श्रीमती विजया दीक्षित द्वारा उनके पति पू. (डॉ.) नीलकंठ अमृत दीक्षितजी की अनुभव की हुई गुणविशेषताएं –
१. ठीकठाकपन
मेरे पति सदैव मुझसे कहते हैं कि किसी वस्तु को आंखें बंद कर अथवा अंधेरे में खोजनेपर भी वह सहजता से मिलनी चाहिए । वे केवल ऐसा कहते ही नहीं, अपितु ली गई वस्तु को उसके मूल स्थानपर रखना, उनकी सहजवृत्ति है । उनमें स्वच्छता और ठीकठाकपन जैसे अनेक गुण हैं । उनमें स्वयंअनुशासन है; किंतु वे इसका दूसरों को कष्ट नहीं होने देते । ‘सादगीभरी जीवनशैली और उच्च विचारधारा’ उनके रक्त में ही है ।
२. जीवन का प्रत्येक कृत्य उचित समयपर तथा परिपूर्ण पद्धति से करना
हमें कुल ३ बच्चे हैं । सबसे बडी मेरी लडकी और उसके पश्चात २ लडके । ये तीनों बच्चे बडे होनेपर हमें उनकी आगे की शिक्षा के लिए अधिकोष से ऋण लेना पडा । मेरे पति प्रत्येक मास की पहली तिथि को बिना चूके अधिकोष में जाकर इस ऋण की किश्त जाते थे, तब अधिकोष के अधिकारी उनकी प्रशंसा करते हुए कहते थे, ‘‘इनके जैसे ऋण को होंगे, तो अधिकोष कभी नहीं डूबेंगे ।’’ जीवन के प्रत्येक कृत्य को उचित समयपर और परिपूर्ण पद्धति से करना, यह उनका मूल स्वभाव ही है ।
३. अपना संपूर्ण जीवन रोगियों की सेवा हेतु समर्पित करनेवाले आदर्श डॉक्टर !
३ अ. संतुष्ट वृत्ति होने से अधिकार का दुरुपयोग न करना
मेरे विवाह के पश्चात मेरे पति ने कर्नाटक राज्य के अनेक गांवों मे चिकित्सीय अधिकारी के रूप में काम किया; परंतु उन्होंने कभी अपने अधिकार का दुरुपयोग किया हो, ऐसा मैने कभी नहीं देखा । ईश्वर ने उन्हें जो कुछ दिया, उसमें वे संतोष मानकर रोगियों की सेवा करते रहे ।
३ आ. रात-देर रात पैदल चलकर तथा आवश्यकता
पडनेपर अपने प्राणों को संकट में डालकर रोगियों को देखना
उन्हें कई बार रात-देर रात रोगियों को देखने के लिए विविध स्थानोंपर जाना पडता था । ऐसे समय वे बिना किसी शिकायत के अपने सहयोगियों के साथ हाथ में लालटेन लिए हुए काटोंभरे मार्ग से पैदल जाते थे । एक बार रोगी को देखने जाते समय उन्हें अपने सामने एक नाग को बैठे हुए देखा । उस समय अज्ञानवश उनके द्वारा पैर आगे रखे जाने से उस नाग ने उनके पैर को डंस लिया; किंतु तब उनके पैर में बूट होने से उन्हें कुछ नहीं हुआ । नाग वहां से निकल गया और वे रोगी को देखकर ही घर लौटे । उनके ऐसे कई गुणों के कारण हम जिस गांव में जाते थे, उस प्रत्येक गांव में उन्हें अत्यंत सम्मान मिलता था । स्थानांतरण होनेपर हम एक गांव से दूसरे गांव जाने लगे, तो हमें विदाई देते हुए गांव के लोगों के आंखों में आंसू आते थे ।
३ इ. पैसों की किल्लत होते हुए भी रोगियों से अधिक पैसे नहीं लेना
मेरे पति ने कुछ घरेलु कारणों से अपनी नौकरी के १० वर्ष शेष होते हुए भी नौकरी छोड दी और बेळगाव में स्वयं का चिकित्सीय व्यवसाय आरंभ किया । तब बच्चे छोटे थे और व्यवसाय भी नया था । उसके कारण घर में पैसों की किल्लत होती थी; परंतु ऐसा होते हुए भी उन्होंने कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैले अथवा रोगियों से अधिक पैसे भी नहीं लिए । निर्धन रोगियों से, तो वह पैसे भी नहीं लेते थे । ऐसे रोगी ठीक होने के पश्चात उनके खेतों में आई उपज, उदा. मूंगफली, सब्जी, गूड आदि जो होगा, वह लेकर आते थे । मेरे पति भी इसपर ही संतोष मानते थे ।
३ ई. रोगियों से प्रेमपूर्वक बातें कर उनकी ओर ध्यान देना
वे रोगी के परीक्षण के समय उसके घर के लोगों का हाल पूछते थे; इसके कारण कई रोगी खुलेमन से उन्हें अपनी घर की समस्याएं बताते थे और वे जो बताएंगे, उसके अनुसार करते थे । उनमें विद्यमान इन गुणों के कारण गांव के अनेक लोग उन्हें ‘देवता जैसा व्यक्ति’ मानते थे । किसी रोगी का रोग अधिक तीव्र हुआ हो, तो मेरे पति उस रोगी को आधुनिक वैद्य के पास भेजते थे और उसके ठीक होनेतक उसकी समीक्षा करते थे । आवश्यकता पडनेपर वे उस आधुनिक वैद्य से बात कर रोगी का हाल भी पूछते थे । रोगी चाहे किसी भी जाति-धर्म का क्यों न हो; तब भी वे सभी से समान प्रेम रखते थे ।
३ ऊ. रोगियों की सेवा करते समय किसी प्रकार की छूट न लेना
मेरे पति का जीवन किसी निरासक्त कर्मयोगी की भांति है । उनका संपूर्ण जीवन उनके पास आनेवाले रोगी और उनके परिवारों की सेवा में ही बीत गया । रात में भले कितना ही विलंब क्यों न हो; परंतु दूसरे दिन वे निर्धारित समयपर ही चिकित्सालय में उपस्थित होते थे । इसमें उन्होंने कभी कोई छूट ली हो, इसका मुझे स्मरण नहीं है । उन्होंने अपनी आयु के ८० वर्षतक अपना चिकित्सालय कभी बंद नहीं रखा । अब चिकित्सालय बंद करने के पश्चात भी उनके पास सदैव आनेवाले रोगी अभी भी घर आते ही रहते हैं । रोगी कहते हैं, ‘‘अब हम दूसरे आधुनिक वैद्यों से चिकित्सा ले रहे हैं; परंतु आप से मिले बिना स्वस्थ नहीं लगता ।’’
४. पति द्वारा की गई साधना और संतसेवा
४ अ. चिकित्सालय में रोगियों के न होने के समय धर्मग्रंथों का अध्ययन करना
‘समय का सदुपयोग करना मेरे पति का विशेष गुण है । जब चिकित्सालय में रोगी नहीं होते थे, तब वे किसी धर्मग्रंथ का अध्ययन कर ‘इससे मुझे क्या ज्ञात हुआ ?’, यह लिखकर रखते थे । उसके पश्चात वे कुछ समविचारी व्यक्तियों के साथ इस अध्ययन के संदर्भ में चर्चा करते थे । जिन रोगियों को अध्यात्म और साधना में रूचि होती थी अथवा जिनके लिए आवश्यक हो; उन रोगियों को वे उसके कुछ सूत्र बताते थे ।
४ आ. आयु के १२वें वर्ष से नामजप, साथ ही अनेक वर्षों से गुरुचरित्र का पाठ करना और पूजा-अर्चन करना
मेरे ससुरजी ने मेरे पति को उनके १२वें वर्ष की आयु में ही नामजप करने के लिए कहा । उनका वहां से आरंभ नामजप अभीतक चालू है । प्रतिदिन संख्या एवं पूजा अर्चना करने की उनकी परंपरा कभी खंडित नहीं हुई । नौकरी में होते समय और स्वयं के व्यवसाय की अवधि में भी उन्होंने कई बार गुरुचरित्र का पाठ किया है । एक बार तो उन्होंने निरंतर ७ पाठ किए हैं ।
४ इ. घर में अनेक संतों का आना-जाना होने से
संतसान्निध्य मिलना और पति के द्वारा सभी संतों की मन से सेवा की जाना
मेरे ससुर आध्यात्मिक वृत्ति के थे । प.पू. सदानंद महाराज उनके गुरु थे । उनकी समाधि बेळगाव में ही है । उसके कारण उनके भाई का हमारे घर में नियमितरूप से आना-जाना था । उस से हमें भी संतसान्निध्य मिला । उस समय उनका अध्यात्म के संदर्भ में विचारमंथन होता था । मेरे पति सभी संतों की बहुत ही मन से सेवा करते थे । हमें जिन संतों का सान्निध्य मिला; उनमें प्रमुखता से कहा जाए, तो प.पू. गुळवणी महाराज, पू. हरिकाका गोसावी, प.पू. स्वामी भास्करानंद, पू. कलावती मां, बेळगाव के प.पू. काणे महाराज इत्यादि । प.पू. भास्करानंद स्वामी के साथ मेरे पति ८ दिनोंतक रहे थे । स्वामीजी का बेळगाव को जब उनके भक्तों के पास निवास होता था, तब वे मेरे पति को स्मरणपूर्वक बुला लेते थे, । प.पू. काणे महाराजजी का घर में सदैव आना-जाना रहता था, तो मेरे पति पू. कलावती मां के फैमिली डॉक्टर (पारिवारिक वैद्य) होने से उन्हें उनकी सेवा का सौभाग्य भी मिला ।
५. पति के द्वारा की गई अन्य धार्मिक सेवाएं
५ अ. प.पू. सदानंद महाराज के चरित्र ग्रंथ का संकलन कर उसका प्रकाशन करना
प.पू. सदानंद महाराज के भक्तों के आग्रह से मेरे पति ने महाराज का संक्षिप्त चरित्र लिखने के लिए बहुत परिश्रम किए । अनेक स्थानोंपर जाकर उनकी जानकारी का संकलन किया और उसे ग्रंथ के रूप में प्रकाशित किया ।
५ आ. गांव के कुछ मंदिर के न्यासी के रूप में भी उन्होंने सेवा की ।
६. ‘अपनी गृहस्थी चलाकर साधना करनी चाहिए’, यह पति
के विचार होने के पहले लडकी के संपूर्ण परिवार द्वारा किए गए
पूर्णकालीन साधना के लिए उनका विरोध होना; परंतु उसके पश्चात प्रतिदिन
‘दैनिक सनातन प्रभात’ के अध्ययनपूर्ण वाचन के कारण उनका मनपरिवर्तन होना
अध्यात्म एवं साधना के विषय में उनके अपने मत थे । उन्हें ऐसा लगता था कि गृहस्थी चलाकर सब करना चाहिए । ‘हमें गृहस्थी में रहकर आगे जानेवालों का साथ देना चाहिए, यह उनका उद्देश्य था । हमारी बेटी (श्रीमती अंजली कणगलेकर), जमाई (श्री. यशवंत कणगलेकर) और पौत्र (बडा पौत्र डॉ. अंजेश और छोटा पौत्र श्री. सत्यकाम) जब सनातन के संपर्क में आए, तब वे सभी सनातन संस्था के कार्य में सहभागी हो गए । उस समय पति को ऐसा लगता था कि ऐसा करना ठीक नहीं है । उनका मूल रा.स्व. संघ की विचारधारावाला होने से धर्मसेवा के संदर्भ में उनको दोराय नहीं थी; किंतु शिक्षा और नौकरी छोडकर साधना के लिए उनका विरोध था । बेटी का आश्रम जाकर रहना उन्हें ठीक नहीं लगा था; परंतु पहले साप्ताहिक सनातन प्रभात और उसके पश्चात दैनिक सनातन प्रभात के पहले अंक से आजतक का प्रत्येक अंक को उन्होंने केवल पढा ही नहीं, अपितु उनका उन्होंने अध्ययन किया । कुछ दिन पश्चात धीरे-धीरे उनका विरोध अल्प होता गया । जब फोंडा के सुखसागर में जब आश्रम था, तब मेरे पति और हम परिजन आश्रम जाकर आए ।
७. संत एवं परात्पर गुरु डॉक्टरजी के प्रति कृतज्ञताभाव
७ अ. अस्वस्थ होते समय एक संतजी से भ्रमणभाष से बोलने से कृतज्ञता प्रतीत होना
लगभग ८-१० वर्षों से घुटनों की पीडा के कारण मेरे पति घर से कहीं बाहर नहीं निकले । विगत ३ वर्षों से तो वे बिछानेपर हैं । उनमें करवट बदलने की भी शक्ति नहीं है । बीच में वे बहुत अस्वस्थ थे । तब संतजी से बोलने के कारण उन्हें उनके प्रति बहुत कृतज्ञता प्रतीत होती है ।
७ आ. परात्पर गुरु डॉक्टरजी की कृपा के कारण
पति को रामनाथी आश्रम को ठीक से लेकर आना संभव होगा
बेटी और पौत्रों द्वारा दायित्व लेने के कारण आयु के ९०वें वर्ष में भी उन्होंने आश्रम आने की सिद्धता दर्शाई । केवल परात्पर गुरु डॉक्टरजी की कृपा से हमें उन्हें ठीक से आश्रम ले जाना संभव हुआ । यह हम सभी के लिए बडी अनुभूति ही है ।
‘परात्पर गुरुदेवजी की कृपादृष्टि हम सभीपर ऐसी ही बनी रहे, यह प्रार्थना और उनके चरणों में कृतज्ञतापूर्वक नमस्कार !’