ्र प्रस्थान करना पडता है । अल्पाहार और महाप्रसाद भी मार्ग में ही लेना पडता है । सायंकाल को विलंब से निवास के स्थानपर पहुंचने के पश्चात वहां भजन-कीर्तन कर उस दिन की समाप्ति होती है ।
२. अनुशासन का दर्शन
अनुशासन का दर्शन इन पालकियों की और एक विशेषता कहनी होगी । इनमें से प्रत्येक पालकी की रचना सुनिश्चित है । प्रारंभ में भगवा ध्वजधारी वारकरी, उसके पश्चात सिरपर तुलसी-वृंदावन ली हुईं महिला वारकरी, उनके पीछे करतालधारी और उनके पश्चात वीणाधारी, इस प्रकार से सभी दिंडीयों की रचना होती है । करताल बजानेवालों का पदन्यास भी लयबद्ध होता है, भले ही करतालधारी-वारकरी सैकडों की संख्या में ही क्यों न हों ! विगत कुछ वर्षों में पुलिस प्रशासन का भी पालकी व्यवस्थापन में अच्छा सहभाग होता है; परंतु जब वह अल्प था, तब भी अनुशासन के दर्शन होते थे । ऐसा होते हुए आज भी कुछ आदतों के संदर्भ में वारकरियों का उद्बोधन आवश्यक है ।
३. वारकरियों से मुक्त संवाद !
जब पालकियों का पुणे में निवास था, तब हमने कुछ वारकरियों से वार्तालाप किया । उनकी बातों से यही भाव प्रतीत हो रहा था कि पालकी के प्रस्थान से लेकर पंढरपुर में विठ्ठलजी के दर्शनतक ज्ञानेश्वरमाता किस प्रकार से वारकरियों की चिंता करते हैं ! ‘पंढरपुर यात्रा अमृत है । उन्होंने ‘हिन्दू धर्म में और विशेषरूप से संतभूमि महाराष्ट्र में जन्म लेना सौभाग्य की बात है’, यह भावना व्यक्त की । रिमजिम वर्षा में भी सिरपर रखे हुए तुलसी-वृंदावन को संभालते हुए ‘माऊली-माऊली’ (माता-माता) का जयघोष करते चलनेवाली महिला वारकरियों को देखनेपर हमें स्वयं के शारीरिक अहं का भान होता है । ‘सहजता से संवाद करना तथा भरभर के बातें करना’ वारकरियों की और एक विशेषता है । अधिकांश भक्तिमार्गी वारकरी अन्यों से सहजता से संवाद करते हुए अपने मन में बिना कुछ रखे अपने अनुभव बताते हैं । किसी बात का आडंबर न दिखाते हुए मन में विठ्ठलजी के दर्शन की आस लेकर पैदल चलनेवाले ये वारकरी भागवत धर्म के निर्वहक हैं । संतों ने बताया है कि धर्मग्रंथों का केवल पाठ न कर उसमें विद्यमान न्यूनतम एक श्लोक का अनुभव करना चाहिए । अतः इन पालकियों को संतों द्वारा रचित श्लोक और उनकी कृपा की अनुभूति करानेवाला चलता-फिरता हरिपाठ ही कहना पडेगा !
४. ऐसा होता है दिंडी व्यवस्थापन !
पहले इन दिंडियों में वारकरियों की संख्या अल्प होती थी; किंतु अब दिंडियों में सहभागी वारकरियों की संख्या कुछ सैकडों में हैं । पहले गांवों में निवास के स्थानपर इतनी सुविधाएं नहीं थीं; जे आज उपलब्ध हो रही हैं । दिंडी के साथ सामान्यरूप से २ ट्रक, १ पानी का टैंकर, २ टेम्पो और २ कार, इस प्रकार से वाहन होते हैं । ट्रक में भोजन बनाने की सब सामग्री तथा रहने हेतु आवश्यक कपडे के तंबू, साथ ही तिरपाला जैसी सभी सुविधाएं होते हैं । सामान्यरूप से २ लाख रुपए का किराना और सामग्री आवश्यक होती है; परंतु विविध चंदादार और श्रद्धालुओं द्वारा दिए जानेवाले चंदे से इसका प्रबंध होता है । दिंडी के महिलाएं जो रसोई बनाती हैं, उसी प्रसाद को हम ग्रहण करते हैं । निरंतर २२ दिनोंतक यही दिनक्रम होता है । हरिनाम के जयघोष में सभी परिश्रम और कष्ट दूर होते हैं । गुरुमाता कुछ भी न्यून नहीं पडने देती, इसका अनुभव होता है । (उक्त सूत्र संत ज्ञानेश्वर महाराज की पालकी के १८वें क्रम के दिंडीप्रमुख ने बताई । अल्पाधिक मात्रा में सभी दिंडियों का इसी प्रकार का नियोजन होता है ।)
५. वारकरियों की निरिच्छ वृत्ति के दर्शन हुए !
इस वर्ष पुणे महापालिका की ओर से प्रत्येक दिंडी को एक पखावज भेंट किया गया । इसके साथ ही राज्य सरकार की ओर से रेनकोट मिलने का भी समाचार था; परंतु वह नहीं मिला । हमारी कोई अपेक्षा ही नहीं है । हम वैष्णवजन किसी के कुछ नहीं लेेते । इस प्रतिक्रिया से वारकरियों की निरिच्छ वृत्ति दिखाई देती है ।
– डॉ. ज्योति काळे, श्रीमती साईली ढमढेरे एवं कु. शलाका सहस्रबुद्धे, पुणे
६. पालकी समारोह की आध्यात्मिकता को दुष्प्रभावित करनेवाली बातें टालें !
इस वारी का मार्ग भले ही भक्तिमार्ग का हो; परंतु अब इस पालकी समारोह में शौकिया लोगों की भरमार हुई है । निवास के स्थानपर आ रहा मेले का स्वरूप इस समारोह की आध्यात्मिकता को न्यून कर रहा है । पुणे में जब पालकियों का निवास था, तब वहां जिस स्थानपर मेला भरा था, वहां तो ऊंचे स्वर में चलचित्र के गाने चलाए जा रहे थे । भले ही ऐसी कुछ त्रुटियां हों; परंतु इस वारी के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को ‘आनंदवनभुवन’ का अनुभव हुए बिना नहीं रहेगा ।