रामदासजी ने आत्मनिवेदन को ९वीं भक्ति कहा है । इस भक्ति के विषय में बताते हुए समर्थ बताते हैं कि स्वयं को भगवान को समर्पित करना ही आत्मनिवेदन है, अर्थात स्वयं को उनके नियंत्रण में सौंपना अथवा स्वयं को भगवान के हाथ में देना ।
नवविधा भक्ति में आत्मनिवेदन भक्ति एक पद्धति है । समर्थ रामदासजी ने दासबोध में इस नवविधा भक्ति के संदर्भ में बताया है । भक्त द्वारा संपूर्ण ‘मैं’ पन भगवान को समर्पित करना और उनके साथ संपूर्णरूप से एकरूप हो जाना, इसे आत्मनिवेदन कहते हैं । आत्मनिवेदन से ही ज्ञानी पुरुषों को संतुष्टि प्राप्त होती है । इस प्रकार समर्थजी ने ९वीं भक्तिपद्धति का लक्षण बताते हुए उसके विविध अंगों को स्पष्ट किया है ।
साधना मार्ग पर अग्रसर होते समय हमारे लिए प्राणप्रिय मित्र होते हैं भगवान ! मन में चल रहा द्वंद्व और विचार हम किसे बताएंगे ? कहते हैं न, चींटी के पांव में बंधी घंटी का नाद भी ईश्वरतक पहुंचता है, तो हमारी आवाज उनतक क्यों नहीं पहुंचेगी ? उनके पास मन खोला,, तो उससे हम भी खुल जाते हैं । कुछ लोग इसे ‘ईश्वर से संवाद करना’ कहते हैं, तो कुछ लोग इसे ‘आत्मनिवेदन’ भी कहते हैं । साधना में आत्मनिवेदन का विशेष महत्त्व है; क्योंकि हम इसी माध्यम से अद्वैत की अनुभूति भी ले सकते हैं ।
आत्मनिवेदन का महत्त्व !
‘जो हो रहा है, यह सतत ईश्वर को आत्मनिवेदन स्वरूप बताते रहें । आत्मनिवेदन करना महत्त्वपूर्ण है । अतः जो हो रहा है उसे उसी समय बताने से वह गलत अथवा सही है, यह बताना संभव होता है, अन्यथा ‘मैं जानता हूं और मुझे सब ज्ञात है’, ऐसा अहंकार आ जाता है ।’
हम कुछ भी नहीं हैं, यही आत्मनिवेदन !
आत्मनिवेदन का अर्थ भगवान को समर्पित होना है । ‘मैं कौन ?’, इस पर विचार करने पर ‘हम कुछ भी नहीं हैं’, यह ध्यान में आना । यह ध्यान में आने पर सहजता से आत्मनिवेदन होता है । ‘मैं कुछ भी नहीं हूं, केवल ईश्वर ही सत्य हैं; यही आत्मनिवेदन है ।
आत्मनिवेदन में भक्त ईश्वर को ही अपना सबकुछ मानकर अपने मन में आई प्रत्येक बात समर्पण भाव से बोलता जाता है । ऐसे ही भक्त संत जनाबाई के जीवन का एक प्रसंग सुनते हैं
परभणि जिले के गंगा खेड में संत जनाबाई का जन्म हुआ था । तत्पश्चात वह पंढरपुर में संत नामदेव के पिता दामाशेट शिंपि के यहां रहने आईं । तब से वह संत नामदेव के परिवार की ही एक सदस्या बन गईं । वह स्वयं को ‘नाम की दासी’ बताती थीं । विठ्ठल जी के चरणों में अपन सारा जीवन समर्पित कर जनाबाई ने अपना देहभान भूलकर दिनरात एक कर संत नामदेव के घर सेवा की । जिस कारण उनका प्रत्येक कर्म ही ब्रह्मस्वरूप हो गया था । विठ्ठल की भक्ति में इतना डूबकर वह सेवा करती थीं, कि विठ्ठल स्वयं आकर उनकी सहायता करते थे ।
‘संत जनाबाई एक बार अपने पति को भोजन परोस रही थीं । पति ने जैसे ही पहला निवाला खाया, उन्होंने क्रोध में आकर जनाबाई को पीटना आरंभ किया । उनके पति ने क्रोध में पूछा ‘सब्जी में नमक क्यों नहीं है ?’ इस पर जनाबाई को बहुत रोना आया । वे विठ्ठल के सामने खडी रहीं और कहने लगीं, ‘‘हे विठठ्ल जी देखो मैं तो कितनी सेवा करती हूं, तो भी मुझे कितना कष्ट हो रहा है । विठ्ठलजी, आपके यहां होते हुए भी आपके भक्त को ऐसी स्थिति से क्यों जाना पडता है ?’’ जनाबाई सदैव विठ्ठल से बात करती रहती थीं। वह घर का, बाहर का कुछ भी काम करती थीं तो विठ्ठल से ही बात करती रहती थीं । वह बर्तन धो रही हैं तो भी विठ्ठल से बोलती थीं, कपडे धो रही हैं तो भी विठ्ठल से बोलती थीं, स्वच्छता करती थीं तो भी विठ्ठल से ही बोलती थीं, चक्की चलाते समय, भोजन बनाते समय, धान कूटते समय हर समय जो भी काम करती थीं, तो विठ्ठल का नाम लेते हुए ही करती थी । और वह विठ्ठल के ध्यान में इतना लीन रहती थीं कि स्वयं विठ्ठल उनसे बात करते थे । इसलिए जब संत जनाबाई ने विठ्ठलजी से आत्म निवेदन किया कि मैं तो इतनी सेवा करती हूं तब आपके रहते हुए आपके भक्त को इतना कष्ट क्यों ?
तब विठ्ठलजी ने जनाबाई के मस्तक पर हाथ रखा । और विठ्ठल जी की कृपा से जनाबाई को अपने पूर्वजन्म का स्मरण हुआ । पूर्वजन्म का वह क्षण उनकी आंखों के सामने ऐसे उजागर हुआ –
‘पूर्वजन्म में जनाबाई एक राजकन्या थीं । उन्होंने गाय के सामने निवाला रखा; परंतु गाय उसे नहीं खा रही थी । तब जनाबाई ने छडी उठाई और गाय को पीटा; परंतु तब भी गाय ने वह निवाला नहीं खाया ।’
तब विठ्ठलजी ने जनाबाई के मस्तक पर रखा हुआ अपना हाथ हटा लिया, और जनाबाई पुनः होश में आ गईं ।
भगवान ने कहा, ‘‘हे जनाबाई, पूर्वसंचित और कर्मफल से कोई मुक्त नहीं है । हम सब को अपने पूर्वसंचित और कर्मों का भोग भोगना ही पडता है । वह भोगकर ही इस भवसागर से पार होना पडता है । तुम्हारी भक्ति इस जन्म की है । अतः तुम अपने सभी पूर्वसंचित इस जन्म में ही चुकाकर मेरे चरणों में सदा के लिए समाधि में विलीन हो जाओगी !’
तात्पर्य : बहुत बार हमें भी लगता है कि हम तो सब अच्छा करते हैं, तो हमारे साथ गलत क्यों होता है । हमें यह दुख क्यों मिलता है । मैंने तो किसी के साथ बुरा नहीं किया, तो सामने वाला मेरे साथ बुरा क्यों करता है । बहुत बार हम बहुत मेहनत करते हैं पर हमें उसका परिणाम उतना नहीं मिलता तो हमें कष्ट होता है । तब अच्छा कर्म करने पर भी उसका फल नहीं मिल रहा हो, तो ऐसी स्थिति में जनाबाई की इस कथा से उसका उचित उत्तर मिलेगा; हमारे जीवन में कैसी भी परिस्थिति हो परंतु अपने कर्म अच्छे ही रखें । यही आपके जीवन का लक्ष्य होना चाहिए ।
परंतु अच्छे कर्म करते हुए भी सदा जनाबाई की तरह भगवान के अनुसंधान में रहिए । उन्हें ही अपना सबकुछ मानकर उन्हें सब बताते रहें, तो कठिन पलों में निरंतर ईश्वर का सहारा और मार्गदर्शन मिलता रहेगा और हमारा यह जन्म सफल होगा ।
आत्म निवेदन भक्ति के अन्य पक्ष देखते हैं
आत्मानिवेदन का महत्वपूर्ण अंग है अपनी चूकें (गलतियां) स्वीकार करना, कोई भी मनुष्य अपने अहंभाव के कारण तुरंत अपनी चूक स्वीकार नहीं करता और चूक को स्वीकार किए बिना उसे सुधारना संभव नहीं होता; क्योंकि ‘मेरा कुछ गलत ही नहीं है, तो उसमें सुधार कैसा ?’, यह स्वाभाविक प्रश्न है । आत्मनिवेदन में भगवान के सामने अपनी चूक स्वीकार करना और उसे पुनः न दोहराने की आश्वस्तता देकर उससे मुक्त होना होता है । आत्मनिवेदन में इसका अधिक महत्व है । यहां बिना किसी से छिपाए हम सब कुछ स्वीकार करते हैं । वास्तव में भगवान के सामने गुप्त तो कुछ रह ही नहीं सकता; इस भक्ति में मन की निर्मलता होनी चाहिए । साथ ही यहां हमें अपने दोष, गलतियां तो ईश्वर के ही सामने स्वीकारनी हैं । हमें लोगो के सामने कुछ स्वीकारने में हिचकिचाहट होती है, इसका तो यहां कोई प्रश्न नहीं है । इसलिए कहा जाए, तो भक्ति की यह पद्धति बहुत ही सरल है; परंतु उतनी ही कठिन भी है; क्योंकि मनुष्य में चूक करने की आदत दूर करने में समय लगता है । इसलिए भगवान के सामने भले ही एकांत में स्वीकारना हो इसके लिए मनुष्य तैयार नहीं होता, यह वास्तविकता है; क्योंकि इसमें उस चूक को पुनः न दोहराने की आश्वस्तता देना आवश्यक होने से मनुष्य पर इस दायित्व को निभाने का बहुत बडा तनाव आता है । क्योंकि दूसरों को सिखाना तो सरल है; परंतु स्वयं के मन को नियंत्रण में रखना अत्यंत कठिन है, इससे प्रत्येक मनुष्य को सुप्त एवं परिपूर्ण भान होता है और यह भान ही उसे तुरंत स्वीकृति देने के लिए तैयार नहीं करता । यह वास्तविकता है ।
स्वीकारना और प्रार्थना करना एक ही सिक्के के २ भाग हैं । जितना महत्व नामजप का है उतना ही महत्त्व आत्मनिवेदन और प्रार्थना का है । जब कभी मनुष्य कठिन प्रसंग के समय ईश्वर के सामने दीन होता है, तब उसके मुंह से अंतर से जो सहजोद्गार निकलते हैं । वही उसकी सच्ची प्रार्थना होती है । यह प्रार्थना कार्य करती है । भक्ति का यह अत्यंत गहरा भाव है । मन के अंदर गहराई में छिपी हुई सत्यता को ईश्वर के सामने व्यक्त कर अनन्य शरणागत होना । हमारे यहां पूजा के अंत में ‘हे भगवान, मैं अपने परिवार सहित आपकी शरण में आया हूं’, यह प्रार्थना आत्मनिवेदन की ही एक पद्धति है । हम सभी इसी आत्मनिवेदन भक्ति द्वारा ईश्वर के चरणों में अनन्यभाव से शरणागत होकर मुक्त और आनंदमय होंगे । भगवान के भक्तिरस में नहाएंगे
जिस प्रकार पंचमहाभूतों में आकाश श्रेष्ठ होता है, उसी प्रकार भक्ति की जो ९ पद्धतियां बताई गई हैं, उनमें ९वीं अर्थात आत्मनिवेदन भक्ति सर्वश्रेष्ठ भक्ति है । ९वीं भक्ति को आत्मनिवेदन, उसे साधा नहीं गया, तो मनुष्य अथवा भक्त का जन्म -मृत्यु के चक्र से नहीं छूटेगा । नवविधा भक्ति एक ऐसी भक्ति है, उसके आचरण से सायुज्यमुक्ति प्राप्त होती है । भले ही इस संपूर्ण विश्व का भी लय हुआ, तब भी सायुज्यमुक्ति अचल रहती है । उसमें कोई बदलाव नहीं होता ।
प्रातिनिधिक उदाहरण
सनातन के साधक भी प्रतिदिन भगवान से आत्मनिवेदन करते हैं । हमने भी भगवान के साथ बोलने का प्रयास किया, तो हमें भी ‘भगवान’ का निश्चितरूप से अनुभव करना संभव होगा । आत्मनिवेदन किस प्रकार से करें, इसके प्रातिनिधिक उदाहरण आगे दे रहे हैं ।
श्री. विनायक (दादा) दामले, कुडाळ (जनपद सिंधुदुर्ग, महाराष्ट्र)
‘हे भगवान, मुझे मोक्ष आदि कुछ नहीं चाहिए । मुझे केवल गुरुदेवजी के ईश्वरीय राज्य की स्थापना का कार्य करना है तथा मुझे उनके विजय की ध्वजा तीनों लोकों में फहरानी है । आप उसके लिए मुझे बल प्रदान करें । मैं घुटने की पीडा के कारण ठीक से १० कदम चल भी नहीं सकता । आपकी सहायता के बिना मैं कुछ नहीं कर सकूंगा । मेरी शारीरिक क्षमता लगभग ९८ से ९९ प्रतिशततक समाप्त हो चुकी है और जो १-२ प्रतिशत बची है, उसे शरीर के रहनेतक प्रारब्धभोगों को भोगकर समाप्त करने हेतु बचाए रखें । आप मुझे बल प्रदान करें ।
आप मुझे गुरुकार्य करने हेतु प्रेरणा और चैतन्य प्रदान करें । आजतक मुझसे हुई साधना केवल गुरुकृपा के कारण ही हुई है । वे ही कर्ता-धर्ता हैं । मैं उनके ऋण में ही रहना चाहता हूं और उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूं । आजतक मुझ से व्यष्टि साधना हुई; किंतु समष्टि साधना शेष रह गई है । उसके लिए मैं और क्या कर सकता हूं ? इसका आप ही मुझे मार्गदर्शन करें ।’
श्रीमती रजनी साळुंके, सनातन आश्रम, गोवा
हे गुरुदेवजी, मैं कुछ नहीं करता, मुझ से ठीक से साधना नहीं होती और मुझ में कुछ करने की क्षमता नहीं । मैं आपसे कुछ मांगने के लिए पात्र नहीं, अपितु आपने मुझे अनेक संकटों से बचाकर जीवित रखा । ऐसा होते हुए भी मुझसे ‘आप मुझे निरंतर आपके चरणों में रखें और मेरी उंगली न छोडें’, यह प्रार्थना होती है; किंतु आप मेरी उंगली जोर से पकडें, इसके लिए मैं कुछ भी नहीं करती । मैं किसी मील के पत्थर जैसी जहां हूं, वही हूं । हे ईश्वर, आप ही ने मेरा पालन किया और मुझे जीवित रखा । मेरी कोई योग्यता न होते हुए भी आपने मेरा हाथ पकडा है और मुझे अपने पास रखा है’, इस विचार से धन्य होकर शरणागत होकर यह प्रार्थना करती हूं, ‘‘हे कृपालु दयाघन, आप ही इस जीव की अनेक जन्मों की निर्धनता को मिटाकर इस जीव का उद्धार करें !’
आत्मनिवेदन का महत्त्व !
‘जो हो रहा है, उसे बताते रहें । आत्मनिवेदन महत्त्वपूर्ण है । उससे जो रहा है, वह उचित है अथवा अनुचित है, यह बताना संभव होता है, अन्यथा ‘मुझे सब आता है, मुझे सब ज्ञात है’, ऐसा होता है ।
– परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी
हम कोई नहीं है, यही आत्मनिवेदन !
आत्मनिवेदन का अर्थ स्वयं का ईश्वर को समर्पित हो जाना । ‘मैं कौन ?’, इसका विचार करने से ‘मैं कुछ भी नहीं हूं’, यह ध्यान में आने से आत्मनिवेदन सरल बन जाता है । ‘मैं कुछ नहीं हूं, ईश्वर ही सत्य हैं, देवता और भक्त एक ही हैं’, यही आत्मनिवेदन है । इसे समझ लिए बिना सायुज्य मुक्ति नहीं है । यह अविनाशी मुक्ति है ।’ (श्री दासबोध, दशक ४)
स्रोत : दैनिक सनातन प्रभात