परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के सूक्ष्म के कार्य का संक्षिप्त परिचय
वातावरण में अच्छी और अनिष्ट दोनों प्रकार की शक्तियां कार्यरत होती हैं । कोई भी शुभकार्य करते समय अच्छी और अनिष्ट इन दोनों शक्तियों का संघर्ष होता है । अनिष्ट शक्तियां जहां छोटे से कार्य का भी विरोध करती हैं, वहां धर्म को आई ग्लानि दूर करना, राष्ट्र का अनाचार नष्ट करना जैसे बडे समष्टि कार्य को इन नकारात्मक शक्तियों से बडी मात्रा में विरोध होता है । सूक्ष्म का जाननेवाले, संत इत्यादि को यह विरोध प्रतीत होता है । वे प्रमुख रूप से इन अनिष्ट शक्तियों से ही लडते हैं । ‘ईश्वरीय राज्य’ की स्थापना का संकल्प करनेवाले परात्पर गुरु डॉ.आठवलेजी को भी इस विरोध का बडी मात्रा में सामना करना पड रहा है । सामान्य व्यक्ति को बाह्य बातें दिखाई देती हैं । प्रत्यक्ष में स्थूल से जो दिखाई देता है, वह विश्व केवल १ प्रतिशत है । ९९ प्रतिशत विश्व सूक्ष्म है । ऐसे सूक्ष्म जगत के विषय में जानकर उस स्तर पर धर्मप्रचार, राष्ट्रजागृति व आदर्श राष्ट्र की रचना को हो रहा विरोध दूर करना सामान्य व्यक्ति की कल्पना से परे है । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के मार्गदर्शन में सदगुरु, संत और साधक साधना के माध्यम से यह सूक्ष्म का युद्ध लड रहे हैं । यह सूक्ष्म का कार्य ही परात्पर गुरु डॉ.आठवलेजी का प्रधान कार्य है । उसे शब्दों में प्रस्तुत करना अत्यंत कठिन है; परंतु विश्व की थोडी बहुत कल्पना हो, इस हेतु यहां अंशात्मक लेखन प्रकाशित कर रहे हैं ।
१. देवासुर युद्ध अर्थात क्या ?
प्राचीन काल में ऋषि-मुनि यज्ञयागादि विधि करते थे । उस समय राक्षस उसमें विघ्न लाते थे, ऋषि-मुनियों को जान से मारते, गायों को मारकर खाते, यह इतिहास हमें ज्ञात है । असुरों ने त्रेता और द्वापर युग में देवताओं को तथा प्रभु श्रीरामचंद्र और भगवान श्रीकृष्ण इन साक्षात अवतारों को भी कष्ट दिया और देवता और अवतारों ने असुरों से युद्ध कर धर्मविजय प्राप्त की, यह हम जानते ही हैं । अब तक जितने देवासुर युद्ध हुए हैं, उनमें अंततः विजय देवता, अवतार और देवताओं का पक्ष लेकर लडनेवालों का हुआ है, यह इतिहास है । सप्तलोकों की दैवी अथवा अच्छी और सप्तपाताल की अनिष्ट शक्तियों में हो रहे इस युद्ध का स्थूल से प्रकटीकरण भूतल पर भी दिखाई देता है ।
२. कलियुग का देवासुर युद्ध !
प्रत्येक युग में देवासुर युद्ध निरंतर जारी रहता है । कलियुग में भी वह चल रहा है । भारत की स्वतंत्रता के समय महर्षि अरविंद ने सूक्ष्म से
लडकर भारत के वायव्य से आनेवाली असुरी शक्तियों का निर्मूलन किया था । इस संदर्भ में उनके चरित्र में भी उल्लेख है । आज भी भारत के अनेक ज्ञात-अज्ञात संत तथा सनातन के संत, देवताओं के पक्ष से लड रहे हैं । ब्राह्मतेज अर्थात साधना का बल जिनमें है वे ही सूक्ष्म से युद्ध लड सकते हैं । कांची कामकोटी पीठ के जगद्गुरु श्री शंकराचार्य स्वामी जयेंद्र सरस्वती ने देहली की एका सभा में कहा था कि ‘‘प्रत्येक युग में देवासुर युद्ध होता है । इस युग में ‘सनातन संस्था’ वह युद्ध लड रही है !’’
३. सनातन के साधकों को होनेवाला अनिष्ट शक्तियों का कष्ट और उसके कारण !
‘सनातन संस्था’ के अनेक साधकों को पिछले १२ वर्षों से अनिष्ट शक्तियों के कष्ट हो रहा हैं । यह कष्ट मुख्य रूप से समष्टि साधना, अर्थात धर्मप्रसार करनेवाले साधकों को हो रहा है । ऐसा होते हुए भी पीडित साधकों में से कुछ तो संतपद पर भी पहुंच गए हैं । वातावरण की अनिष्ट शक्तियां सनातन के साधकों को कष्ट क्यों देती हैं, ऐसा प्रश्न कुछ लोगों के मन में आ रहा होगा । पृथ्वी पर विद्यमान सात्त्विकता को ही नष्ट करना और दुष्प्रवृत्तियों के माध्यम से भूतल पर आसुरी राज्य की स्थापना करना, यह सूक्ष्म की अनिष्ट शक्तियों का ध्येय है और उसके लिए वे प्रयास करती हैं । इसके विपरीत सनातन के साधक समष्टि साधना हेतु समाज को साधना करने के लिए उद्युक्त कर पृथ्वी पर सात्त्विकता बढाने के लिए और भूतल पर ‘हिन्दू राष्ट्र’ अर्थात ‘विश्वकल्याणार्थ कार्यरत सात्त्विक लोगों का राष्ट्र’ स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं । ऐसे में ‘असुरों का राज्य’ स्थापित करने हेतु प्रयासरत अनिष्ट शक्तियों के प्रयासों पर प्रतिबंध लगता है; इसलिए वे समष्टि साधना करनेवाले सनातन के साधकों के कार्य में तथा सेवा में अनेक बाधाएं लाते हैं, तथा साधकों के शरीर, कपडे, मन, तथा साधकों की वास्तु में रखे देवताओं के चित्र, वस्तु इत्यादि पर सूक्ष्म से आक्रमण करते हैं ।
३ अ. देवासुर युद्ध का दृश्य स्वरूप !
३ अ १. देवासुर युद्ध से साधकों पर होनेवाले परिणाम !
सूक्ष्म की अनिष्ट शक्तियां सनातन के साधकों पर सूक्ष्म से आक्रमण करती हैं जिसकी प्रचिती स्थूल से उभरती है । इसके कुछ उदाहरण हैं –
१. साधकों की प्राणशक्ति अल्प होना, शारीरिक कारण न होते हुए भी विविध व्याधियां होना, मानसिक कष्ट होना
२. देवता व संतों के चित्रों पर दाग आना, वह विद्रुप होना, खरोंचें आना, जलना
३. साधकों द्वारा प्रयोग की वस्तुएं अपनेआप टूटना, फूटना, उन पर खरोंचें आना, उनमें छेद होना
४. फर्श, दीवार इत्यादि पर रक्त के दाग, खरोंच, हाथ के पंजे, खोपडियों के आकार इत्यादि उभरना
५. कपडों पर रक्त के या काले दाग उभरना, वह अपनेआप जलना या फटना, उनके रंग बदलना
६. साधकों के पैरों पर काले दाग आना, शरीर पर व्रण (घाव) उठना विविध माध्यमों से साधकों पर अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण होने
की प्रचिती देश-विदेश के साधकों को आ रही है ।
३ अ २. देवासुर युद्ध के पंचमहाभूतों पर होनेवाले परिणाम !
पंचमहाभूतों पर भी देवासुर युद्ध के परिणाम दृश्यरूप में अनुभव कर सकते हैं ।
अ. पृथ्वीतत्त्व : भूकंप, युद्ध
आ. आपतत्त्व : बाढ आना, हिमखंड पिघलना
इ. तेजतत्त्व : धूप तेज होना, ज्वालामुखी जागृत होना
ई. वायुतत्त्व : भीषण तूफान आना
उ. आकाशतत्त्व : अत्यंत कर्णकर्कश और कष्टदायक नाद उत्पन्न होना
३ आ. धर्मसंस्थापना का कार्य करनेवाले प्रत्येक को ही अनिष्ट शक्तियों का कष्ट होना अपरिहार्य है !
हिन्दू राष्ट्र-स्थापना का कार्य करनेवालों पर सूक्ष्म से आक्रमण होना अपरिहार्य है । सूक्ष्म के युद्ध के कारण भाषण देते समय कुछ न सूझना, निराशा आना, अयोग्य कृतियां करने की इच्छा होना, कार्य में बाधाएं आना, यश न मिलना इत्यादि अनुभव आते हैं । ऐसे अनुभव आपको भी आते होंगे । साधना करनेवालों को स्वयं पर सूक्ष्म के आक्रमणों की तीव्रता ज्ञात होती है । साधना न करनेवालों को उस संदर्भ में गंभीरता ज्ञात नहीं होती ।
४. देवासुर युद्ध में संतों की सहायता
स्थूल का कार्य दिखाई देता है; परंतु सूक्ष्म से चल रहे कार्य के संदर्भ में जानकारी नहीं होती । इसलिए अनिष्ट शक्तियों के युद्ध में संत सूक्ष्म से कर रहे कार्य की हमें जानकारी नहीं होती; परंतु सनातन के साधक साधना करते हैं इसलिए देवासुर युद्ध में संत कर रहे सहायता का उन्हें बोध होता है ।
अ. सनातन के साधकों को और हिन्दू धर्मप्रसार के कार्य को होनेवाला अनिष्ट शक्तियों का कष्ट न्यून हो, इस हेतु अहमदनगर जिले के
गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी ने देहत्याग से पूर्व जप, हवन, सप्तशती का पाठ इत्यादि किया ।
आ. कल्याण, जिला ठाणे के महान संत और ‘ॐ आनंदं हिमालयं’ इस संप्रदाय के संस्थापक योगतज्ञ दादाजी वैशपांयन मेरा मृत्युयोग टले, सनातन के साधकों की अनिष्ट शक्तियों से रक्षा हो और ‘सनातन संस्था’ पर प्रतिबंध न आए, इसलिए पिछले १० वर्षों से कठोर अनुष्ठान कर रहे हैं । इन दोनों संतों द्वारा किए गए अनुष्ठानों के कारण मेरा महामृत्युयोग और सनातन पर अन्याय स्वरूप प्रतिबंध अब तक टला है ।
इ. सोलापुर जिले में कासारवाडी के ‘श्री योगिराज वेद विज्ञान आश्रम’ के संस्थापक गवामयी सत्री प.पू. नारायण (नाना) काळेगुरूजी (आयु ८० वर्ष) ने प.पू. डॉक्टरजी का महामृत्युयोग टले और ‘हिन्दू राष्ट्र’ की स्थापना हेतु सोमयाग और आयुष्कामेष्टि और अश्वमेध यज्ञ किया ।
ई. साधकों की रक्षा होने के लिए पुणे के प.पू. गणेशनाथजी महाराज (प.पू. जोशी) के माध्यम से उनके हिमालय निवासी गुरु महंत योगी
बृहस्पतिनाथजी महाराज ने सनातन के आश्रम में ३१ दिन ‘दशप्रणव गायत्री हवन’ करने को कहा । ‘सनातन संस्था’ को अब हिमालय के सिद्ध योगियों के भी प्रत्यक्ष आशीर्वाद मिलना आरंभ होने का यह द्योतक है । सनातन के आश्रम में जून २०१३ में हुए इस हवन के समय भी ‘देवासुर युद्ध जारी है’, इसका अनुभव हमने लिया । इस गायत्री हवन के समय सूक्ष्म के अच्छे और अनिष्ट लिंगदेह दृश्य रूप में प्रकट हुए ।
इस हवन के छायाचित्र निकालने पर उनमें हवन के चारों ओर स्पष्टता से गोलाकार लिंगदेह (ऑर्ब्स) दिखाई दे रहे हैं । उसमें अच्छे और अनिष्ट ऐसे दोनों लिंगदेह दिखाई दे रहे हैं । इस छायाचित्र में यज्ञ का पौरोहित्य करनेवाले पुरोहित के सिर पर दिखाई देनेवाले गोलाकार लिंगदेह अच्छे हैं और कुछ लिंगदेह कष्टदायक हैं । कुछ अच्छे लिंगदेहों के बीच में ॐ दिखाई दे रहा है । ऋषि-मुनि यज्ञयाग करते थे, तब अच्छी और अनिष्ट शक्तियां आती थीं । वैसे अभी भी यज्ञ के स्थान पर सूक्ष्म से अनिष्ट और अच्छी शक्तियां आती हैं । इन शक्तियों के विषय में हम अधिक शोध कर रहे हैं ।
५. धर्मजागृति के कार्य में संत स्वयं सहायता करते हैं, इसकी सनातन को आई प्रचिती !
हम जिस देवासुर युद्ध को समझकर ले रहे हैं, उसमें सहायता करनेवाले संतों ने पूर्ण सहायता स्वयं की है । ये सभी संत कितने
निरपेक्ष भाव से कार्य कर रहे हैं, इसकी प्रचिती कुछ सूत्रों से हमें होगी ।
अ. गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी और योगतज्ञ दादाजी वैशपांयन, ये सनातन के साधकों का परिचय होने से पूर्व से ही अनिष्ट शक्तियों
के निवारण के लिए कार्य कर रहे थे ।
आ. एक संत सनातन को सहायता करने के लिए नियमित रूप से यज्ञ और अन्य विधि करते हैं; परंतु उन्होंने ‘मैं जो सहायता कर रहा
हूं उसे कहीं भी प्रकाशित न करें’, ऐसा बताया है ।
इ. अनिष्ट शक्तियों के निवारणार्थ विधि करने के पश्चात विधि करनेवाले संतों को भी कष्ट होते हैं, तो भी वे निरंतर विधि करते हैं ।
ई. संतों की दृष्टि से राष्ट्र और धर्म यह विषय भी माया है, तब भी वे सनातन के कार्य को सहायता करते हैं ।
उ. एक देवस्थान के पुजारी से पहले का कोई भी परिचय न होते हुए, उस पुजारी ने एक साधिका से प.पू. डॉक्टरजी के स्वास्थ्य के विषय में पूछताछ की और वहां की मिट्टी प.पू. डॉक्टरजी को लगाने के लिए दी ।
ऊ. हिमालय में निवास करनेवाले एक संप्रदाय के गुरु ने उनके शिष्यों को ‘सनातन का और हमारा कार्य एक ही है’, ऐसे बताया है ।
ए. कुछ वर्ष पूर्व अलग-अलग शहरों में रहनेवाले सनातन के दो साधकों के पास नाथ संप्रदाय के दो अलग-अलग साधु आए और उन्होंने कहा कि ‘‘आगे आनेवाले आपातकाल में नाथ संप्रदाय आपको हर प्रकार से सहायता करेगा’, ऐसी सूचना हमारे गुरु ने आपको दी है’, ऐसा कहकर वे साधु चले गए । २०१२ में बेळगांव जिले में आप्पा की वाडी के श्री देव हालसिद्धनाथ ने उनके भक्तों में प्रकट होकर ‘सनातन के आश्रम में मेरा विश्रांतिस्थान है । उनके कार्य को हमारा पूर्ण आशीर्वाद है’, ऐसा कहा है । इस प्रकार नाथ संप्रदाय से सहायता हो रही है ।
अनेक कष्ट सहकर, स्वयं अपने खर्च से और निरपेक्षता से कार्य करनेवाले संतों के इन उदाहरणों से संतों का बडप्पन ध्यान में आता है ।
देवासुर युद्ध के कुछ मुख्य सूत्रों का उल्लेख मैंने यहां किया है । अब कुछ को प्रश्न होगा कि संतों की सहायता ‘सनातन संस्था’ के साधकों को ही क्यों मिलती है ? इसका कारण सनातन के साधक तन-मन-धन का त्याग कर व्यष्टि साधना करते हैं और राष्ट्र और धर्म का कार्य भी धर्मसेवा के रूप में, समष्टि साधना स्वरूप निरपेक्ष भाव से करते हैं । देवासुर युद्ध का विषय जानने पर साधना का महत्त्व ध्यान में आने में सहायता होगी ।
सूक्ष्म के युद्ध के कुछ वर्षों के पश्चात स्थूल अर्थात दृश्य परिणाम दिखाई देते हैं । अनिष्ट शक्तियों के विरुद्ध संतों के सूक्ष्म का युद्ध जीतने पर, भारत के क्षात्रतेज युक्त हिन्दुत्वनिष्ठ इस युद्ध में विजय प्राप्त करेंगे । हमें अपना धर्मकर्तव्य मानकर इस कार्य में सम्मिलित होना है; क्योंकि धर्मयुद्ध में विजय के पश्चात हम सभी का आध्यात्मिक उद्धार होगा !