कर्मयोग के संदर्भ में शंकानिरसन

१. ‘जिसे हृदय ग्लानि नहीं होती, उसे प्रायश्‍चित करने से क्या लाभ ?’, ऐसा प्रतिवाद किया जाता है ।

अ. ‘आपके अंतःकरण को क्या लगता है’, इसका धर्मशास्त्र से कोई भी संबंध नहीं है । अनाचार अथवा पाप धर्मशास्त्र के अनुसार निश्‍चित होता है तथा उस पाप की निष्कृति भी धर्मशास्त्र के संकेतों के अनुसार होती है । – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी’

आ. धर्मकर्म से ही पाप का क्षालन होना : ‘कर्म से ही कर्म नष्ट करना चाहिए । कपडे धोते समय मैल की परतको स्वच्छ करने के लिए उस पर दूसरे मैल का अर्थात साबुन का लेप ही लगाना पडता है । कांच मैली होने पर, उसे मिट्टी से ही घिसना पडता है । उसी प्रकार सत्कर्म, अर्थात शास्त्र के अनुसार विधिनिषेध आदि कर्म करके ही चित्त का मैल, अर्थात पाप धोना होता है । ‘धर्मेण पापमपनुदन्ति ।’, अर्थात धर्म से ही पाप का क्षालन होता है । – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी’

 

२. कानून के अनुसार दण्ड होने पर भी कोई अपराधी वही पाप पुनः क्यों करता है ?

कारागृह से छूटकर आए व्यक्ति को ज्ञात होता है कि उसके तुरंत पुनः पकडे जाने की संभावना ५ प्रतिशत ही है । शेष ९५ प्रतिशत बार तो वह पकडा नहीं जाता । उस समय कई गुना अधिक भौतिक सुख का उपभोग करता है; इसलिए वह पुनः अपराध करने का साहस करता है । दंड बहुत कठोर हो, उदा. चोरी करने पर हाथ तोड देना, तो वह चोरी करने का साहस ही नहीं करेगा । मात्र ऐसे में वह किसी दूसरी पद्धति से लोगों को फंसाने का प्रयत्न करेगा । उसे इस बात का भान नहीं होता कि ‘पुलिस को चकमा दिया, फिर भी निसर्ग के नियमानुसार आज नहीं तो कल हमें इस कर्म का फल भुगतना ही पडेगा’ । संक्षेप में, अज्ञानी होने के कारण वह ऐसे कर्म करने के लिए उद्युक्त होता है ।
इच्छा, लालसा, तिरस्कार, आसक्ति, अपेक्षा, क्रोध, लोभ, अहंकार, मत्सर एवं द्वेष, ये सर्व पाप कर्म के मूल कारण हैं । पापकर्म का मूल इसी अज्ञानता में है । दण्ड एवं प्रायश्‍चित से कर्मबीज और पापवासनाएं दूर नहीं होती; अतएव अज्ञानता दूर करना ही वास्तविक उपाय है ।

 

३. चाकरी में (नौकरी में) घूस लेना पडता है ।
न लेने पर ऊपर के एवं नीचे के लोग (वरिष्ठ एवं कनिष्ठ श्रेणी के लोग)
बहुत कष्ट देते हैं । ऐसे में मन को बहुत कष्ट होता है । इसके लिए क्या करें ?

चरण १ : यह एक जटिल सामाजिक प्रश्‍न है । ऐसे समय में हो सके तो नौकरी छोडकर स्वतंत्र व्यवसाय आरंभ करें; परंतु यह सभी के लिए संभव नहीं होता । जो यह नहीं कर सकते, उन्हें यह पैसा किसी धार्मिक संस्था को दान दे देना चाहिए । यह १०० प्रतिशत उचित उपाय नहीं है, केवल ७५ प्रतिशत ही उपाय है, यह मुझे ज्ञात है; परंतु इस पर दूसरा उपाय नहीं है ।

चरण २ : अखंड नामजप हो, तो ‘पैसे खाना, घूस लेना’, ऐसा कुछ होता ही नहीं; क्योंकि उस समय अकर्म कर्म हो चुका होता है ।

संदर्भ : सनातन निर्मित ग्रंथ ‘पापों के दुष्परिणाम दूर करने के लिए प्रायश्‍चित’

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