महानाम्नीव्रत, महाव्रत, उपनिषद्व्रत, गोदानव्रत (ग्यारहवां, बारहवां, तेरहवां एवं चौदहवां संस्कार )

ग्यारहवें संस्कार से लेकर चौदहवां संस्कार, इन चार व्रतों को चतुर्वेदव्रत कहते हैं । ये व्रत ब्रह्मचर्याश्रम में आचार्य करवाते हैं ।

 

ग्यारहवां संस्कार : महानाम्नीव्रत

आठवें वर्ष में उपनयन हो जाने पर आगे के पांच वर्ष गुरुगृह में अध्ययन करने पर आरण्यक-उच्चारण का अधिकार उत्पन्न होने हेतु पहले जो विधि की जाती है, उस विधि को महानाम्नीव्रत, महाव्रत एवं उपनिषदव्रत कहते हैं । प्रत्येक व्रत का अध्ययन एक वर्ष, ऐसे तीन वर्षों में तीन व्रतों का अध्ययन समाप्त होने पर गुरु को आरण्यक-अध्ययन संबंधी एक गाय एवं एक बैल दक्षिणा स्वरूप देनी होती है । गाय देने की विधि को गोदानव्रत कहते हैं ।

प्रथम आरण्यक सीखते समय यह संस्कार करते हैं ।

 

बारहवां संस्कार : महाव्रत

आरण्यक सीखते समय यह संस्कार करते हैं ।

 

तेरहवां संस्कार : उपनिषद्व्रत

अ. आरण्यक सीखते समय यह संस्कार करते हैं ।

आ. गुरुगृह में उपनिषद एवं वेद आदि आध्यात्मिक ग्रंथों का पठन एवं मनन किया जाता है । इस व्रत में व्याकरण, शब्द-उत्पत्ति एवं उच्चार का विचार कर वेदघोष किया जाता है । – परात्पर गुरु पांडे महाराज, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल.

 

चौदहवां संस्कार : गोदानव्रत (केशान्तसंस्कार)

इस संस्कार में ब्रह्मचारी को सर्वप्रथम दाढी-मूंछ का केशवपन करना होता है । यह संस्कार बालक के सोलहवें वर्ष में करते थे । ब्रह्मचारी के यौवन में पदार्पण करने का भी यह सूचक होता था । इस आयु में ब्रह्मचारी के मुख पर दाढी-मूंछ दिखाई देने लगती थी । उसी काल में उसके अंतर में पौरुष की चेतना का भी उदय होता था । ऐसे समय में उसके यौवनसुलभ अपप्रवृत्तियों के नियमन हेतु यह व्रत अथवा संस्कार किया जाता था । इस संस्कार निमित्त ब्रह्मचारी को पुनः ब्रह्मचारी व्रत का आवश्यक स्मरण करवाया जाता था । उसके आगे, न्यूनतम एक वर्ष तक संयम से आचरण करें, ऐसी गुरुजनों की अपेक्षा होती थी । एक वर्ष इसी प्रकार संयम से आचरण करने पर आगे यौवनकाल में उसके द्वारा प्रमाद नहीं होगा, यह भी उसकी आधारभूत संकल्पना थी ।

यह संस्कार जन्म के उपरांत सोलहवें वर्ष में शुभमुहूर्त देखकर करना चाहिए । इस संस्कार में ब्रह्मरंध्र के स्थान पर गाय के खुर के आकार समान केश रखते हैं । इस संस्कार में आचार्य को गौदान करते हैं ।

ब्राह्मण का गोदान संस्कार १६वें वर्ष में, क्षत्रिय का २२वें वर्ष में और वैश्यका २४वें वर्ष में किया जाता है ।

संदर्भ : सनातन – निर्मित ग्रंथ सोलह संस्कार

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