इस स्तंभ के माध्यम से हमारे पाठकों को प्रयागराज का स्थलदर्शन, कुंभपर्व में सहभागी विविध अखाडों, उनकी पेशवाई शोभायात्राएं, संत-महंतों के दर्शन, त्रिवेणी संगमपर भक्तिभाव से स्नान करने आए हिन्दुओं के मुखमंडलोंपर विद्यमान उत्कट भाव, हिन्दू धर्म की ख्याति सुनकर सातसमुद्रपार कर आनेवाले विदेशी लोगों का कुंभ में सहभाग आदि का छायाचित्रण तथा इस विषय में विशेषतापूर्ण जानकारी देने का हमारा प्रयास रहेगा । इससे पाठकों को हिन्दू धर्म का अनन्यसाधारण महत्त्व तथा साधना क्यों आवश्यक है ?, यह समझ में आ जाएगा । इस स्तंभ के कारण आपको घरबैठे भक्तिभाव का तनिक अनुभव निश्चितरूप से होगा; किंतु ऐसा होते हुए भी आगामी संकटकाल में केवल साधना ही हमारी तारणहार सिद्ध होगी, यह निश्चित है !
दर्शनात्तस्य तीर्थस्य नामसंकीर्तनादपि ।
मृत्तिकालम्भनाद्वापि नरः पापात्पमुच्यते ॥
– मत्स्यपुराण, अध्याय १०४, श्लोक ११
अर्थ : तीर्थराज प्रयाग के दर्शन करना, वहां नामजप करना और वहां की मिट्टी को स्पर्श करने से मनुष्य पापों से मुक्त हो जाता है ।
१. पुण्यकारक
कुंभपर्व अत्यंत पुण्यकारी होने के कारण इस पर्व में प्रयाग, हरद्वार (हरिद्वार), उज्जैन एवं त्र्यंबकेश्वर-नासिक में स्नान करने से अनंत पुण्यलाभ मिलता है । इसीलिए करोडों श्रद्धालु और साधु-संत यहां एकत्रित होते हैं ।
अ. कुंभपर्व के समय में अनेक देवी-देवता, मातृका, यक्ष, गंधर्व और किन्नर भी भूमंडल की कक्षा में कार्यरत होते हैं । साधना करने से इन सभी से आशीर्वाद प्राप्त कर अल्प कालावधि में ही हमारी कार्यसिद्धि होती है ।
आ. गंगा, यमुना, सरस्वती, गोदावरी एवं क्षिप्रा इन नदियों के क्षेत्र में कुंभपर्व होता है । नदी के पुण्यक्षेत्र में निवास करनेवाली अनेक देवताएं, पुण्यात्मा, ऋषिमुनी एवं कनिष्ठ गण भी इस कालावधि में जागृत होने से उनके आशीर्वाद प्राप्त होने में भी सहायता मिलती है ।
इ. इस काल में किए गए पुण्यकर्म की सिद्धि अन्य काल में किए गए पुण्यकर्म की अपेक्षा अनंतगुना होने से अधिक होती है । इस काल में कर्म के लिए कृती पूरक होती है, तो कृति को कर्म की सहमति मिलती है ।
ई. कुंभपर्व के काल में सर्वत्र आपतत्त्वदर्शक पुण्यतरंगों का भ्रमण होने से मनुष्य के मन की शुद्धि होकर उसमें उत्पन्न होनेवाले विचारों के माध्यम से कृति भी फलीभूत होती है, अर्थात कृती और कर्म, ये दोनों भी शुद्ध हो जाते हैं ।
– एक विद्वान (सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी द्वारा किया गया लेखन ‘एक विद्वान’ नाम से प्रसिद्ध है ।
२. पापक्षालक
पवित्र तीर्थस्थान में स्नान कर पापक्षालन के उद्देश्य से अनेक श्रद्धालु कुंभक्षेत्र में स्नान करते हैं ।
३. गंगास्नान
इस कुंभपर्व के समय में प्रयाग (गंगा), हरद्वार (गंगा), उज्जैन (क्षिप्रा) एवं त्र्यंबकेश्वर-नासिक (गोदावरी) के तीर्थों में गंगा गुप्त रूप से निवास करती है । कुंभपर्व में किया जानेवाला स्नान धार्मिक दृष्टि से विशेष लाभकारी होने से श्रद्धालु और संत कुंभपर्व में स्नान करते हैं ।
कुंभपर्व में स्नान करने से १ सहस्र अश्वमेध, १०० वाजपेय तथा पृथ्वी की १ लाख परिक्रमा का पुण्य मिलता है, साथ ही १ सहस्र कार्तिक स्नान, १०० माघ स्नान तथा नर्मदापर किए गए १ कोट वैशाख स्नान जितना एक कुंभस्नान का फल है ।
३ अ. कुंभपर्व के समय सत्पुरुषों द्वारा स्नान किए जाने का कारण
कुंभपर्व के समय में सत्पुरुष गंगा में स्नान करते हैं; क्योंकि उस समय दूसरों के स्नान के कारण अशुद्ध बन गंगा सत्पुरुषों में विद्यमान शक्ति के कारण शुद्ध हो जाती है ।
३ आ. कुंभक्षेत्र तथा गंगा नदी का एक दूसरे के साथ का संबंध
१. प्रयाग एवं हरद्वार के कुंभपर्व प्रत्यक्षरूप से गंगाजी के तटपर ही होते हैं ।
२. त्र्यंबकेश्वर-नासिक का कुंभपर्व गोदावरी नदी के तटपर होता है । गौतमऋषीजी गंगा को गोदावरी नाम से त्र्यंबकेश्वर-नासिक क्षेत्र में ले आए । ब्रह्मपुराण में विंध्य पर्वत के उस पार की गंगाजी को गौतमी (गोदावरी) के नाम से जाना जाता है, ऐसा कहा गया है ।
२. उज्जैन का कुंभपर्व क्षिप्रा नदी के तटपर होता है । यह उत्तरवाहिनी पवित्र नदी जिस स्थानपर पूर्ववाहिनी बन जाती है उसका, इस स्थानपर प्राचीन काल में एक बार गंगाजी से मिलन हुआ था । आज वहां गणेश्वर नामक लिंग है, साथ ही स्कंदपुराण में क्षिप्रा नदी को गंगा नदी माना गया है । इस प्रकार से सभी कुंभक्षेत्रों का इतिहास गंगा नदी से संबंधित है ।
३ इ. कुंभपर्व के स्थानपर जलप्रवाह में स्नान करने से शरीर से ईश्वरीय ऊर्जा प्रवाहित होना
कुंभपर्व का संबंध खगोला एवं भूगोल के साथ है । कुंभपर्व में विद्यमान ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति के कारण जो वैज्ञानिक ऊर्जा उत्पन्न होती है, वह कुंभपर्व के स्थानपर विद्यमान जलप्रवाहन में प्रवाहित होती है । ऐसी नदी के प्रवाह में स्नान करने से उस जलस्पर्श से वह ईश्वरीय ऊर्जा हमारे शरीर से प्रवाहित होने लगती है ।
४. पितृतर्पण
गंगाजी का प्रयोजन ही मूलतः पूर्वजों को मुक्ति दिलाना है । इसलिए कुंभपर्व में गंगास्नानसहित पितृतर्पण की धर्माज्ञा है । वायुपुराण में कुंभपर्व को श्राद्धकर्म के लिए उपयुक्त बताया गया है ।
५. संतसत्संग
कुंभपर्व में भारत के विविध पीठों के शंकराचार्य, १३ अखाडों के साधु, महामंडलेश्वर, शैव एवं वैष्णव सांप्रदायी, अनेक विद्वान, संन्यासी और संतमहात्मा एकत्रित होते हैं । इसलिए कुंभपर्व का स्वरूप अखिल भारतवर्ष के संतसम्मेलन जैसा भव्यदिव्य होता है । कुंभपर्व के कारण श्रद्धालुआें को संतसत्संगती का सबसे बडा अवसर उपलब्ध होता है ।