अनुक्रमणिका
‘सनातन के संतों का अद्वितीयत्व !’
पू. अशोक पात्रीकरजी यवतमाळ (महाराष्ट्र) में शासन के ‘जीवन प्राधिकरण’ विभाग में ‘शाखा अभियंता’ के पद पर कार्यरत थे, तब वर्ष १९९७ में उनका संपर्क सनातन संस्था से हुआ ।
१. सनातन संस्था के संपर्क में आने से पूर्व की जा रही साधना !
‘मुझे बाल्यावस्था से ही पूजा करना तथा भजन गाना अच्छा लगता था; परंतु मैं ईश्वर भक्त नहीं था । मेरी माताजी मुझसे कहती थीं कि ‘मेरा जन्म एक संत के आशीर्वाद से हुआ है।’ माताजी मुझे प्रतिवर्ष रामनवमी को उन संत के दर्शन करने ले जाती थीं, तब भी मैं उन संत की महानता समझ नहीं पाया । मैं शासन के ‘जीवन प्राधिकरण’ विभाग में ‘शाखा अभियंता’ के पद पर कार्यरत था तथा मुझे निरंतर बाहर जाना पडता था । उस समय मुझे ईश्वर के प्रति तीव्र आकर्षण नहीं लगता था; परंतु मेरे परिवार और कार्यालयीन मित्रों के साथ हमने आठ ज्योतिर्लिंगों के दर्शन किए ।
२. सनातन संस्था से संपर्क
मैं नौकरी के निमित्त यवतमाळ में था, तब वर्ष १९९७ में मेरा संपर्क सनातन संस्था से हुआ । उस समय परात्पर गुरु कालिदास देशपांडेजी बताते थे कि ‘कुलदेवता का नामजप करें । नामजप को स्थल, काल और समय का बंधन नहीं है ।’ तब तक मुझे लगता था कि ‘भगवान का कुछ करना हो, तो भगवान के सामने ही बैठना चाहिए ।’ इसलिए सनातन की बात मुझे विशेष लगी और मैंने कुलदेवता का नामजप अधिकाधिक करने का प्रयत्न किया । मैं सनातन के ग्रंथ एवं साप्ताहिक सनातन प्रभात पढता था ।
वर्ष १९९८ में यवतमाळ में मेरी नौकरी को ८ वर्ष पूर्ण होने के उपरांत मेरा स्थानांतरण अमरावती में हुआ । इस कार्यालय में मुझे सवेरे १०.३० से सायंकाल ५.३० तक ही उपस्थित रहना अपेक्षित था । इसलिए ईश्वर की कृपा से शेष समय मैं साधना के लिए दे पाया ।
३. सेवा का प्रारंभ और पूर्णकालिक साधना करने का निर्णय
प्रारंभ में मैं सत्संग में जाता था । तत्पश्चात सेवा भी करने लगा । वर्ष १९९९ में ‘दैनिक सनातन प्रभात’ प्रारंभ हुआ और उसका विदर्भ संस्करण प्रारंभ करना निश्चित हुआ । मुझे संपादकीय विभाग में सेवा के लिए पूछने पर मैंने उसे स्वीकार किया । तत्पश्चात मुझे मिरज में दैनिक सनातन प्रभात की सेवा के लिए जाने का अवसर मिला ।
इस समय मैंने स्वेच्छानिवृत्ति ली और पूर्णकालिक साधना करने का निर्णय लिया । मुझ पर महाविद्यालयीन शिक्षा ग्रहण कर रही मेरी दो पुत्रियों और एक पुत्र का दायित्व था एवं निवृत्तिवेतन के अतिरिक्त अन्य आर्थिक स्रोत नहीं था । इस स्थिति में भी घर के सभी सदस्य साधना में होने के कारण मेरा किसी ने विरोध नहीं किया । मैं जब स्वेच्छानिवृत्ति ले रहा था, तब मेरे मुख्य अभियंता ने मुझे उनके घर बुलाकर मेरी साधना के संबंध में पूछा और मेरी स्वेच्छानिवृत्ति तुरंत स्वीकारकर मुझे निवृत्तिवेतन दिलाने में बहुत सहायता की । तब से आज तक हमें कभी आर्थिक तंगी का अनुभव नहीं हुआ । मुझे आर्थिक सहायता की आवश्यकता पडने पर ईश्वर की कृपा से कहीं से भी उतनी राशि मेरे अधिकोष के खाते में जमा हो जाती है ।
मैं यवतमाळ में था, तब अमरावती का हमारा नया घर खाली था । सनातन प्रभात के कार्यालय के लिए स्थान की आवश्यकता थी । उस समय हमारे (मैं, मेरी पत्नी और पुत्रियां) प्रत्येक के मन में अपने घर में दैनिक कार्यालय प्रारंभ करने का एक साथ विचार आया । मैंने उत्तरदायी साधक को घर अर्पण करने के विषय में बताया और ध्यान में आया कि, ‘बिना किसी चर्चा के ईश्वर ने ही हमारे मन मिलवाए थे । नया घर गुरुदेव के चरणों में अर्पण होना था, इसलिए अभी तक वह खाली था ।’
– (पू.) श्री. अशोक पात्रीकर, अमरावती (२.७.२०१८)
४. जो मिले वह सेवा करना
वर्ष २००२ सेे २००६ तक मैं अमरावती में टंकण, विदर्भ क्षेत्र के ग्रंथ संग्रह की सेवा, दैनिक के लिए वार्ता मंगवाकर भेजना, नागपुर में विधानसभा के समाचार संकलन के लिए जाना आदि जो भी सेवा मिलती थी, वह करता था । वर्ष २००५ में मुझे अमरावती जनपद की सेवा देखने का दायित्व दिया गया । तत्पश्चात दैनिक की सेवा के लिए जलगांव जाने का अवसर मिला । यह सेवा करते समय मुझे साधना में बहुत सी छोटी-छोटी बातें सीखने को मिली । संवाददाता, दैनिक छपाई, वितरण, वसूली तथा दैनिक वितरण आदि सेवाएं मैंने की। ईश्वर की कृपा से मैं कई बार प्रतिकूल परिस्थिति पर भी विजय प्राप्त कर पाया । उस समय मुझे प्रतिदिन सवेरे अल्पाहार तथा कभी-कभी भोजन भी बनाना पडता था । कुछ समय के लिए मुझे जलगांव, नंदुरबार और धुलिया आदि जनपदों में प्रसारकार्य का भी अवसर मिला । उस समय यदि कोई रामनाथी आश्रम से आता था, तब परात्पर गुरु डॉक्टरजी मेरे लिए प्रसाद भेजते थे । उनसे प्रसाद मिलने तक पूर्व में भेजा गया प्रसाद मेरे पास शेष रहता था ।
५. उन्नतों के मार्गदर्शन के कारण चरण-दर-चरण हुई आध्यात्मिक उन्नति !
अभी तक की हुई सेवाओं की फलोत्पत्ति एवं परात्पर गुरु डॉक्टरजी की कृपा के कारण १०.९.२००९ को मेरा आध्यात्मिक स्तर ६० प्रतिशत घोषित किया गया । मैंने आज तक की साधना का सर्वाधिक समय जलगांव में व्यतीत किया । वहां रहने तक मेरा आध्यात्मिक स्तर ६४ प्रतिशत हो गया । मेरा अहं बढने और मेरे द्वारा हुई समष्टि चूकों के कारण वर्ष २०११ में मेरा स्तर नहीं बढा ।
१. तदुपरांत सद्गुरु राजेंद्र शिंदेजी जलगांव आए थे, तब उन्होंने कठोर शब्दों में मेरे स्वभावदोष एवं अहं का मुझे भान करवाया ।
२. तत्पश्चात सद्गुरु (कु.) अनुराधा वाडेकरजी ने मुझे भान करवाया कि मेरा कृतज्ञताभाव अल्प है तथा प्रत्येक नामजप के उपरांत ‘कृतज्ञता’ शब्द का जप करने के लिए कहा । इन दोनों संतों के मार्गदर्शनानुसार परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने मुझसे प्रयत्न करवा लिए ।
३. तब कुछ समय मैं निराश हो गया था । मैंने परात्पर गुरु डॉक्टरजी से पूछा कि ‘मैं क्या करूं ?’, उन्होने मुझे ‘व्यष्टि के लिए भाव और समष्टि के लिए प्रेमभाव’ बढाने हेतु कहा । उनकी कृपा से मैं वैसे प्रयत्न कर पाया ।
फरवरी २०१२ में सद्गुरु (कु.) स्वाती खाडयेजी ने मुझे देवद आश्रम में जाने हेतु कहा । वहां मैंने ग्रंथों से संबंधित संकलन की सेवा की । उस वर्ष मेरा आध्यात्मिक स्तर ६६ प्रतिशत हो गया । अक्टूबर २०१२ से मैं रामनाथी आश्रम में ग्रंथों से संबंधित सेवा कर रहा था । वर्ष २०१३ में मेरा आध्यात्मिक स्तर ६७ प्रतिशत हो गया । परात्पर गुरु डॉक्टरजी की कृपा, संतों के आशीर्वाद और साधकों की प्रीति के कारण १०.५.२०१४ को परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने मेरे संतपद पर विराजमान होने की घोषणा की ।
६. कृतज्ञता
परात्पर गुरु डॉक्टरजी की कृपा से आज हमारा पूर्ण परिवार साधना में है । परात्पर गुरु डॉक्टरजी एक रजोगुणी और पूर्णतः माया में लिप्त एक अभियंता को ४८ वर्ष की आयु में साधना में लाए तथा तब से मेरी उंगली पकडकर मुझे चला रहे हैं । उनके चरणों में कितनी भी कृतज्ञता व्यक्त करूं, अल्प ही है । ‘इस देह का अंत भी गुरुदेव के चरणों में हो’, यही उनके चरणों में प्रार्थना है ।