जन्मतिथि कैसे सुनिश्चित की जाती है ?
व्यक्ति की जन्मतिथि को प्रत्यक्ष जन्म के समय की तिथि माननी चाहिए, उदा. किसी व्यक्ति का जन्म दोपहर २ बजे हुआ हो और उस दिन षष्ठी तिथि सुबह ९ बजेतक है और उसके पश्चात सप्तमी तिथि लगती है; इसलिए उस व्यक्ति की जन्मतिथि सप्तमी होती है ।
पुराने और नई जन्मतिथि के अनुसार संपूर्ण भविष्य में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं आता । तिथि के बदलने से केवल तिथि का फल बदलता है ।
सुबोध भृगुसंहिता (जातक खंड) ग्रंथ में राणाप्रताप की जन्मतिथि को सूर्योदय की न लेकर उनके जन्म के समय की ली गई है । तिथि के संदर्भ में शास्त्रीय कारण यह कि सूर्योदय को होनेवाली तिथि दान, अध्ययन, धर्मकार्य के लिए उक्त अर्थात अनुकूल होती है ।
व्यक्ति के वर्षश्राद्ध की तिथि को उस व्यक्ति के मृत्यु की तिथि सुनिश्चित की जाती है । संकष्ट चतुर्थी को चंद्रोदय देखकर उपवास छोडने का महत्त्व होने से चंद्रोदय में आनेवाले कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को संकष्ट चतुर्थी कहते हैं । अन्य समयपर सूर्योदय के समय की तिथि को आधिकारिक माना जाता है ।
– श्रीमती प्राजक्ता जोशी, ज्योतिष फलित विशारद, रामनाथी, गोवा
शुभकार्य के लिए मुहूर्त क्यों देखना चाहिए ?
सृष्टि में विद्यमान प्रत्येक बात स्थल, काल और समय के साथ बंधी हुई होती है । काल के अनुसार प्रत्येक बात का स्थल और उसके अनुसार उस कृत्य को घटित करने का ईश्वर का समय सुनियोजित होता है । अशुभ मुहूर्त के समय भूमंडल, भूगर्भ का भाग और वायुमंडल में अनिष्ट शक्तियों की प्रबलता होती है; इसलिए वे हमारे द्वारा नियोजित कार्य में बाधाएं उत्पन्न करते हैं । अतः योजित कार्य में फलप्राप्ति नहीं होती, फलप्राप्ति की गति धीमी हो जाती है अथवा प्राणहानि अथवा वित्तहानि होने की संभावना होती है । अशुभ मुहूर्तपर कार्य करने से जीव को होनेवाले अनिष्ट शक्तियों के कष्ट में वृद्धि होती है । शुभ मुहूर्त के समय भूमंडल शुद्ध होने से देवताओं के तत्त्व भूमंडलपर आने की मात्रा अधिक होती है । जीव को इसका लाभ मिलकर इच्छित फलप्राप्ति होती है । देवताओं के आशीर्वादात्मक तरंगों से ही अधिकतम कार्य होता है । अतः उसमें मनुष्य की अल्प ऊर्जा का ही उपयोग होकर कार्य पूर्ण होता है । प्रत्येक कृत्य को उससे संबंधित मुहूर्तपर करना आचारधर्म पालन के अंतर्गत का एक गटक है, उदा. प्रातः ब्राह्ममुहूर्तपर उठना आदि । मुहूर्त देखना और उसके अनुसार कृत्य करना, उस कृत्य की उत्पत्ति, स्थिति और लय इन घटकों से जुडा होता है । ज्योतिषविद्या के माध्यम से मुहूर्त देखना संभव होता है ।’
– कु. प्रियांका लोटलीकर, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा (६.१.२०११)
किस लग्नराशि के लिए कौनसा वार शुभ होता है ?
जन्मकुंडली के अनुसार लाभस्थान की राशि के अधिपति का दिन शुभकारक होना
‘कुंडली के ११वें स्थान (लाभस्थान) के राशि-अधिपति का जो दिन होता है, वह सदैव ही शुभकारक होता है । इस दिन किया जानेवाला कोई भी कार्य लाभदायक होता है । कुंडली में जहां बिंदु दिखाया गया है, उस स्थान की राशि लग्नराशि होती है ।
नवविवाहिता को विशिष्ट मास में ससुराल
में निवास न करने के संदर्भ में प्रचलित विचार और वास्तविकता !
प्रश्न : विवाह के पश्चात आनेवाले पहले आषाढ मास में नवविवाहिता यदि अपने पति के घर में ही रही, तो उसकी सासू मां के लिए वह अनिष्ट होता है; इसलिए इस अवधि में सासू मां का मुख नहीं देखना चाहिए, ऐसा कहा जाता है । इसी प्रकार से ‘ज्येष्ठ मास बडे देवर के लिए अनिष्ट’, ‘पौष मास ससुरजी के लिए अनिष्ट’ और ‘अधिक मास पति के लिए अनिष्ट’; इसलिए नवविवाहिता को उनका मुख नहीं देखना चाहिए’, ऐसा बताया जाता है । क्या यह सत्य है ?
उत्तर : इस परंपरा को कोई धर्मशास्त्रीय आधार नहीं है । पहले लडकियों के विवाह की आयु ८ से १२ वर्षतक की होती थी । इतनी छोटी आयु में लडकियों को गृहस्थी का बोझ उठाना कठिन हो जाता था । इसी में उसे अपने माईके के प्रति लगाव होने से उस मास में माईके जाकर अपनी मां से कुछ बातें सीखने को मिलें, साथ ही विवाह के पश्चात के आरंभिक समय में कुछ दिनों के लिए माईके और कुछ समय के लिए ससुराल में रहना संभव हो; इसके लिए यह व्यवस्था बनाई गई थी । आज के समय में लडकियों के विवाह की आयु, उनकी नौकरी, व्यवसाय आदि का विचार किया जाए, तो वे एक मास के लिए भी माईके में नहीं रह सकती । अतः उक्त बातों का पालन करने की आवश्यकता नहीं है । इस परंपरा में लौकिक अर्थ से महिला का विचार कर उसे कुछ कालावधि के लिए विश्राम मिले; इस उद्देश्य से उसे माईके भेजने का प्रयोजन था, ऐसा दिखाई देता है ।’
– श्रीमती प्राजक्ता जोशी, गोवा