परात्पर गुुरु डॉ. आठवलेजी को दीर्घायु
प्राप्त हो, हिन्दू राष्ट्र स्थापना के कार्य में उत्पन्न सभी
बाधाएं दूर हों तथा साधकों के कष्ट दूर हों; इसके लिए संकल्प
रामनाथी (गोवा) : ‘श्री भृगु महर्षिजी की आज्ञा से परात्पर गुुरु डॉ. आठवलेजी को स्वास्थ्यपूर्ण दीर्घायु प्राप्त हो, हिन्दू राष्ट्र की स्थापना में उत्पन्न अनिष्ट शक्तियों की बाधाएं दूर हों, साथ ही साधकों के कष्ट दूर हों, इसके लिए यहां के सनातन आश्रम में ७ नवंबर को शूलिनी पराक्रम यंत्र की स्थापना और पूजन कर उसके पश्चात हवन किया गया । इस में श्री शूलिनी दुर्गादेवी, श्री प्रत्यंगिरादेवी तथा श्री शरभेश्वर देव इन ३ देवताआें का आवाहन किया गया । पूर्णाहुति के साथ हवन का समापन किया गया ।
विधियों का प्रारंभ शंखनाद से किया गया । इन विधियों के विषय में उपस्थित लोगों को अवगत करते हुए पुरोहित श्री. दामोदर वझे ने बताया कि भृगु महर्षिजी की आज्ञा से यह विधि संपन्न हो रहा है । श्री मार्कंडेय ऋषी इस यज्ञ के मुख्य अधिष्ठाता ऋषी हैं । तत्पश्चात श्री. वझेगुरुजी ने श्री मार्कंडेय ऋषी की महिमा विशद की । विधि के मुख्य ऋषी ‘मार्कंडेय’ ऋषी होने से सबसे पहले मार्कंडेय ऋषी का स्मरण किया गया, साथ ही इस हवन की अधिदेवता ‘हयग्रीव’ होने से हयग्रीव देवता से प्रार्थना कर यज्ञविधि का प्रारंभ किया गया । उसके पश्चात हयग्रीव, भगवान श्रीकृष्णजी, श्री दुर्गादेवी, भगवान शिवजी, श्री गणेशजीसहित सभी देवताआें का स्मरण कर उनसे प्रार्थना की गई । सद्गुुरु (श्रीमती) बिंदा सिंगबाळजी जे के मंगलहस्तों से संकल्प तथा श्री महागणपति का पूजन कर धार्मिक विधियों का प्रारंभ किया गया । तत्पश्चात विधियों की प्रधान देवता श्री शूलिनी दुर्गादेवी, साथ ही श्री प्रत्यंगिरादेवी तथा श्री शरभेश्वर इन देवताआें का यंत्रस्थानपर आवाहन कर षोडशोपचार पूजन द्वारा यंत्र की प्रतिष्ठापना की गई । इस अवसरपर श्री भृगु महर्षिजी की आज्ञा के अनुसार नींबू का रस डालकर पकाए हुए चावल, मुसंबा तथा अंगूर का भोग चढाया गया । यज्ञ में तीनों देवताआें के लिए नींबू, जंबीरी नींबू तथा औदुंबर वृक्ष की समिधाआें की प्रत्येक ५१ आहुतियां दी गईं । पूर्णाहुति देकर यज्ञ का समापन किया गया ।
विधियों के समय साधकों ने मार्कंडेय ऋषी से ‘आनेवाले संकटकाल में अपमृत्यु से हमारी रक्षा हो तथा आपकी भांति हमसे भी संपूर्ण समर्पित भाव से आप यह गुरुभक्ति करवाकर लें !’’, इस प्रकार से शरणागत भाव से प्रार्थना की ।
क्षणिकाएं
१. विधियों से पहले तथा पश्चात ‘यु.टी.एस्.’ परीक्षण किया गया । सद्गुुरु (श्रीमती) बिंदा सिंगबाळ जब इस परीक्षण के लिए जा रहीं थीं, तब उन्हें एक भैंसे का दर्शन हुआ । परात्पर गुुरु डॉक्टरजी के छायाचित्र के ‘यु.टी.एस्.’ परीक्षण हेतु जाते समय साधकों को वहां भैंसा दिखाई दिया । भैंसा मार्कंडेय ऋषी का वाहन है ।
२. यज्ञस्थलपर श्री दुर्गादेवी की मूर्ति तथा त्रिशुल का पूजन किया गया ।
मार्कंडेय ऋषी की कथा
मार्कंडेय ऋषी का जन्म भृगु महर्षिजी के परिवार में हुआ है । ऋषी मृकंडू तथा उनकी पत्नी मरुदमति ने पुत्रप्राप्ति हेतु भगवान शिवजी की उपासना की थी । इस उपासनापर प्रसन्न होकर शिवजी ने उन्हें ‘बुद्धिमान, प्रतिभासंपन्न; परंतु अल्पायु अथवा बुद्धिहीन; परंतु दीर्घायु पुत्र चाहिए ?’ यह प्रश्न किया । तब उन दोनों ने ‘बुद्धिहीन; परंतु दीर्घायु पुत्र की मांग की और तब शिवजी की कृपा से मार्कंडेय का जन्म हुआ । आगे जाकर मार्कंडेय की शिवजी के प्रति भक्ति बढती चली गई । जिस दिन मार्कंडेय ऋषी की मृत्यु होनेवाली थी, उस दिन यमदेवता और शिवजी में युद्ध हुआ । उसमें यमराज हार गए तथा उन्होंने मार्कंडेय को अमरता का वरदान दिया । तब से मार्कंडेय ‘सप्तचिरंजीवों’ में से एक बन गए और शिवजी को ‘कालांतक’ अर्थात ‘काल का अंत करनेवाले’ कहा जाने लगा ।
श्री शूलिनी दुर्गादेवी की कथा
श्री शूलिनीदेवी को भगवान शिवजी की शक्ति माना गया है । जब महिषासुर के अत्याचारों के कारण सभी देवताएं तथा ऋषिमुनी त्रस्त हो गएं, तब सभी देवताएं सहायता मांगने के लिए भगवान शिवजी तथा श्रीविष्णु की सहायता मांगने गए । शिवजी तथा श्रीविष्णु के तेज से भगवती दुर्गा प्रकट हुईं ।इसके कारण सभी देवता प्रसन्न हो गए । सभी ने अपने अस्त्र एवं शस्त्र भेंट कर दुर्गादेवी को सम्मानित किया । तत्पश्चात भगवान शिवजी ने अपने त्रिशुलों में से एक त्रिशुल दुर्गादेवी को प्रदान किया । उसके कारण दुर्गादेवी का नाम ‘शूलिनी’ पडा । उसी त्रिशुल से दुर्गादेवी ने महिषासुर का वध किया ।
विशेषतापूर्ण
१. श्री शूलिनी दुर्गादेवी के लिए यज्ञ में आहुति देने के पश्चात सद्गुरु (श्रीमती) बिंदा सिंगबाळजी एवं पुरोहित जब यज्ञ के समय हुई चूकों के लिए क्षमायाचना कर रहे थे, तब आकाश से यज्ञस्थल के उपर से विमान गया । इसका अर्थ ‘विमान के रूप में ऋषीजी ने अपनी उपस्थिति दर्शाकर क्षमा को स्वीकार किया’, ऐसा होता है ।
२. हवन के समय यज्ञकुंड की ज्वाला में श्री शरभेश्वर देवता की भांति सिंह का मुख दिखाई दिया, साथ ही विधि का विरोध करनेवाली अनिष्ट शक्तियों के मुख भी दिखाई दिए ।
साधकों को हो रहे कष्टों के निवारण हेतु
भृगु महर्षिजी द्वारा ‘श्री शरभेश्वर’, ‘श्री प्रत्यंगिरा’ तथा
‘श्री शूलिनी दुर्गा’ इन देवताआें की उपासना करने के लिए कहा जाना !
भृगु महर्षिजी ने एक नाडीवाचन में कहा कि सनातन संस्था अब केवल संस्था नहीं रहीं, अपितु सनातन संस्था ने अब एक राष्ट्र का रूप धारण किया है । सनातन संस्थारूपी राष्ट्र के राजा प.पू. गुरुदेवजी (परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी) हैं । राजा सदैव प्रजा के हितों की रक्षा करता है; इसलिए अब उन्हें पिता का स्थान प्राप्त हुआ है । इसलिए अब गुुरुदेवजी अब सभी साधकों के ‘पिता’ बन चुके हैं; इसलिए गुरुदेवजी के इस राष्ट्र को चलानेवालीं दोनों सद्गुुरु अर्थात सद्गुुरु (श्रीमती) बिंदा सिंगबाळजी तथा सद्गुुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी इन साधकों के लिए ‘माता’ बन गई हैं । आज सनातन संस्था की कार्य की दृष्टि से सूर्य के नीच स्थान में होने से सनातन संस्था को बडी-बडी घटनाआें का सामना करना पड रहा है; परंतु भगवान श्रीविष्णुजी की कृपा से संस्था इससे भी बाहर निकलेगी । आज के समय में सनातन संस्था को श्री शरभेश्वर देव, श्री प्रत्यंगिरा देवी तथा श्री शूलिनी दुर्गादेवी इन देवताआें की उपासना करना आवश्यक है । इस समय सनातन के साधकों को हो रहे अधिकांश कष्ट मानसिक स्तर के हैं । श्री शरभेश्वर, श्री प्रत्यंगिरा तथा श्री शूलिनी दुर्गा इन देवताआें की उपासना के कारण साधकों के कष्ट न्यून हो जाएंगे ।
अनिष्ट शक्तियां : वातावरण में अच्छी तथा अनिष्ट शक्तियां कार्यरत होती हैं । अच्छी शक्तियां अच्छे कार्य के लिए मनुष्य की सहायता करती हैं, तो अनिष्ट शक्तियां उसे कष्ट देती हैं । प्राचीन काल में ऋषीमुनियों द्वारा किए जानेवाले यज्ञों मे राक्षसों द्वारा विघ्न डाले जाने की अनेक कथाएं वेद-पुराण में मिलती हैं । अथर्ववेद में कई स्थानोंपर अनिष्ट शक्तियां, उदा. असुर, राक्षस, पिशाच्च, साथ ही काला जादू के प्रतिबंध के लिए मंत्र दिए गए हैं । वेदादी धर्मग्रंथों में अनिष्ट शक्तियों के निवारण के लिए उपाय बताए गए हैं ।