कुंभदर्शन
१. कुंभक्षेत्र में १० सहस्र से भी
अधिक छोटे-बडे अन्नछत्र निरंतर कार्यरत !
१५ जनवरी को मकर संक्रांति के दिन कुंभपर्व का पहला राजयोगी स्नान संपन्न हुआ । गंगातटपर स्नान के लिए श्रद्धालुओं की भीड उमडी थी । सिरपर बैग लेकर ग्रामीण क्षेत्र से आए जनसमूह स्नान के लिए दोपहर से ही आ रहे थे । इतने बडे जनसमुदाय को कुंभक्षेत्र में आते समय अपने पेट की चिंता करने की आवश्यकता नहीं होती; क्योंकि यहां विविध साधु-संतों द्वारा निरंतर एवं निस्वार्थभाव से चलाए जा रहे अन्नछत्र ! यहां लगभग १० सहस्र से भी अधिक छोटे-बडे अन्नछत्र चल रहे हैं । प्रत्येक अन्नछत्र के बाहर सुबह से ही चाय, अल्पाहार, दोपहर का भोजन, सायंकाल को मिठाई और दूध तथा रात में पुनः भोजन जैसे अन्नपदार्थों का वितरण अल्पाधिक अंतर से प्रत्येक अन्नछत्र के बाहर निरंतर चालू रहता है । इन अन्नछत्रों को देखनेपर साक्षात अन्नपूर्णामाता ही सभी श्रद्धालुओं का ध्यान रखती हैं, ऐसा लगता है । इसीलिए श्रद्धालुओं की संख्या करोडों में होते हुए भी कुंभक्षेत्र में चाय की दुकानों को छोडा जाए, तो होटल और रेस्तरां की संख्या नगण्य है । वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति ने चूल्हा जलाने का विचार किया, तो भी इतना बडा प्रबंध करना कठिन होता है; परंतु इन अन्नछत्रों ने यह संभव बनाया है ।
२. कुंभक्षेत्र के ‘भावमय’ अन्नछत्र सेवाभक्ति के भंडारे !
ये अन्नछत्र केवल श्रद्धालुओं के ही नहीं, अपितु आसपास के निर्धन लोग, मामूली व्यवसाय करनेवाले दुकानदार, अपनी सेवा में कार्यरत पुलिसकर्मी तथा सैनिक इन सभी के योगक्षेम की व्यवस्था करते हैं । अनेक स्थानोंपर संबंधित संतों से संबंधित उनके भक्त ही सब्जी काटना, रसोई बनाना, श्रद्धालुओं को भोजन परोसना और बरतन मांजने जैसी सेवाएं आनंद के साथ करते हैं । भक्ति और श्रद्धा से तथा संगठितभाव से चलनेवाली इस सेवा के कारण यहां किसी भी इवेंट मैनेजर (कार्यक्रम प्रबंधक) की आवश्यकता नहीं होती । इस भंडारे के माध्यम से सभी लोग सेवा करते हैं । यहां छोटा-बडा, निर्धन-धनवान जैसा कोई भेद नहीं होता । ये सभी ‘हम एक ही गुरु के शिष्य हैं’, इस भाव के साथ सेवा करते हैं । सभी लोग एक-दूसरे को लगकर भोजन के लिए बैठते हैं । एक प्रकार से यह अन्नछत्र सभी भेदभाव को भूलकर प्रत्येक व्यक्ति में परमेश्वर के दर्शन करना सिखाता है । भोजन परोसते समय भी नमक को रामरस, दाल को दालराम, चावल को चावलराम आदि नाम देकर प्रत्येक व्यक्ति ‘यह अन्नपूर्णामाता का प्रसाद है’, इस भाव को सदैव बनाए रखने में प्रयासरत होता है ।
३. कहां धर्मांतरण की आसुरी महत्त्वाकांक्षा
रखनेवाले पाखंडी ईसाई सेवाकार्य,तो कहां वास्तविक
मानवता और दानशूरता सिखानेवाले कुंभक्षेत्र के अन्नछत्र !
कर्मयोग कहता है, ‘अच्छा कर्म करने से पुण्य प्राप्त होता है और बुरे कर्म करने से पाप लगता है ।’ धर्म की इस सीख के कारण इस कलियुग में भी भले पुण्यप्राप्ति के लिए ही क्यों न हो; परंतु अन्नछत्र के रूप में दानधर्म कर रहे हैं । ‘धर्म अफीम की गोली है’, ऐसा कहनेवालों का धर्म की प्रेरणा से चल रहे इतने बडे सेवाकार्य के विषट में क्या कहना है ? ‘कुंभपर्व हेतु सरकारी धन का अपव्यय क्यों ?, इस धन को निर्धनों में बांटिए ।’, जैसे अर्थहीन प्रश्न उठानेवाले आधुनिकतावादियों के लिए यह सेवाकार्य तो करारा तमाचा ही है । अन्य समय भले कोई भी मानवता के कितने भी गप्पे चलाए; किंतु इतनी बडी मात्रा में अन्नदान का उदाहरण विश्व में किसी के पंथ के पास नहीं है । धर्मांतरण के लिए सेवाकार्य चलाना और उपर से मानवता के गप्पे मारना, यह धूर्तता यहां नहीं है !
४. अन्नपूर्णा भगवती से प्रार्थना !
भले यह वैभव कितना भी हो; किंतु कुंभ का वास्तविक लाभ उठाने हेतु आनेवाला प्रत्येक श्रद्धालु शंकराचार्यजी द्वारा लिखी गई माता अन्नपूर्णा की स्तुति का स्मरण करता है । शंकराचार्य जी इस स्तुति में लिखते हैं –
अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकरप्राणवल्लभे ।
ज्ञानवैराज्यसिद्ध्यर्थं भिक्षां देहि च पार्वति ॥
– आद्यशंकराचार्यकृत अन्नपूर्णास्तोत्र, श्लोक ११
अर्थ : अन्न से समृद्ध, सदैव परिपूर्ण, शिवजी को प्राणों की भांति प्रिय, हे पार्वतीदेवी, ज्ञान और वैराग्य की सिद्धि हेतु आप हमें भिक्षा प्रदान करें ।’
चलो ! हम सभी भी उस भगवती से हिन्दू राष्ट्र स्थापना हेतु ज्ञान एवं वैराग्य की भिक्षा मांगे और हिन्दू राष्ट्र में आनेवाले अगले कुंभपर्व की सिद्धता करें ।’