बक्से के उपचार करने हेतु शरीर के स्थान
अ . शरीर के कुंडलिनीचक्रों के स्थान पर बक्से के उपचार प्रधानता से करें !
(आकृति ‘२’ देखें ।)
२ अ १. कुंडलिनीचक्रों के स्थानों पर बक्सों के उपचार करने का शास्त्राधार
ब्रह्मांड में विद्यमान प्राणशक्ति (चेतना) कुंडलिनीचक्रों द्वारा मनुष्य के शरीर में ग्रहण की जाती है आैर उस चक्रविशेष द्वारा वह शरीर की संबंधित इंद्रिय तक पहुंचाई जाती है । इंद्रिय में प्राणशक्ति के (चेतना के) प्रवाह में बाधा आने पर विकार उत्पन्न होते हैं ।
इस हेतु अनिष्ट शक्तियां मुख्यत: कुंडलिनीचक्रों पर आक्रमण कर वहां कष्टदायक (काली) शक्ति संग्रहित करती हैं । इस पर उपचार के रूप में कुंडलिनीचक्रों के स्थान पर बक्से के उपचार करना महत्त्वपूर्ण होता है । (कुंडलिनीचक्रों के स्थानों के अतिरिक्त विकारग्रस्त अवयवों के स्थान पर भी बक्सों के उपचार कर सकते हैं ।)
२ अ २. विकारों के अनुसार किस कुंडलिनीचक्र के स्थान पर बक्सों के उपचार करने चाहिए ?
विकार | संबंधित कुंडलिनीचक्र (टिप्पणी १) |
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१. शारीरिक विकार | |
अ. सिर एवं आंखों के विकार | आज्ञाचक्र ( भ्रू मध्य , अर्थात दोनों भौंहों के मध्य में) |
आ. नाक, मुख, कान एवं गला इन से संबंधित विकार | विशुद्धचक्र (कंठ, अर्थात स्वरयंत्र का भाग) |
इ. छाती के विकार | अनाहतचक्र (छाती के मध्य में) |
ई. पेट के विकार | मणिपुरचक्र (नाभी) |
उ. पेडू के विकार | स्वाधिष्ठान चक्र [जननेंद्रिया के १ से २ सें.मी. ऊपर (लिंगमूल)] |
ऊ. हाथ आैर सिर से छाती तक के भाग के विकार (उपरोक्त सूत्र ‘अ’ से ‘इ’ में उल्लेखित अवयवों के विकारों के अतिरिक्त अन्य विकार) | अनाहतचक्र |
ए. पैर तथा छाती से नीचे के भाग के विकार (उपरोक्त सूत्र ‘ई’ एवं ‘उ’ में उल्लेखित अवयवों के विकारों के अतिरिक्त अन्य विकार) | मणिपुरचक्र |
एे. संपूर्ण शरीर के विकार (उदा. थकान, ज्वर, स्थूलता, पूरे शरीर का त्वचारोग) | १. सहस्रारचक्र (सिर का मध्य, तालु) (टिप्पणी २) २. अनाहतचक्र एवं मणिपुरचक्र |
२. मानसिक विकार | १. सहस्रारचक्र (टिप्पणी २) २. अनाहतचक्र |
टिप्पणी १ – मूलाधारचक्र के स्थान पर न्यास करना कठिन होता है, इसलिए इस चक्र के स्थान पर न्यास करने के लिए नहीं बताया ।
टिप्पणी २ – सहस्रारचक्र : कुंडलिनी के षट्चक्रों में सहस्रारचक्र की गणना नहीं की जाती । यह चक्र स्वतंत्र चक्र के रूप में गिना जाता है । ब्रह्मांड में विद्यमान प्राणशक्ति इस चक्र से ही शरीर में प्रवेश करती है । इस चक्र को ‘ब्रह्मद्वार’ भी कहते हैं । सामान्य व्यक्ति में सहस्रारचक्र बंद रहता है । साधना में प्रगति होने पर वह खुलता है । इस कारण अन्य व्यक्तियों की तुलना में साधना में प्रगति साध्य हुए व्यक्ति ने सहस्रारचक्र के स्थान पर न्यास करने से उसे अधिक लाभ मिलता है ।