१. शुद्ध पुण्य एवं अशुद्ध पुण्य
ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं, ‘शास्त्रविहित यज्ञयागादिक जैसे पुण्य भी पाप ही हैं’ । – श्री ज्ञानेश्वरी, अध्याय ९, पंक्ति ३१६
वास्तव में पुण्य भी तो पाप के समान ही है; क्योंकि पुण्याचार के कारण स्वर्ग में जाने के उपरांत पुण्य क्षीण होनेपर मर्त्यलोक में आना पडता है । पापाचार के कारण नरक में जानेपर भोग समाप्ति उपरांत पुनः मर्त्यलोक में जन्म होता है । एक स्वर्ण की बेडी, तो दूसरी लोहे की; परंतु दोनों बेडियां (बंधन) ही हैं । इसलिए इसपर उपचार यह है कि जपतपयज्ञ आदि कर्म भी ईश्वरप्राप्ति के लिए फलासक्ति बिना कर्तव्य समझकर करें । इससे मेरी (ईश्वर की) प्राप्ति होती है । इसे ही शुद्ध पुण्य कहते हैं ।
२. मन, वाणी और शरीर के पुण्यकर्म
२ अ. मन के तीन शुभकर्म
१. दूसरे के द्रव्य की अभिलाषा न होना
२. सभी के लिए शुभ चिंतन
३. भगवान तथा शास्त्रपर विश्वास रखना (आस्तिक होना)
२ आ. वाणी के चार शुभकर्म
१. मृदु-मधुर बोलना
२. सत्य बोलना
३. निंदा न करना
४. शास्त्रशुद्ध सुसंगत बोलना
२ इ. शरीर के तीन पुण्यकर्म
१. परोपकार करना
२. किसीको पीडा न देना
३. धर्मपत्नी से एकनिष्ठा’ – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी (३)