अब हम कु. स्वाती गायकवाड (६३ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त, अक्टूबर २०१६) द्वारा भावजागृति हेतु किए गए प्रयास देखेंगे –
‘स्वयं में भाव उत्पन्न होना ईश्वरप्राप्ति की तडप, अंतकरण में ईश्वर के प्रति बना केंद्र और प्रत्यक्षरूप से साधना, इन घटकोंपर निर्भर होता है । कृती बदलने से विचार बदलते हैं और विचारों को बदलने से कृती बदलती है’, इस तत्त्व के अनुसार मन एवं बुद्धि के स्तरपर निरंतर कृती करते रहने से भाव शीघ्र होने में सहायता मिलती है । भाव उत्पन्न होने हेतु करनी आवश्यक कृतियां यहां दे रहे हैं –
१. निराशा आ रही हो, तो अपने लक्ष्य का स्मरण करना
हमें यदि ‘मेरी साधना ठीक से नहीं हो रही है’, इस विचार से निराशा आ रही हो, तो ‘जिस समय मैं साधना में आया, तब मेरा लक्ष्य क्या था ?, इसका स्मरण करने से उत्साह बढकर मन की निराशा दूर होती है । ऐसे समय में हम मन को भाव के स्तरपर कुछ प्रश्न भी कर सकते हैं । इसका एक उदाहरण यहां दे रहे हैं ।
प्रश्न : प.पू. डॉक्टरजी ने मुझे आश्रम किसलिए लाया है ?
उत्तर :
अ. अखंडित गुरुसेवा हेतु
आ. गोप-गोपियोंसहित साधकों के सान्निध्य में रहकर सिखने का आनंद लेने हेतु
इ. संतसहवास के सान्निध्य में विद्यमान आनंद लेने हेतु
ई. दोष एवं अहं का भान कराकर साधना में शीघ्र उन्नति हेतु
उ. गुणवृद्धि कर यथाशीघ्र ईश्वर के पास जाने हेतु
ऊ. निरंतर आनंदित रहने हेतु
ए. ‘स्व’ के अस्तित्व को भूलकर जन्म-मृत्यु के चक्र से छूटने हेतु
ऐ. चराचर में विद्यमान भगवान को जानकर लेने सीखने हेतु
ओ. अखंडित आनंद का अनुभव करने हेतु
औ. जन्म-मृत्यु के चक्र से छूटने हेतु
अं. हिन्दू राष्ट्र स्थापना के कार्य में अपना योगदान देने हेतु
२. सकारात्मकता को बढाने हेतु मन से प्रश्न पूछना
दोष एवं अहंपर विजय प्राप्त करने हेतु अपने मन से कुछ प्रश्न पूछने से सकारात्मकता बढने में सहायता मिलती है । इसका यह उदाहरण यहां दे रहे हैं ।
प्रश्न : प.पू. डॉक्टरजी को स्वाती कैसे अच्छी लगेगी ?
उत्तर :
अ. सकारात्मक रहनेवाली (हम मन को यह उत्तर दे सकते हैं कि उसमें जो दोष होगा, उसके विरुद्ध का गुण मुझ में आने से वह प.पू. डॉक्टरजी को अच्छा लगेगा ।)
आ. आत्मविश्वास से युक्त
इ. प्रधानता लेकर, तडप के साथ तथा समर्पित भाव से सेवा करनेवाली
ई. भावपूर्ण एवं परिपूर्ण सेवा करनेवाली
उ. चुकों का मन से स्वीकार करनेवाली तथा निर्मलता से युक्त
ऊ. चूकों से सीखनेवाली
ए. सदैव आनंदित रहनेवाली
ऐ. सभी से निरपेक्ष प्रेम करनेवाली
ओ. दूसरों की मन से सहायता करनेवाली
औ. दूसरों के आनंद में मन से सम्मिलित होनेवाली
अं. अखंड अनुसंधान, कृतज्ञता एवं शरणागत भाव में रहनेवाली.
क. स्थिर एवं अंतर्मुख
स्वयं का नाम तथा स्वयं में जो गुण नहीं है अथवा अल्प मात्रा में है, उसे उपर्युक्त प्रकार से सूत्र में जोडने से वह एक प्रकार से भाव के स्तर की स्वसूचना लेने जैसी लगता है ।
३. मन की नकारात्मकता को दूर करने हेतु मन को योग्य दृष्टिकोण देना
कभी-कभी साधकों में विद्यमान गुणों का अनुभव करते समय ‘मुझ में यह गुण नहीं है’, ऐसा लगकर नकारात्मकता आती है, तो कभी-कभी उनके प्रति जलन भी होती है । यह स्वयं में विद्यमान दोष एवं अहं के कारण दूसरे साधकों से सीखने में उत्पन्न बाधा होती है । ऐसे समय में मन को निम्नलिखित दृष्टिकोण देने से अच्छा लगता है ।
३ अ. साधक एवं संत अध्यात्म विद्यालय के
चलते-बोलते उदाहरण होने से उनके गुणों से लाभ उठाना महत्त्वपूर्ण !
विद्यालय-महाविद्यालय में हम विद्यार्थी होते हैं । वहां हमें परीक्षा का सामना करना पडता है । योग्य उत्तर प्रमाणित होने हेतु हम मार्गदर्शक (गाईड) अथवा सूत्रों का (नोट्स का) उपयोग करते हैं । उससे किसी प्रश्न का उत्तर हमें सरलता से मिलता है, उसके लिए हमें बुद्धि का अधिक उपयोग नहीं करना पडता । उसी प्रकार से अब इस अध्यात्म के विद्यालय में संत एवं साधक तो प्रत्यक्ष चलते-बोलते उदाहरण ही हैं । उनकी योग्य कृतियों से तथा उनके द्वारा दिए जानेवाले यथार्थ दृष्टिकोणों का लाभ उठाकर हमारी बोल-चाल कैसी होनी चाहिए, इसका हमें उत्तर मिल ही जाता है । इसलिए हमें इन सभी में विद्यमान गुणों का लाभ उठाकर सीखना होगा । मन को यह दृष्टिकोण देने से सीकने के विचार से मन सकारात्मक तथा उत्साही बन जाता है ।
३ आ. अध्यात्म के विद्यालय में विद्यमान
दोष एवं अहं के गणितों को भगवान की सहायता से छुडाने
का प्रयास करने से मन का संघर्ष घटकर उत्साह में बढोतरी होती है !
साधना को आरंभ करने से ही हमारे मन की प्रक्रिया आरंभ होती है । आरंभ में ईश्वर विविध प्रसंग घटित कर हम में विद्यमान दोष तथा अहं की तीव्रता का हमें भान कराता है । तब उसका स्वीकार करने में संघर्ष होता है; किंतु ईश्वर धीरे-धीरे ईश्वर ही हमारे मन की सिद्धता करवा लेते हैं । इन बातों का स्वीकार करना आरंभ करनेपर ईश्वर अगले चरण के प्रसंग घटित कर हमें मन की सूक्ष्म स्तर की प्रक्रिया दिखा देते हैं । क्या कभी-कभी हमारे लिए किसी प्रसंग का सामना करना संभव न होने से ईश्वर ऐसा करते हैं ? मन में यह विचार भी आता है कि मैं प्रयास तो कर रहा हूं; किंतु प्रसंग रुकता क्यों नहीं ? विद्यालय में हम पहले छोटे-छोटे गणित छुडाना सीखते हैं । आरंभ में वह भी संभव नहीं होता; किंतु हम निराश न होकर सिखने का प्रयास करते हैं और उसमें विद्यमान आनंद लेने सीखते हैं । उसके पश्चात अगले चरण के कठिन गणित छुडाने होते हैं । अभ्यास के चलते पहले कठिन लगनेवाले गणित छुडाना संभव होने से उसके पश्चात कठिन गणित छुडाने पडते हैं । पहले कठिन लगनेवाले गणित छुडाना संभव होनेपर मन उसमें विद्यमान आनंद लेना सिखता है । यह तो अध्यात्म का विद्यालय है । यहां के गणित अलग होते हैं; किंतु इन गणितों को छुडाने की सीख देनेवाले ईश्वर हमारे साथ हैं । ‘उनकी सहायता से हमें दोष एवं अहं के गणित छुडाने का आनंद लेना है और वही मेरी साधना है ।’, इस प्रकार से विचार करना आरंभ करनेपर मन का संघर्ष न्यून होकर कृती करने का उत्साह बढता है और उससे मन को किसी प्रसंग के शीघ्र बाहर आने में सहायता मिलती है ।
४. प.पू. डॉक्टरजी द्वारा की गई प्रशंसा का स्मरण करना
कृती करते समय प.पू. डॉक्टरजी द्वारा मेरे द्वारा की गई छोटी-छोटी बातों की की गई प्रशंसा तथा उस समय उनके द्वारा कहे गए शब्दों का स्मरण होता है । वास्तव में ‘ईश्वर को लगनेवाली माया के इन बातों की प्रशंसा भी मेरी साधना के लिए ही है’, ऐसा भाव रखने से अखंडित भावानुसंधान के बने रहने में सहायता मिलती है ।
प.पू. भक्तराज महाराज (प.पू. बाबा) भक्तों द्वारा उनके लिए लाए गए पदार्थों की प्रशंसा कर ‘बहुत अच्छा लगा’, ऐसा कहते थे । उसके पश्चात ‘उस भक्त ने कभी भी उस पदार्थ को बनाया, तो उसे प.पू. बाबा का स्मरण हो’, यह उसका उद्देश्य होता था । ऐसा लगता है कि प.पू. डॉक्टरजी भी उसी प्रकार से करते हैं । (जिन साधकों को प.पू. डॉक्टरजी का प्रत्यक्षरूप से सान्निध्य नहीं मिला, वे सदैव यह विचार रखें कि ‘क्या मेरी प्रत्येक वस्तु एवं कृति उन्हें अच्छी लगे, ऐसी है न ?’ उससे हमारा झुकाव सात्त्विकता की ओर बढकर हमारे द्वारा की जानेवाली प्रत्येक कृती भी योग्य प्रकार से होने में सहायता मिलती है तथा अनुसंधान भी बनाए रहता है ।)
५. दिनभर विविध कृतियां करते समय
प.पू. डॉक्टरजी के साथ व्यतित क्षणों का स्मरण करना
प.पू. डॉक्टरजी के साथ बिताए क्षणों का स्मरण कर उससे आनंद प्राप्त करने का प्रयास करती हूं । मुझे प.पू. डॉक्टरजी की सगुण सेवा का अवसर मिलने से उनके सान्निध्य मेरे द्वारा जो जो कृतियां हुईं, उनका स्मरण अब उन्हीं कृतियों को करते समय करती हूं, उदा. कक्ष की स्वच्छता करना, कपडे धोना, उन्हें सुखाना, हस्तप्रक्षालन पात्र की स्वच्छता करना जैसी विविध कृतियां करते समय उन्होंने मुझे कुछ न कुछ बताया ही था, मैं उन प्रसंगों का स्मरण कर उससे आनंद लेती हूं । (जिन्हें ऐसा अवसर नहीं मिला हैं, वे अपनी प्रत्येक कृती प.पू. डॉक्टरजी के लिए ही किए जाने का भाव रखें तथा उस प्रकार की कृती क्या प.पू. डॉक्टरजी को अच्छी लगेगी ?, इसकी ओर ध्यान दें । ऐसा करने से भी उससे आनंद मिलता है ।)
६. प.पू. डॉक्टरजी द्वारा उपयोग की गई
वस्तओं से जुडी उनके स्मरणक्षणों का स्मरण करना
प.पू. डॉक्टरजी के कक्ष में स्थित तथा उनके द्वारा उपयोग की गई नीले रंग की आसंदियां, दर्पण, अलमारी इत्यादि वस्तुएं अब अन्यत्र रखी गई हैं । उनमें से कोई वस्तु दिखनेपर मैं उस वस्तु से जुडे क्षणों का स्मरण करती हूं ।
७. चूकें होनेपर प.पू. डॉक्टरजी द्वारा सिखाए गए सूत्रों का अन्यत्र उपयोग करना
प.पू. डॉक्टरजी के कक्ष में सेवा करते समय मुझसे हुई चूकों का स्मरण कर उस समय उन्होंने जो सिखाया, उन सूत्रों को अन्यत्र भी कैसे लागू किया जा सकता है ?, इसका प्रयास करती हूं । (अपनी प्रत्येक चूक से हमने क्या सीखा, इसकी ओर अंतर्मुखता से ध्यान देनेपर हमें इन सूत्रों का अन्यत्र भी उपयोग करना संभव होता है ।)
८. नित्य जीवन से संबंधित कृतियों के समय प्रार्थनाएं करना
८ अ. स्वयं को दर्पण में देखते समय
हे ईश्वर, मुझे मेरे स्थानपर आपको देखना संभव हो । मेरा मन केवल आप ही के स्मरण में रममाण हो ।
८ आ. कंघी करते समय
हे गुरुदेवजी, आपके पसंद की केशरचना आप ही सिखाएं ।
८ इ. कुंकुम लगाते समय
हे देवी मां, कुंकुम के माध्यम से मुझे आपका तत्त्व ग्रहण करना संभव हो ।
८ ई. पानी पीते समय
हे गुरुदेवजी, ‘यह जल आपका चरणतीर्थ है’, इस भाव से पानी पीना संभव हो । इस तीर्थ से मेरे अंतर्देह की शुद्धि हो ।
८ उ. अल्पाहार एवं महाप्रसाद ग्रहण करते समय
हे ईश्वर, ‘यह आप ही का प्रसाद है’, इस भाव से मुझे यह अन्न आनंद के साथ ग्रहण करना संभव हो । प्रत्येक निवाला लेते समय मुझे नामजपसहित ग्रहण करना संभव हो । प्रसाद से मिलनेवाली शक्ति का उपयोग आपकी चरणसेवा के लिए उपयोग हो ।
८ ऊ. सीढी चढते समय
इस प्रत्येक सीढी को गुरुदेवजी का चरणस्पर्श हुआ है । इसलिए ये सीढीयां कृतज्ञताभाव में हैं । मुझे भी इस भाव का अनुभव करना है, इसके लिए प्रार्थना करें ।
८ ए. सेवा करते समय
हे ईश्वर, मुझ में पात्रता और क्षमता न होते हुए भी इस संकटकाल में भी आपने मेरे लिए गुरुचरणों की सेवा उपलब्ध कराई है, इसके लिए मुझ से यह सेवा अखंडित कृतज्ञताभाव रखकर परिपूर्ण और मन से हो । इस सेवा के माध्यम से मुझ में विद्यमान दोष एवं अहं का निर्मूलन होकर गुणों का संवर्धन हो । यह जीव यथाशीघ्र आपकी अपेक्षा के अनुरूप बने ।
८ ऐ. किसी साधक के दोषों के प्रति मन में विचार आकर बहिर्मुखता बढनेपर
हे गुरुदेवजी, इस जीव में आप गुणों के माध्यम से हैं । मुझे आपकी ओर (गुणरूप में) देखना संभव हो ।
८. ओ. ‘कोई सहसाधक सिखाने की भूमिका में होता है’, ऐसा विचार मन में आनेपर
‘सहसाधक से सीखकर उससे आनंद लेना, यह मेरी साधना है’, इसे ध्यान में लेकर हे गुरुदेवजी, मुझे उनसे आपको जो अपेक्षित है, वह सीखना संभव हो ।
८ औ. दूसरों की बोल-चाल की ओर ध्यान जानेपर
हे भगवान, जिस प्रकार से अर्जुन का ध्यान केवल वृक्षपर स्थित तोतेपर था, उसी प्रकार से भले कोई कैसे भी बताएं, व्यवहार करें अथवा बोले, तब भी मुझे उससे मेरी साधना के लिए आवश्यक बातों की ओर ही ध्यान देना संभव हो । मेरा ध्यान स्थिति और दूसरों की बोल-चाल की पद्धतियों की ओर न जाकर मेरी साधना की ओर ही हो ।
८ अं. दूसरों से अपेक्षा कर उससे चिढचिढाहट होनेपर
प.पू. भक्तराज महाराजजी ने ‘जो दिखेगा, वही कर्तव्य’ की सीख दी; किंतु मुझ सेे वैसा नहीं होता । योग्य कृती करना मेरी व्यष्टि साधना है और उसे दूसरों द्वारा भी ठीक से होने हेतु प्रयास करना, मेरी समष्टि साधना है’, यह भाव रखकर प्रयास करने से साधना में सहायता मिलती है ।
कक्ष में सहसाधिका खानों को ठीक से रखें, नियमितरूप से कक्ष की स्वच्छता करें, जैसी अपेक्षाओं के कारण मुझे से चिढचिढाहट हुई । उस समय मुझे दूसरों से ये अपेक्षाएं न रखकर मुझे स्वयं ही ये सेवाएं करनी हैं, इसका भान होकर मैने उन सेवाओं को करने का प्रयास किया । ‘संकोचीपन’, इस स्वभावदोष के कारण मुझे उनकी चूकें बताना संभव न होने से सहसाधिकाओं को संबंधित सेवाएं करने के लिए कहना, मेरी समष्टि साधना है, इस विचार से संकोचीपन दूर करने में मुझे सहायता हुई ।
८ क. मन में स्वप्रशंसा के विचार आनेपर
हे भगवान, मेरा हंसना, बोलना, चलना, कृतियां करना, ये सब आप ही के कारण होता है तथा वह केवल आप ही के लिए हैं, इसका अखंडित भान रहे । मेरी छोटी सी कृती और हलचल भी आप ही के कारण होती है; इसलिए मुझ में अखंडित शरणागत भाव में रहना संभव हो । मेरा अस्तित्व आप ही के कारण टिका हुआ है । आप नहीं होंगे, तो मेरे होने का कोई अर्थ ही नहीं है । मुझ में विद्यमान आपके अस्तित्व के प्रति मुझ में कृतज्ञता प्रतीत हो । हे भगवान आप ही इस कर्तेपन को नष्ट कर आप में इस जीव का विलय करवा लें !
– कु. स्वाती गायकवाड, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा (२२.१.२०१६)
स्रोत : दैनिक सनातन प्रभात