प्रस्थापित अखाडों का अनुमान चूक गया
उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में चल रहे महाकुंभपर्व में अंततः किन्नर अखाडे का नागा संन्यासी साधुओं के जूना अखाडे में विलय हुआ । उसके पश्चात जूना अखाडे के संत-महंतों के जत्थे के साथ किन्नर अखाडे के किन्नरों ने अमृतकुंभ स्नान किया । उज्जैन में संपन्न सिंहस्थ कुंभपर्व में किन्नर अखाडे की स्थापना की गई थी । ये अखाडे तो विविध स्थानों के साधु-संत, संन्यासी और आचार्यों का वर्गीकरण तथा सुसूत्रीकरण की एक व्यवस्था है । सनातन हिन्दू धर्म का आचरण, उपासना, प्रसार तथा रक्षा, यह मुख्यरूप से अखाडों के साधुओं का जीवनकार्य होता है । हाल ही में स्थापित किन्नर अखाडे में यह प्रमुख कार्य कितनी मात्रा में होता है, यह एक शोध का विषय है । अखाडे में सहभागी होने के लिए सनातन हिन्दू धर्म की जीवनपद्धति के प्रति निष्ठा एक प्रमुख मापदंड होता है; किंतु अखाडे में स्थान नहीं मिला, तो हम इस्लाम का स्वीकार करेंगे, यह किन्नरों द्वारा दी गई चेतावनी का व्यर्थ भय रखकर उनके लिए सनातन धर्मनिष्ठता का मापदंड न लगाकर किन्नरों को जूना अखाडे में अंतर्भूत करा लेना, इसे मार्ग से भटका हुआ कदम कहना पडेगा !
जो एकनिष्ठ नहीं हैं, उनका कैसा अखाडा ?
हिन्दू धर्म ने कभी भी एक व्यक्ति के रूप में किन्नर समुदाय की उपेक्षा नहीं की, इसके विपरीत किन्नरों के आशीर्वाद को फलदायक माना है; किंतु इस समुदाय के लोगों के अनुचित आचरण के कारण, साथ ही अन्य समुदाय की अशिक्षितता के कारण आजकल किन्नरों की ओर देखने की दृष्टि कुछ अलग है, यह वास्तविकता है । हिन्दू धर्म ने कभी किसी को मनुष्यजीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्षपद का अधिकार अस्वीकार नहीं किया । अनादि काल से किन्नरों का सामाजिक अस्तिव है । किन्नरता शरीर से संबंधित है, तो संतपद अध्यात्म के अधिकार से संबंधित है । ‘मैं किन्नर हूं’, इस परिचय को भूल जानेपर व्यक्ति संत बन जाता है । अतः किन्नर समुदाय का कोई आध्यात्मिक अधिकारवाला कोई व्यक्ति किसी अखाडे में सहभागी हो गया, तो उसके लिए किसी आपत्ति का कोई कारण नहीं है; किंतु जब मूलतः आज के किन्नर अखाडे की रूपरेखा ही जब लोकेषणा और प्रसिद्धि का लालच इनपर आधारित है । ऐसे किन्नर अखाडे को जिसे सैकडों वर्षों की धर्मपालन की परंपरा हो, ऐसे प्रचलित जूना अखाडे में अंतर्भूत करवा लेना दुर्भाग्यजनक है । इससे क्या साध्य होगा, यह प्रश्न है । इस विलय के कारण किन्नर समुदाय कट्टर हिन्दू बनेगा अथवा इसके अखाडों का ही अवमूल्यन होगा ? किसी अखाडे में अंतर्भूत होना हो, तो आप को साधु-संत, बैरागी अथवा आचार्य होना आवश्यक है; किंतु आज के अधिकांश किन्नर इस श्रेणी में नहीं आता, तो उनके लिए अलग अखाडा किसलिए ? जिन लोगों को धर्म की अपेक्षा पद और प्रसिद्धि ही बडी लगती है और उसके लिए जो लोक धर्म को छोडने की भी चेतावनी देते हैं, उन्हें धर्मनिष्ठ हिन्दू कैसे कहा जा सकता है ?
जन्म से हिन्दू अनेक किन्नरोंपर आजकल इस्लाम का प्रभाव है । उनमें से अनेक लोग नमाज भी पढते हैं । ‘वे इस्लाम के मार्गपर न जाएं’, यह जूना अखाडे के साधु-संतों की प्रामाणिक इच्छा है, तो स्वतंत्र किन्नर अखाडे के लिए स्वीकृति, महामंडलेश्वर, महंत आदि उपाधियां इस प्रकार के भौतिक अथवा धार्मिक लालच न दिखाकर साधु-संतों को इन समुदाय के लोगों में धर्मनिष्ठा जगाने का कार्य करना चाहिए । पात्रता और अखाडों के नियमों के अनुसार ही उन्हें अखाडों में अंतर्भूत कर लेना चाहिए । क्या आजकल के किन्नरों द्वारा सनातन धर्म की रक्षा का कार्य प्रामाणिकता के साथ हो सकता है ?, इसके परीक्षण के बिना ही उन्हें अखाडे में प्रवेश दिया गया, तो जिस गति के साथ किन्नर अखाडे का जूना अखाडा में विलय हुा, उसी गति से वह बाहर तो नहीं जाएगा अथवा वह अखाडा व्यवस्था को बाधित नहीं करेगा, इसका क्या आधार है ?
क्या यह स्वीकार्य है ?
किन्नर अखाडे की महामंडलेश्वर लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी समलैंगिक संबंधों की कट्टर समर्थक हैं । उन्होंने अपने एक वक्तव्य में कहा था कि प्रत्येक महिला को रावण जैसे भाई की आवश्यकता होती है । महिला-पुरुष समानता के नामपर उन्होंने कई बार भारतीय संस्कृति की आलोचना की है । उनका व्यक्तिगत जीवन में हिन्दू धर्म को अपेक्षित इस प्रकार का संयमित नहीं, अपितु उच्छृंखल है । सामाजिक संकेतस्थलोंपर विद्यमान उनके छायाचित्रों से भी वह दिखाई देता है । टैटू और पाश्चात्त्य वेशभूषा को अपना गौरव माननेवाली त्रिपाठी हिन्दू धर्म का क्या कार्य करेंगे ? इस अखाडे के संस्थापक अजय दास ने ‘विवाह : एक नैतिक बलात्कार’ नामक विवादित पुस्तक लिखा है । ऐसे व्यक्ति यदि इस अखाडे के प्रमुख हैं, तो ऐसे अखाडों द्वारा सनातन हिन्दू धर्म के उत्थान का कार्य होगा अथवा अधःपात का कार्य होगा, यह बताने के लिए किसी विशेषज्ञ की आवश्यकता नहीं है । कुल मिलाकर किन्नर अखाडे का निर्देशन ही सनातन हिन्दू धर्म के लिए अस्वीकार्य तत्त्वों के आधारपर हो रहा है । क्या किन्नरों को धार्मिक साधु के रूप में समा लेनेवाले जूना अखाडे के संत-महंत, साथ ही अखाडा परिषद को किन्नर अखाडे के इन प्रमुखों के विचार स्वीकार्य हैं ? वे केवल अन्य पंथ में न चले जाएं; इसके लिए क्या हिन्दू धर्म में ऐसे बेकार लोगों की संख्या बढाने से हिन्दू धर्म सशक्त बनेगा ? इसका उत्तर महाभारत में मिलता है । धर्मयुद्ध में संख्याबल की नहीं, अपितु आध्यात्मिक बल एवं ईश्वरभक्ति की ही विजय होती है । इस किन्नर प्रकरण में प्रस्थापित अखाडों का अनुमान चूक गया, ऐस ही कहना पडेगा ।
– श्री. चेतन राजहंस, राष्ट्रीय प्रवक्ते, सनातन संस्था.