१. वराहज्वर क्या होता है ?
जुलाई २००९ से वराहज्वर चर्चा का विषय बना हुआा है । पिछले मास से महाराष्ट्र राज्य में इस रोग ने पुनः अपना सिर उठाया है । यह विकार ‘स्वाइन A (H1N1)’ नामक विषाणु (वाईरस) से होता है । इसके विषाणु सुअरों में बडी सहजता से मिलते हैं; इसलिए इस ज्वर को वराहज्वर कहते हैं । सुअर का मांस खाना और वराहज्वर का कोई संबंध नहीं है । इसके विषाणु हवा में ८ घंटों तक जीवित रह सकते हैं । इस रोग से बाधित व्यक्ति की खांसी अथवा छींक से हवा में उडनेवाले फुहारों में ये विषाणु होते हैं । अल्प रोगप्रतिकारक क्षमतावाले व्यक्तियों की नाक, आंखें, मुख इत्यादि अंगों से संपर्क होने पर इन विषाणुओं का संक्रमण होता है, ऐसा आधुनिक चिकित्सा शास्त्र बताता है ।
२. वराहज्वर के लक्षण
वराहज्वर के लक्षण सर्वसामान्य बुखार की भांति ही होते हैं । इसमें ठंड लगना, १०० अंश फॅ. से अधिक बुखार होना, सरदी, खांसी, गले में दर्द और शरीरदर्द जैसे लक्षण दिखाई देते हैं । कभी-कभी पेटदर्द, मिचली, उल्टी, दस्त आदि लक्षण भी होते हैं ।
३. वराहज्वर का निदान कैसे लगाया जाता है ?
आरंभ में आधुनिक वैद्य रैपिड डायग्नोस्टिक परीक्षण का परामर्श दे सकते हैं; परंतु इसका निदान सकारात्मक होने पर भी वराहज्वर न होना प्रमाणित नहीं होता । केवल प्रयोगशाला में किए गए परीक्षण से ही यह वराहज्वर है अथवा नहीं ?, यह स्पष्ट हो सकता है । स्थानीय स्वास्थ्यकेंद्र में भी इसका परीक्षण उपलब्ध होता है ।
४. वराहज्वर – आयुर्वेदीय विचार
आयुर्वेद बताता है कि ‘रोगाः सर्वेऽपि मन्देऽग्नौ ।’ अर्थात पाचनशक्ति धीमी होने से सभी रोग होते हैं; क्योंकि शरीर की रोगप्रतिकारक क्षमता पाचनशक्ति पर ही निर्भर होती है । अतः वराहज्वर भी इसका अपवाद नहीं है ।
५. वराहज्वर के लिए आयुर्वेदीय चिकित्सा
आयुर्वेद में ज्वर के अनेक प्रकार बताकर उनकी चिकित्सा भी बताई गई है । वराहज्वर भी एक प्रकार का बुखार ही है । किसी भी प्रकार का बुखार अथवा सरदी लगने पर भयभीत न होकर निम्न चिकित्सा करें, साथ ही पथ्य का भी पालन करें । इन चिकित्साओं के कारण कोई दुष्परिणाम होंगे, इसका भय न रखें ।
५ अ. लंघन (उपवास)
शरीर में बुखार के होते समय पाचनशक्ति धीमी पड जाती है; इसलिए ऐसे समय पाचन के दृष्टिकोण से भारी पदार्थ टालने चाहिए । ऐसे में कठोर उपवास रखना उत्तम; परंतु संभव न हुआ, तो बुखार के उतरने तक भुने हुए मुरमुरों अथवा मुरमुरों का चिवडा, रामदाना के लड्डू, उबाले हुए मूंग अथवा फीकी दाल जैसा हल्का आहार लें ।
५ आ. सोंठमिश्रित पानी पीना
पीने के एक लिटर में पौना चम्मच सोंठ का चूर्ण (सुखाए हुए अदरक का चूर्ण) डालकर उसे उबालकर ठंडा कर पीएं ।
५ इ . बफारा (भाप) लेना
सरदी लगने से पानी में कर्पूर डालकर उसकी भाप लें ।
५ ई. औषधिय काढे
१. मुट्ठीभर तुलसी के पत्ते, १ सें.मी. मोटाईवाला अदरक अथवा सोंठ का टुकडा, ५ से ६ काली मिर्च तथा चम्मचभर धनिया लेकर उन्हें कूटकर ४ गिलास पानी में उबालकर उनका १ गिलास काढा बनाएं । इस काढे को सुबह-सायंकाल आधा गिलास मात्रा में गर्म कर पीएं ।
२. उपर्युक्त पद्धति से चम्मचभर लौंग का काढा पीना भी लाभप्रद होता है ।
५ उ. क्या करें और क्या न करें ?
१. छींकते समय, खांसी आते समय, उबासी लेते समय और हंसते समय मुंह पर रुमाल रखें ।
२. अपने परिसर में वराहज्वर का रोगी मिलने पर कुछ दिनों तक प्रतिबंधक उपाय के रूप में घर से बाहर निकलते समय नाक पर स्वच्छ रुमाल बांधें अथवा ‘मास्क’ का उपयोग करें ।
३. प्रतिदिन सुबह नारियल तेल अथवा घर में बनाए गए घी की २ बूंदें नाक में डालें । घर से बाहर निकलते समय हाथ की करांगुली को तेल अथवा घी में डुबोकर उसमें लगा हुआ तेल नाक में अंदर से लगाएं ।
४. शरीर में बुखार होने पर स्नान करना टालकर गीले कपडे से शरीर को पोंछकर तुरंत सुखाएं ।
५. खाने-पीने से पहले हाथ साबुन से धो लें ।
६. नियमित रूप से व्यायाम करें; परंतु बुखार के समय न करें ।
६. रोगों का प्रसार टालने हेतु धर्माचरण करें !
आयुर्वेद में संक्रामक रोगों के पीछे ‘अधर्म ही मूल कारण होता है’, ऐसा बताया गया है । धर्माचरण से ऐसे रोगों पर रोक लगती है । इसके लिए हिन्दू धर्म में बताए गए आचारों का पालन करना ही सभी रोगों का प्रतिबंधात्मक उपाय है । जीवाणुओं के संक्रमण के लिए कारण सिद्ध पाश्चात्त्य ‘शेकहैंड’ की अपेक्षा हिन्दू धर्म द्वारा बताए गए ‘नमस्कार’ का कृत्य लाभप्रद है, यहां यह ध्यान में रखनेयोग्य बात है ।