जिन पातकों के लिए स्मार्त धर्मशास्त्र में प्रायश्चित बताए गए हैं, वे निम्नानुसार हैं ।
अ. निषिद्ध बातों का आचरण
१. अभोज्यान्नसेवन (जिसका सेवन नहीं करना चाहिए उसका सेवन करना, उदा. मांसभक्षण, मदिरापान), अशुचि-अन्नसेवन (अपवित्र अन्न का सेवन), श्राद्धान्नभोजन आदि ।
२. निषिद्ध पदार्थों का विक्रय, ऋण न चुकाना, काले धन का लेन-देन इत्यादि ।
३. स्वार्थ
केवल अपना विचार करना । स्वार्थको महापाप माना जाता है ।
४. जुआ खेलना, मिथ्या साक्षि देना, मिथ्या आरोप लगाना, चौर्यकर्म (चोरी करना) इत्यादि ।
५. अगम्यागमन (परस्त्रीसमागम), व्यभिचार, कन्यादूषण अर्थात (अपनी) पुत्री के विषय में विकारी (बुरे) विचार, बलात्कार (बलात्कार करने में पाप है; परंतु वैश्यागमन में पाप नहीं है; क्योंकि वह किसी वस्तुको क्रय करने समान है । उसमें दोष यह है कि वह वासना वृद्धि में सहायक है ।), पशुगमन (पशु के साथ संबंध रखना) आदि ।
६. हिंसा, गौहत्या, पशुहत्या, आत्महत्या इत्यादि ।
७. शरणागत से विश्वासघात करना, यह अति उग्र पातक है ।
८. ‘कलियुग में वर्जित बातों का आचरण करना
‘धर्मशास्त्रकारोंने कलियुग में आगे दिया आचरण ‘वर्जित’ बताया है – साधुओं का सभी वर्णियों से भिक्षा मांगना, सम्माननीय व्यक्ति के आगमनपर उसके भोजन हेतु गाय अथवा बैल मारना, शूद्रों द्वारा पकाया अन्न ब्राह्मणों द्वारा वैश्वदेवको अर्पण या ग्रहण करना, नरमेध/अश्वमेध करना, अंतर्जातीय अथवा फुफेरी/ममेरी बहन से विवाह करना, त्रैवर्णिकों द्वारा मादक पेय पीना, अत्याचारी ब्राह्मण का वध करना, सपिंड एवं सगोत्र कन्या से विवाह करना, देहपाततक (अंततक) महाप्रस्थान करते रहना, ब्राह्मणों का यज्ञ में पशु-हत्या करना, सोमविक्रय करना, फूंकनी के बिना मुंह से फूंककर अग्नि जलाना, बलात्कार आदि दूषित स्त्रियोंको जाति में लेना, मधुपर्क में गौवध करना, मांस श्राद्ध करना आदि ।’
आ. भ्रूणहत्या महाभयंकर पाप है ।
इ. देवता, गुरु एवं देवालय के द्रव्य का दान,
अयोग्य व्यय तथा अपहार के कारण पाप लगता है ।
ई. धर्मयुद्ध से भाग जाना, पाप का भागीदार होना है ।
श्रीकृष्णने गीता में कहा है, ‘हे अर्जुन, धर्मयुद्धको पीठ दिखाओगे, तो धर्म और कीर्ति तो नष्ट होगी ही, तुम भी पाप के सहभागी बनोगे; इसलिए युद्ध के लिए सिद्ध हो जाओ और युद्ध करो ।’
उ. सनातन (हिन्दू) धर्म का नाश होते हुए शांत बैठनेवाला पाप का भागीदार होता है !
सूतऋषि कहते हैं – हे विद्वानो, सनातन हिंन्दू धर्म की स्थापना के लिए अथक प्रयास करने चाहिए । सनातन वैदिक हिन्दू धर्म स्थिर होते ही सबकुछ स्थिर और ऐश्वर्यसंपन्न होगा । किसी के मन में प्रश्न उठ सकता है कि, ‘बुरे कर्म में ईश्वरेच्छा कैसे हो सकती है ?’ इसका उत्तर यह है कि, हिंसा बुरा कर्म है; परंतु समाजको कष्ट देनेवाले दुर्जन के साथ हिंसाचार बुरा कर्म नहीं है । अर्थात इस प्रकार की हिंसा, ‘हिंसा’ के अर्थ से प्रमाणित होती है, फिर भी ‘धर्म की दृष्टि सेे’ वह अहिंसा है; अपितु वह पुण्यकर्म ही है । ईश्वरेच्छा समझकर तथा धर्मकर्तव्य समझकर इस प्रकार की हिंसा करनेवालेको पाप नहीं लगता ।