साधना कर पुण्य बढाने का महत्त्व

१. कर्म कैसे करें ?

मनुष्यजन्म कर्मयोनि है । कर्म करना अथवा न करना इच्छा पर निर्भर नहीं है । वह नियति तथा प्रकृति के अधीन है । जब तक देह है, भूख-प्यास है, तब तक कर्म करने ही पडते हैं ।

 

२. कर्मों के विषय में पालन करने योग्य सर्वसामान्य नियम

अ. प्रत्येक कर्म एवं विचार शास्त्रसम्मत अथवा साधु-संतों द्वारा बताए गए आचरण की चौखट में ही होने चाहिए ।

आ. धर्मद्वारा निषिद्ध कर्मों से बचें, उदा. मद्यपान करना, चोरी करना । ये कर्म करने से पाप लगता है ।

इ. प्रत्येक को अपने वर्ण एवं आश्रम के अंतर्गत धर्म में बताए गए अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए ।

 

३. अन्यों से संबंध आने पर कर्म कैसे करें ?

अ. अन्यों को अपने कारण भूल से भी कष्ट अथवा दुःख हो, ऐसा कोई भी कर्म न करें ।

आ. स्वयं की आध्यात्मिक उन्नति हेतु साधना अथवा सत्कृत्य करते समय अपने कारण अन्यों की उन्नति में किसी प्रकार की बाधा न आए, इसका ध्यान रखें ।

इ. स्वयं के अच्छे कृत्य से अन्यों की सहायता एवं मार्गदर्शन करें ।

ई. अपने से उन्नत लोगों से भेंट होने पर आनंदित होकर उनके अनुरूप बनने का प्रयत्न करें । अपने से कनिष्ठ लोगों के प्रति संवेदनशील रहते हुए उनकी सहायता करें, उन्हें आधार देने का प्रयत्न करें । दैनिक जीवन में जिन लोगों से हमारा नित्य संपर्क होता रहता है, उनके साथ मित्रता तो अवश्य रहे; परंतु सभी से मैत्रीभाव हो तो अति उत्तम ।

 

४. पुण्य बढाने का महत्त्व

१. पुण्य-संचय शेष हो, तबतक लोगों से आदर-सम्मान, अपार प्रेम और कीर्ति मिलती है ।

२. व्यक्ति जगभर में कहीं भी चला जाए, उसे सर्व प्रकार की सुविधाएं प्राप्त होती हैं । अपरिचित प्रांत में व्यक्ति के पास पैसे न हों, फिर भी अथवा वहां की भाषा ज्ञात न होते हुए भी व्यक्ति के भोजन, निवास की उत्तम व्यवस्था होती है ।

३. सुख भोगते समय ईश्‍वर के बैंक का पुण्य घटने के कारण पुण्य-संचय बढाते रहने के लिए प्रतिदिन प्रयत्न (साधना) करना आवश्यक – इस काल के अत्याधुनिक सुविधाओं में एक सुविधा है, ‘क्रेडिट कार्ड’ । इसके अंतर्गत ‘बैंक में निश्‍चित राशि भरनेपर आपको क्रेडिट कार्ड मिलता है एवं उस क्रेडिट कार्ड की सहायता से पूरे विश्‍व में कहीं भी आपके लिए पैसे की व्यवस्था होती है और आप इस सुविधा का उपभोग कर सकते हैं । व्यावहारिक जीवन के इस क्रेडिट कार्ड के समान ही ईश्‍वर के बैंक का क्रेडिट कार्ड अर्थात व्यक्ति द्वारा अर्जित किया गया पुण्य । व्यक्तिने अपने पूर्वजन्मों में जो कुछ अच्छे कर्म, परोपकार एवं दानधर्म किए होंगे, उसका फल पुण्य के रूप में एकत्र होता है और वह आपको अगले जन्म में सुख के रूप में मिलता है । यह सुख भोगते समय व्यक्ति का पुण्य घटता जाता है । इसलिए पुण्य-संचय निरंतर बढाते रहना चाहिए । इसके लिए साधना करना ही आवश्यक है ।

 

५. दानधर्म एवं परोपकार का महत्त्व

चिकित्सक आवश्यक सेवाशुल्क ही लेकर रोगियों की शुश्रूसा करें एवं पुण्य कमाएं

‘रोगियों की शुश्रूसा करना’ चिकित्सकों का पुनीत धर्म है । ऐसा करने से चिकित्सकोंको पुण्य प्राप्त करने का बडा अवसर उपलब्ध होता है । जो व्यक्ति स्वार्थी होते हैं, दानधर्म एवं परोपकार नहीं करते, ऐसे व्यक्तियों की बुद्धिपर कालांतर से अनिष्ट शक्तियां अपना प्रभाव डालती हैं । कुछ काल उपरांत ऐसे व्यक्ति की बुद्धि अनिष्ट शक्तियों के अधीन हो जाती है । ये व्यक्ति अनिष्ट शक्तियों की तालपर नाचने लगते हैं । ऐसे व्यक्ति स्वार्थी, निरंतर असंतुष्ट एवं अशांत बनते हैं एवं मृत्यु के उपरांत ऐसे व्यक्ति स्वयं ही अनिष्ट शक्तियां बनते हैं । ऐसे व्यक्तियों के कुलको आगे अनेक वर्षोंतक दरिद्रता आती है ।

 

६. पुण्य का फल ईश्‍वरको अर्पण करने के लाभ

१. अपने पुण्य का फल जब हम ईश्‍वरको अर्पण करते हैं, उस फल का त्याग करते हैं, तब हमारा आध्यात्मिक स्तर बढता है ।’ – डॉ. वसंत बाळाजी आठवले (परात्पर गुरु डॉ. जयंत बाळाजी आठवलेजी के ज्येष्ठ बंधु), चेंबूर, मुंबई. (वर्ष १९९०)

२. पुण्यकर्म गुप्त रखें : अपने द्वारा किए पुण्य की अकारण चर्चा करने से पुण्य नष्ट हो जाता है ।

 

७. पाप-पुण्य के परे जाने के लिए साधना आवश्यक !

जीव को पाप-पुण्य लगने का मूल कारण जीव का अहं ही है । विविध योगमार्गों के अनुसार अहं दूर किया जा सकता है । नामसंकीर्तनयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, गुरुकृपायोग, इन विविध योगमार्गों के अनुसार पाप-पुण्य के परे कैसे जा सकते हैं, इसके संदर्भ में जानकारी ‘कर्मयोग’के एक अन्य ग्रंथ में दी है ।

संदर्भ : सनातन निर्मित ग्रंथ ‘पुण्य-पाप के प्रकार एवं उनके परिणाम’

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