कला के लिए कला नहीं, ईश्‍वरप्राप्ति के लिए कला

कलाकार मनुष्य जब जन्म लेता है, तब वह अन्य जीवों की तुलना में ईश्‍वर से कुछ अधिक लेकर आता है । कोई कला ज्ञात होना, ईश्‍वर का वरदान ही है । इस वरदान का उपयोग कलाकार यदि ईश्‍वरप्राप्ति के लिए करता है, तो ही उसका मनुष्यजन्म सफल होता । यही बात हमें सनातन संस्था सिखाती है । केवल मान-सम्मान और पैसे कमाने के लिए अपनी कला का उपयोग करना, मनुष्य जन्म के मूल उद्देश्य से दूर जाना है ।

विविध कलाआें के माध्यम से ईश्‍वर के पास जाने का मार्ग भी सनातन संस्था दिखाती है । आज इसके माध्यम से अनेक साधक विविध मार्गों से साधना कर रहे हैं । इसका ज्ञान समाज को हो, इस हेतु विविध कलाआें के माध्यम से साधना करते समय कलाकार साधकों को जो अनुभूतियां हुई हैं और उन्होंने जो प्रयत्न किया है, उसकी संक्षिप्त जानकारी हम आपको इस लेख के माध्यम से करानेवाले हैं । प्रयत्न करने पर, ईश्‍वर हमें ज्ञान के माध्यम से मार्गदर्शन करने लगता है; इस बात की अनुभूति आजकल कुछ साधकों को हो रही है ।

 

१. ईश्‍वरप्राप्ति के लिए चित्रकला और देवताआें के सात्त्विक चित्र बनाने की पृष्ठभूमि

इस कलियुग में मनुष्य की सात्त्विकता बहुत घट गई है । वर्तमान समय में उपासना के लिए उपयोग में लाए जानेवाले चित्रों और मूर्तियों में जब सात्त्विकता होगी, तभी उपासक को साधना करने की इच्छा होगी । इस विषय में विचार करने पर प.पू. डॉक्टरजी के मन में विचार आया, हम देवताआें के इतने सात्त्विक चित्र बनाएं कि श्रद्धालुआें को कम-से-कम उनकी ओर देखने की तो इच्छा हो । इसके पश्‍चात, कुछ ही महीनों में १९९७ में चित्रकला में पदवी प्राप्त कर हाल ही में महाविद्यालय से उत्तीर्ण हुई कु. श्रुती शेलार (आज की श्रीमती जानव्ही शिंदे) और कु. अनुराधा वाडेकर (आजी की पूज्य अनुराधा वाडेकर) नाम की दो साधिका सनातन संस्था में आईं । उन्होंने १० से २० हजार रुपए की नौकरी छोडकर, ईश्‍वरप्राप्ति के लिए यह साधनामार्ग चुना ।

२. साधकों ने देवताआें के जो चित्र बनाए, उनमें
संबंधित देवता के तत्त्व आकर्षित करने की क्षमता धीरे-धीरे बढना

विश्‍वव्यापी देवताआें के तत्त्व कागद पर बने चित्रों में लोने के लिए, अर्थात चित्र में देवता के रूप से अधिकाधिक समानता लोने के लिए साधक देवताआें के चित्र की रेखाआें का सूक्ष्म-परीक्षण कर उनमें आवश्यकतानुसार सुधार करते हैं ।

श्री दुर्गादेवी का चित्र बनाती सनातन की साधिका

सात्त्विक चित्र बनाते समय प.पू. डॉक्टरजी साधक-चित्रकार से कहते, हमें इतनी भक्ति करनी चाहिए कि देवता को ही लगे कि साधक के सामने खडा होकर कहूं, मेरा चित्र बनाओ । आरंभ में सनातन को एक चित्र बनाने में ६ से ८ महीने लग जाते थे । उस चित्र संबंधित देवता के ६ प्रतिशत तत्त्व आकर्षित करने की क्षमता होती थी । पश्‍चात, साधकों ने प्रयास कर ऐसे चित्र बनाए, जिनकी सात्त्विकता १० प्रतिशत, १२ प्रतिशत, १४ प्रतिशत और अब लगभग २७ प्रतिशत है । कलियुग में कोई चित्रकार किसी चित्र में अधिकतम ३० प्रतिशत ही देवता-तत्त्व ला सकता है ।

 

३. सनातन के बनाए सात्त्विक चित्रों की विशेषताएं

चित्र बनाती साधिका

ईश्‍वरप्राप्ति के ध्येयवाले साधक जब साधना की दृष्टि से देवताआें के चित्र बनाते हैं, तब उन्हें संतों के माध्यम से ईश्‍वर मार्गदर्शन करता है । सनातन के सब सात्त्विक चित्र इसी प्रकार बने हैं ।

 

४. ईश्‍वरप्राप्ति के लिए मूर्तिकला

एक बार प.पू. डॉक्टरजी के मन में विचार आया, हम देवताआें के केवल चित्र बनाते हैं; मूर्ति क्यों नहीं बनाते ? इसके पश्‍चात, पुणे के एक मूर्तिकार साधक श्री. गुरुदास खांडेपारकर अपनेआप ही सनातन को मिले । उन्होंने गणपति की बहुत सात्त्विक मूर्ति बनाई है ।

मूर्तिकला के माध्यम से साधना

सनातन संस्था ने अपने मुखपत्र सनातन प्रभात में समय-समय पर गणपति की सात्त्विक मूर्ति की माप के विषय में जानकारी प्रकाशित की है । जब श्री. खांडेपारकर गणपति की मूर्ति सनातन आश्रम में बना रहे थे, उस समय सनातन आश्रम में दो-तीन संत आए । उन्होंने आश्रम में पांव रखते ही कहा, यहां बहुत सात्त्विकता अनुभव हो रही है । वह मूर्ति अभी पूरी नहीं बनी थी; फिर भी उसमें मूर्तिकार के भक्तिभाव के कारण बहुत सात्त्विकता आ गई थी ! यह गणेशमूर्ति डेढ वर्ष प्रयास करने पर, २९ प्रतिशत सात्त्विक बन पाई ।

 

५. ईश्‍वरप्राप्ति के लिए नृत्यकला

नृत्य के माध्यम से साधना

हमारी नृत्यकला का जन्म मंदिरों में हुआ है । उपासना के एक माध्यम के रूप में उसका विकास हुआ । नृत्यकला की ओर हम आदरभाव से देखते हैं । धार्मिक कार्यक्रमों में नृत्यकला प्रस्तुत कर, उससे भक्तों को मानसिक सुख प्रदान किया जाता है ।

हिन्दुआें का स्वभाव सुख प्राप्त करने का है । नृत्यशैली और नृत्यकला की विविध मुद्राआें से नवरस (शृंगार, वीर, हास्य, करुण, रौद्र, भयानक, बीभत्स, अद्भुत और शांत) उत्पन्न कर, उससे नृत्यप्रेमियों को मानसिक आनंद देने का प्रयत्न किया जाता है । सनातन की साधिका श्रीमती सावित्री इचलकरंजीकर और चिकित्सक (कु.) आरती तिवारी, इस नृत्यकला के माध्यम से आध्यात्मिक शक्ति, चैतन्य, आनंद और शांति अनुभव का अभ्यास कर ही हैं । इस माध्यम से उन्होंने ईश्‍वरप्राप्ति का प्रयत्न आरंभ किया है । नृत्य से दीर्घकाल तक टिनकेवाला आनंद प्राप्त करने के लिए ये साधिकाएं प्रयत्नशील हैं ।

 

६. ईश्‍वरप्राप्ति के लिए संगीतकला

संगीत से साधना

अध्यात्म के सूक्ष्म-विभाग की साधिका श्रीमती अंजली गाडगीळ ने संगीत के माध्यम से साधना आरंभ किया । तब, उन्हें कोई राग गाते समय आध्यात्मिक दृष्टि से कैसा लगना चाहिए, राग का परिणाम क्या होता है अथवा स्वर्गलोक का संगीत कैसा है, इसकी जानकारी किसी ग्रंथ में नहीं मिली । संगीत सुनने से मन को सुख मिलता है । परंतु, इतने से संतुष्ट न होकर श्रीमती गाडगीळ ने संगीत के सूक्ष्म प्रभाव के विषय में जानकारी प्राप्त करने का प्रयास आरंभ किया । पश्‍चात, प.पू. डॉक्टरजी के कहने पर उन्होंने इस विषय में देवता से उत्तर प्राप्त करने का प्रयत्न किया । तब, उन्हें संगीत का पूरा ज्ञान मिलने लगा । उन्होंने विविध रागों के आध्यात्मिक प्रभावों के विषय में भी अध्ययन किया । उन्हें प्राप्त ज्ञान संगीतप्रेमियों को दीर्घकाल आनंद देगा ।

विविध कलाआें की ओर देखने का सनातन का दृष्टिकोण - केवल कला के लिए कला नहीं, ईश्‍वरप्राप्ति के लिए कला है । इसलिए, सनातन संस्था कला के माध्यम से भी ईश्‍वर को प्राप्त करना सिखाती है ।

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