संगणकसे खेलते (संगणकपर सेवा करते) समयका चित्र
भक्तिभावकी तरंगें सेवाभावयुक्त दास्यभक्तिमय आंतरिक सान्निध्य
चित्र-रचनाकी पृष्ठभूमि
१. जब एक साधिकाने पूछा, ‘सेवा करते समय कैसा भाव रखती हो’,
तब उसे यह बताना, ‘हम श्रीकृष्णके अज्ञानी बालक हैं और उनकी
गोदमें बैठकर संगणकके साथ खेल रहे हैं तथा वे ही हमसे संगणकपर कुछ करवा रहे हैं’
‘पिछले सप्ताह मैं एक साधिकाके घर पंचांग और ग्रंथके संदर्भमें सेवा करने गई थी । सेवा करते समय उन्होंने मुझसे पूछा, ‘आप क्या भाव रखकर सेवा करती हैं ?’ तब मैंने उत्तरमें बताया, ‘ऐसा भाव रखते हैं कि हम भगवान श्रीकृष्णके बालक हैं और उनकी गोदमें बैठकर संगणकके साथ खेल रहे हैं । मैंने उन्हें बताया कि मैंने यह भाव रखा, ‘हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है ।’ तब भी श्रीकृष्ण ही हमसे संगणकपर कुछ करवा रहे हैं और तदुपरांत एक अभिमानी पिताके समान ‘बहुत अच्छे’ कहकर प्रशंसा भी कर रहे हैं ।’
२. चित्र बनाते समय प.पू. डॉक्टरजीको
‘सगुणसे निर्गुणकी ओर’ जाना अपेक्षित है, ऐसा ध्यानमें आना
आज मैं उपर्युक्त प्रसंगका चित्र बनानेका प्रयत्न कर रही थी; परंतु वह मुझसे ठीकसे नहीं बन पा रहा था । तदुपरांत मैंने वह चित्र दूसरी पद्धतिसे बनाया । उस समय मुझे बोध हुआ कि ‘प.पू. डॉक्टरजीको मुझसे बालभाव रखनेके साथ मेरा सगुणसे निर्गुणकी ओर जाना भी अपेक्षित है ।’
– श्रीमती उमा रविचंद्रन्, चेन्नई (१९.८.२०१२)
चित्रकी विशेषता
संगणकके सामने बैठकर सेवा करती चित्रकी बालभावयुक्त
साधिकाके हवामें लटकते पैरोंसे उसकी सहजावस्था प्रकट होना
‘संगणकके सामने बैठकर सेवा करती बालभावयुक्त साधिकाकी सहजावस्था उसकी देहभाषासे भी प्रकट हो रही है । जब हम सहजावस्थामें होते हैं, हमारे पैर सहजगतिसे हिलते हैं । ठीक उसी अवस्थामें हिलते हुए पैर वैसे ही हवामें लटकाकर यह बालभावयुक्त साधिका भगवान श्रीकृष्णका स्मरण करते हुए सेवा कर रही है, इस चित्रसे ऐसा ही स्पष्ट हो रहा है । इसीसे यह स्पष्ट होता है कि इस बालभावयुक्त साधिकाका देहबोध भी अल्प है ।’ – पू. (श्रीमती) अंजली गाडगीळ, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (१२.९.२०१२)