विविधतापूर्ण सेवाएं करनेवाली तथा परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के निरंतर साथ होने की अनुभूति करनेवाली सनातन की संत पू. नंदिनी मंगळवेढेकर की साधनायात्रा को उन्हीं के शब्दों में जान लेते हैं –
१. बचपन
घर का वातावरण धार्मिक होने से धार्मिक गतिविधियों में रूचि उत्पन्न होना
मेरी मां में ईश्वर के प्रति बहुत श्रद्धा थी; इसके कारण घर में बहुत छुताछुत, पूजा-अर्चना, प्रार्थना करना आदि था; परंतु उस समय मुझे ‘अनेक देवी-देवता एवं स्वामी इनमें से किसकी उपासना करें ?’, यह समझ में नहीं आता था ।
२. सनातन संस्था से संपर्क
२ अ. एक दिन दुकान खोलनेपर पति के पास अकस्मात संत भक्तराज महाराजजी
का छायाचित्र आकर गिरना तथा उसपर अंकित ‘अन्याय के विरुद्ध संघर्ष !’, वाक्य को
पढनेपर ‘इस संस्था का कार्य अच्छा है; इसलिए उसमें सहभागी होना चाहिए’, ऐसा पति को लगना
मेरे पति में अन्याय के विरुद्ध बहुत क्षोभ था । हमारी एक दुकान थी । हम दोनों (मैं और मेरे पति) मिलकर वह दुकान चलाते थे । वर्ष १९९४ में एक दिन दुकान खोलनेपर अकस्मात ही मेरे पति के पास संत भक्तराज महाराजजी का एक छायाचित्र आकर गिरा । वह छायाचित्र कहां से आया, यह हमें ज्ञात नहीं हुआ । उस छायाचित्रपर ‘अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करें !’, यह शीर्षक था । तब मेरे पति को ऐसा लगा कि इस संस्था का कार्य अच्छा है; अतः हमें इस संस्था के कार्य में सहभागी होना चाहिए ।
२ आ. समाचारपत्र में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा लिखित कुलदेवता
के नामजप के विषय की जानकारी को पढकर कुलदेवता का नामजप आरंभ किया जाना
वर्ष १९९५ में मुझे हमारे घर आए ‘दैनिक समाचार’ समाचारपत्र में ‘नाम कैसे लेना चाहिए ?’, यह चौकट दिखाई दी, जो परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा लिखी गई थी । उसमें कुलदेवता का नामजप करने के लिए कहा गया था । तब से मैं और मेरे पति ने कुलदेवता का नामजप आरंभ किया ।
३. साधना का मार्गक्रमण
३ अ. अबतक की गई विविध सेवाएं
३ अ १. सत्संग में जानेपर सनातन संस्था की जानकारी ज्ञात होना और उसके पश्चात उपलब्ध प्रत्येक सेवा को करना
सोलापुर में आधुनिक वैद्या (श्रीमती) नंदिनी सामंत साप्ताहिक सत्संग लेती थीं । वर्ष १९९६ में हम सत्संग में जाने लगे । हमें वहां सनातन संस्था की जानकारी मिली और तब से हमारी साधना का आरंभ हुआ । उसके पश्चात हम दोनों जो उपलब्ध होगी, वह सेवा करने लगे ।
३ अ २. भाग्यनगर में प्रतिकूल स्थिति में भी १५ दिन प्रसार की सेवा करना
वर्ष १९९७ में हम दोनों प्रसार की सेवा हेतु भाग्यनगर गए थे । हमने वहां १५ दिन सेवा की । हमारे साथ मंदार नामक एक साधक था । भाग्यनगर में तेलुगु भाषी लोग अधिक संख्या में होने से हम लोगोंको हिन्दी और अंग्रेजी भाषाआें में सरलता से अध्यात्म की जानकारी देने लगे । वहां हम एक पुराने और मिट्टी से बने कक्ष में रहते थे । वह कक्ष आधा गिरा हुआ था और एक बाजू में मिट्टी का ढेर था । रात को सोते समय हमें डर लगता था । मैं पति को पलंगपर सोने के लिए कहती थी और स्वयं नीचे सोती थी । मेरे पति को चावल नहीं चलता था; इसलिए मैं मेरे पाले की रोटियां उन्हें देती थी और मैं २ कटोरे चावल खाती थी । इस प्रकार से हमने वहां १५ दिन बिताए । इस सेवा से हमें बहुत आनंद मिला ।
३ अ ३. पति द्वारा प्रोत्साहित किए जाने से सत्संग लेना आरंभ करना तथा सत्संग में आए तेलुगु भाषील जिज्ञासुआें को विषय ज्ञात न होनेपर भी सत्संग अच्छा लगना
आरंभ में मेरे पति ही सत्संग लेते थे, उसके पश्चात उन्होंने मुझे भी सत्संग लेने हेतु प्रेरित किया और मैं भी सत्संग लेने लगी । मैने सोलापुर में हनुमान मंदिर, कुछ उपाहारगृह और स्टेट बैंक कॉलोनी में सत्संग लिए । इन सत्संगों मे कुछ तेलुगु भाषी जिज्ञासु भी आते थे । उन्हें विषय समझ में नहीं आता था; किंतु सत्संग में अच्छा लगता था ।
३ अ ४. सत्संग हेतु घर आए साधकों के लिए रसोई बनाना
पहले हमारे घर में बडा सभागार (हॉल) था, वहां सत्संग होते थे । उस समय कुछ साधकों को अपने घर जाने में रात होती थी । तब मैं हमारे घरपर ही उनका भोजन बनाती थी ।
३ आ. आरंभ में कुलदेवता व्यंकटेश्वर की उपासना करना, उसके पश्चात छूतछात
न्यून होकर नामजप के प्रति श्रद्धा का बढते जाना और सनातन संस्था के साथ निकटता होना
मेरी सासूमां ने श्री भवानीदेवी की बहुत उपासना की । एक बार वे साष्टांग नमस्कार करती हुईं तुळजापुरतक गई थीं । हम हमारे कुलदेवती श्री व्यंकटेश्वरजी की उपासना करते थे । ‘रात १२ बजे से प्रातः ४ बजेतक व्यंकटेश स्तोत्र कापाठकर केवल १ गिलास दूध पीना और दिनभर कुछ न खाना’, इस दिनक्र का हमने ८ दिनोंतक पालन किया । कुछ समय पश्चात हमारा छूतछात न्यून होते गया । नामजप के प्रति मुझमें श्रद्धा बढती गई और मैं नामजप को ही अधिक महत्त्व देने लगी । धीरे-धीरे सनातन संस्था के साथ मेरी निकटता बढती गई ।
३ इ. बच्चों द्वारा भी साधना आरंभ की जाना तथा
परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी अपने साथ होने की अनुभूति करना
मेरे साथ मेरे २ लडके भी सनातन संस्था के साथ जुड गया । वर्ष २००५ में मेरा लडका श्री. राजेश पहली बार रामनाथी आश्रम के दर्शन हेतु गोवा जानेवाला था । उस समय वह कोल्हापुर के पास ही फोंडा नाम का दूसरा एक गांव है और वहीं सनातन संस्था का आश्रम है, ऐसा समझकर उस गांव गया; किंतु साधकों से उसे यह ज्ञात हुआ कि वह जहां गया था, वहां आश्रम नहीं है, अपितु गोवा के फोंडा में सनातन का आश्रम है ।
दूसरे दिन दोपहर १ बजे वह रामनाथी आश्रम पहुंचेगा, ऐसा उसे लगा । उसमें गुरुदेवजी से मिलने की तडप थी । उसी रात उसे एक स्वप्न आया । उसमें उसे यह दिखाई दिया कि परात्पर गुरुदेवजी स्वयं उसे रामनाथी आश्रम का मार्ग दिखा रहे हैं । वास्तव में राजेश जिस समय रामनाथी आश्रम गया, उस समय उसे स्वप्न में दिखाई दिया था, उसी प्रकार से सब था, यह उसके ध्यान में आया । स्वप्न में गुरुदेवजी का रूप जिस प्रकार से तेजस्वी था, उसी प्रकार से प्रत्यक्ष भेंट के समय भी परात्पर गुरुदेवजी तेजस्वी दिख रहे थे । गुरुदेवजी ने पहले ही स्वप्न में आकर दर्शन देने से उसमें गुरुदेवजी के प्रति श्रद्धा बढी । वह ठेकेदार है । वह किसी काम का आरंभ करने से पहले प.पू. गुरुदेवजी का पूजन करता है । कई बार उसे परात्पर गुरुदेवजी के उसके साथ होने का प्रतीत होता है ।
३ ई. मुझे परात्पर गुरुदेवजी से संबंधित अनेक अनुभूतियां प्राप्त हुईं ।
जब मुझे कुछ मीठा खाने की इच्छा होती है, तब परात्पर गुरुदेवजी मुझे मिठाई भेजते हैं ।
४. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी से पहली भेंट
वर्ष २००२ में जब मिरज आश्रम में गुरुदेवजी से मेरी पहली बार भेंट हुई ।
५. पति तथा दोनों बच्चों का निधन तथा परात्पर गुरु
डॉ. आठवलेजी द्वारा सांत्वना दिए जाने से उस स्थिति से बाहर आना संभव होना
५ अ. पति का अस्वस्थ होने से उन्हें चिकित्सालय में प्रविष्ट किया जाना तथा
परात्पर गुरुदेवजी के मार्गदर्शन की ध्वनिचक्रिका को संपूर्ण सुनने के पश्चात पति का प्राण त्याग देना
मेरे पति अपने अंतिम दिनों में बहुत ही अस्वस्थ होने के कारण चिकित्सालय में प्रविष्ट थे । उन्होंने मुझे गुरुदेवजी के मार्गदर्शन की ध्वनिचक्रिका (कैसेट) लगाने के लिए कहा । उन्होंने साधना- भाग १ और भाग २ में गुरुदेवजी का संपूर्ण मार्गदर्शन सुनकर ही अपने प्राण त्याग दिए ।
५ आ. परात्पर गुरुदेवजी हमारे घर आएंगे; इसलिए पति द्वारा बहुत
सिद्धता की जाना; किंतु उनके घर आने के पूर्व ही पति का निधन हो जाना
परात्पर गुरुदेवजी हमारे घर आएंगे; इसके लिए मेरे पति ने बहुत सिद्धता की थी । गुरुदेवजी ने पीले रंग का महत्त्व बताया था; इसलिए मेरे पत ने पीले रंग की चादर आदि सामग्री खरीदी थी; किंतु गुरुदेवजी के हमारे घर आने से पहले ही मेरे पति का निधन हुआ ।
५ इ. पति एवं दोनों बच्चों के निधन के कारण आत्यंतिक दुख होकर रोना,
उसी समय परात्पर गुरुदेवजी का घर आकर सांत्वना दी जाना और उसके पश्चात दुख से संवर पाना
मेरे पति का निधन हुआ और उसके तुरंत पश्चात मेरे २ लडकों का भी निधन हुआ । ये आघात मेरी सहनशक्ति से परे थे । मैं बहुत दुखी होकर निरंतर रो रही थी । वर्ष २००४ में एक दिन गुरुदेवजी प्रत्यक्षरूप से मेरे घर पधारे थे । उस समय मेरे लडके ने फूलों की कालीन बिछाई थी । उस समय दुख के कारण मैं ढाडें मारकर रो रही थी । गुरुदेवजी ने मुझसे कहा, ‘‘आप ऐसे कितने दिनोंतक रोती रहेंगी ? जिन्हें जाना है, वह तो जाएगा ही । अब आपको इस स्थिति से बाहर आना पडेगा । देखिए, मैने द्वार खोल दिया है । आप को आज के सत्संग में आना है ।’’ उसके पश्चात मैं सत्संग में गई और धीरे-धीरे दुख से संवर गई ।
६. आजकल में दिनभर परात्पर गुरुदेवजी का ही स्मरण
करती हूं और उन्हीं का नामजप करती हूं । मुझ में श्री गणेशजी के प्रति
भी श्रद्धा है;इसलिए मैं प्रतिदिन २ मालाएं श्री गणेशजी का नामजप करती हूं ।’