‘सनातन संस्था द्वारा किया जा रहा कार्य बहुत ही उच्च श्रेणी का है ।’ – स्वामी रामरसिकदासजी महाराज

१. सनातन संस्था द्वारा किया जा रहा कार्य बहुत उच्च श्रेणी का है !

इस वर्ष के प्रयाग के कुंभपर्व में अयोध्या के ऋषिमोचन घाट के सुखरामदास रामायणी कंचन भवन मंदिर के स्वामी रामरसिकदासजी महाराज आए थे । तब वे सनातन संस्था के संपर्क में आ गए । उस समय उन्होंने सनातन संस्था के संदर्भ में निम्न गौरवोद्गार व्यक्त किए –

‘यदि संपूर्ण कुंभ में प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता, तो आपकी संस्था को ही पहला क्रम देना पडता; क्योंकि आपकी प्रदर्शनी और नियोजन उत्कृष्ट है, साथ ही आपके द्वारा किया जा रहा कार्य बहुत ही उच्च श्रेणी का है ।’

कुंभक्षेत्र में सनातन संस्था की प्रदर्शनी में बाईं ओर से पू. नीलेश सिंगबाळजी एवं सद्गुरु (डॉ.) चारुदत्त पिंगळेजी के साथ चर्चा करते हुए स्वामी रामरसिकदासजी महाराज

२. विद्यालय और महाविद्यालयों में सनातन की ग्रंथप्रदर्शनी का आयोजन किया जाना चाहिए !

सभी नागरिक और बच्चों को आध्यात्मिक ग्रंथों की जानकारी होने हेतु सनातन की ग्रंथप्रदर्शनी अत्यंत बोधप्रद एवं शिक्षाप्रद है । विद्यालय और महाविद्यालयों में इस प्रदर्शनी का अवश्य आयोजन किया जाना चाहिए । इसके साथ ही प्रत्येक नगर के पुरुष एवं महिलाओ के सत्संग समूहों में इस प्रदर्शनी में विद्यमान आध्यात्मिक ज्ञान का प्रसार किया जाना चाहिए । विद्यालय और महाविद्यालयों में हिन्दू धर्म का ज्ञान नहीं दिया जाता; इसलिए सनातन संस्था की भांति अन्य संस्थाओं को भी अपना कर्तव्य समझकर हिन्दू धर्मग्रंथों की जानकारी देकर अध्यात्मप्रसार करना चाहिए । अयोध्या के ऋषिमोचन घाट के सुखरामदास रामायणी कंचन भवन मंदिर के स्वामी रामरसिकदास महाराज ने ऐसा प्रतिपादित किया ।

 

३. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के संदर्भ में तथा
उनके द्वारा संकलित ग्रंथों के विषय में व्यक्त किए गए गौरवोद्गार !

३ अ. आपके गुरुदेवजी बहुत ही महान हैं !

३ आ. आपके गुरुदेवजी ने सभी विषयोंपर ग्रंथलेखन किया है । आपके
ग्रंथ बहुत ही अमूल्य हैं और ऐसा एक भी विषय शेष नहीं है, जे आपके गुरुदेवजी के ग्रंथ में आया न हो !

३ इ. आपके ग्रंथ बहुत ही अमूल्य हैं !

आपके ग्रंथों में व्याप्त ज्ञान इतना अमूल्य है कि इन ग्रंथों का मूल्य भले ही १००-२०० हो, तो भी वह कुछ भी नहीं है । आजकल के लोग भ्रमणभाष खरीदने के लिए सहस्रों रुपए का व्यय करेंगे; परंतु ऐसे अमूल्य ग्रंथ खरीदने की उनकी सिद्धता नहीं होती ।

 

४. ‘आप अन्यों की भांति केवल न बोलकर प्रत्यक्ष कृत्य कर दिखाते हैं !’

अन्य संप्रदाय, अखाडें और महाराज केवल बोलते हैं; किंतु आप प्रत्यक्ष कर दिखाते हैं । रामचरितमानस में जैसा लिखा है, उसके अनुसार आप प्रेमपूर्वक ‘संघे शक्ति कलौयुगे !’ वचन को सत्य प्रमाणित कर रहे हैं ।

 

५. ‘आपकी उत्कृष्ट व्यवस्था देखकर आपके
गुरुदेवजी के सामर्थ्य की कल्पना की जा सकती है !’

‘आपकी व्यवस्था उत्कृष्ट है । अन्यत्र भी मुख्य महाराज होते हैं; किंतु वे सभी गतिविधियोंपर नियंत्रण नहीं रख सकते । आपकी व्यवस्था को देखकर लगता है कि आपके उपर गुरुदेवजी की अपार कृपा है और इसीलिए आपकी सभी व्यवस्था उत्कृष्ट है । इससे आपके गुरुदेवजी के सामर्थ्य की कल्पना की जा सकती है; इसीलिए मैं आपके आश्रम में अवश्य आऊंगा ।’

 

६. ‘आप सभी साधक संख्या में अल्प होते हुए भी यह सब कर सकते हैं !’

प्रदर्शनी के अंतिम दिन जब प्रदर्शनी समेटने का कार्य चल रहा था, तब वे वहां आए थे और वहां की सब सामग्री को देखकर कहने लगें, ‘‘आप यहां कितने साधक थे ?’’ तब हमने कहा, ‘‘हम लगभग १०० साधक थे ।’’ उसपर उन्होंने कहा, ‘‘अन्य स्थानपर इसी प्रकार की व्यवस्था को देखने के लिए न्यूनतम ३००-४०० लोगों की आवश्यकता होती है; परंतु आप सभी साधक हैं, इसलिए इतनी अल्प संख्या होते हुए भी यह सब कर सकते हैं ।’’

 

७. साधकों को प्रत्येक १५ मिनट पश्‍चात जयघोष
करते देखकर गुरुदेवजी द्वारा दी गई सीख की प्रशंसा करना

वे सनातन संस्था के तंबू में (मंडप में) बैठे थे । वहांपर साधक प्रत्येक १५ मिनट पश्‍चात प्रार्थना कर जयघोष कर रहे थे । उन्होंने उसे सुनकर कहा, ‘‘क्या आपके गुरुदेवजी ने आपको यह भी सिखाया है ? यह तो बहुत ही अच्छा है । रामचरितमानस में लिखा है कि संगठितरूप से कार्य करते समय इस प्रकार की उद्घोषणाएं करने से स्वयं में वीररस उत्पन्न होकर उत्साह बढता है । आप तो प्रत्यक्षरूप से रामचरितमानस जी रहे हैं । बहुत ही सुंदर ! यह सुनकर अच्छा लगा ।’’

 

८. सनातन संस्था के ग्रंथों के प्रति उनकी आस्था !

हमारी समेटने की सेवा की अवधि में वे निरंतर ३ दिनोंतक वहां आ रहे थे । हमें प्रतीत हो रहा था कि सभी साधकों से मिलकर वे बहुत ही आनंदित हैं । वे यहां आनेपर कहते, ‘‘मैं इधर आया ही था, तो मुझे लगा कि आपका क्या चल रहा है, यह देख तो लूं; इसलिए यहां आया ।’’ और ऐसा कहकर वे कोई ग्रंथ ले जाते । ऐसा करते-करते उन्होंने कई ग्रंथों की खरीद की । वे कहते, ‘‘कोई भी ग्रंथ छूट नहीं जाना चाहिए ।’’ कोई ग्रंथ अतिरिक्त हुआ, तो कहते, ‘‘अन्य किसी को आवश्यकता पडेगी, तो उसे पढने के लिए देंगे ।’’ अलग-अलग विषयों के ग्रंथ पढते समय वे कहते, ‘‘मेरे पास अलग-अलग प्रकार के लोग आते हैं । मैं उन्हें ये ग्रंथ दूंगा और इन ग्रंथों को पढकर मैं मेरे कथावाचन में इन विषयों को उठाऊंगा; इसलिए मैं ग्रंथ ले रहा हूं ।’’

– श्री. शंभू गवारे (२२.४.२०१९)

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