विकार-निमर्लून हेतु नामजप प्रतिदिन कितना समय करें ?
विकार की तीव्रता | प्रतिदिन नामजप करने की अवधि (घंटे) |
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१. मंद | १ से २ |
२. मध्यम | ३ से ४ |
३. तीव्र | ५ से ६ |
इस सारणी में दर्शाई हुई अवधि का नामजप कुछ दिन करने पर भी विकार न घटे अथवा नियंत्रण में न आए, तब नामजप की अवधि बढा दें; उदा. जो नामजप प्रतिदिन १ से २ घंटे करते थे, वह नामजप प्रतिदिन ३ से ४ घंटे करें, जो प्रतिदिन ३ से ४ घंटे करते थे, वह प्रतिदिन ५ से ६ घंटे करें । विकार-निर्मूलन हेतु आवश्यक उतना समय नामजप करने के उपरांत दिन का शेष समय साधना के लिए उपयुक्त नामजप करें । इस नामजप संबंधी विवेचन सनातन का ग्रंथ ‘नामजप कौनसा करें ?’ में दिया है ।
नामजप के विविध प्रकारों में से स्वयं की प्रकृति
के अनुसार अधिक उपयुक्त नामजप का चयन कैसे करें ?
‘विकार निर्मूलन हेतु नामजप-उपचार (३ खंड)’ में शारीरिक आैर मानसिक विकारों की सूची दी है । प्रत्येक विकार के लिए नामजप के आगे दिए छः प्रकार अथवा इन छः में से कुछ प्रकार इस क्रम से दिए हैं –
१. देवताआें के नामजप,
२. पंचतत्त्वों के नामजप,
३. शब्दब्रह्म,
४. अक्षरब्रह्म,
५. बीजमंत्र आैर
६. अंकजप ।
अ. ‘किस नामजप में मन अधिक लगता है’, इस संबंध
में प्रयोग कर उपचारों के लिए उस नामजप का चयन करें !
नामजप के उक्त प्रकारों में से ‘देवताआें का नामजप’ करना साधारणतः सभी को सरल लगता है । इसका कारण यह है कि सभी को देवताआें के नाम अधिक अपने लगते हैं तथा सभी में देवताआें के प्रति कुछ भाव भी रहता है । ऊपर दिए गए प्रकारों में से प्रत्येक नामजप लगभग आधा घंटा करें । प्रत्येक नामजप के उपरांत २ – ३ मिनट रुकें, तत्पश्चात अगला नामजप करें । प्रयोग संभवतः एक ही बार में पूर्ण करें ।
वैसा करना संभव न हो, तो कुछ अंतराल से अगला प्रयोग कर सकते हैं । जिस नामजप से अच्छा लगता है अथवा जिस नामजप में अधिक मन लगता है, तो समझें कि वह नामजप उपचारों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है । इस प्रयोग में कभी-कभी २ नामजपों से एक समान अनुभूत होता है । तब उन २ नामजपों का पुनः प्रयोग करें आैर उनमें से १ नामजप का चयन करें ।
आ. किसी एक जप की साधना पहले हुई हो, तो वही जप करें !
किसी एक जप की, उदा. किसी बीजमंत्र की साधना पहले हुई हो, तो नामजप का प्रयोग न कर, सीधे वही जप करें । यदि २ जपों की साधना पहले हुई हो, तो ऊपर दिए अनुसार उन २ जपों का प्रयोग करें तथा उनमें से १ नामजप का चयन करें । इसका लाभ यह है कि जिस जप की साधना हो चुकी हो, वह जप अधिक श्रद्धापूर्वक होता है आैर अधिक प्रभावकारी भी होता है ।
इ. यदि यह ज्ञात हो कि विकार ग्रहपीडा के कारण है,
तो सबसे पहले ग्रहपीडा का निवारण करनेवाला नामजप करें !
कभी-कभी व्यक्ति की जन्मकुंडली अथवा नाडीभविष्य में विशिष्ट ग्रहपीडा आैर उसके कारण हुए विकारों का उल्लेख होता है । उसके अनुसार व्यक्ति को विकार हो, तो विकार-निर्मूलन के लिए अन्य नामजप के स्थान पर ग्रहपीडा दूर करनेवाला नामजप उस व्यक्ति के लिए अधिक लाभदायक होता है । इसलिए एेसे व्यक्ति का सूत्र ‘अ.’ में बताए अनुसार नामजप का प्रयोग न कर, ग्रहपीडा निवारण के लिए उपयुक्त २ नामजपों का प्रयोग करना चाहिए तथा उनमें से १ नामजप का चयन करना चाहिए । ग्रहपीडा निवारण के लिए उपयुक्त नामजप के आगे कंस में सूचक निर्देश किया है,
उदा. ॐ घृणि सूर्याय नमः । / श्री सूर्यदेवाय नमः । (ग्रह : सूर्य)
विकारों के अनुसार विविध नामजप, नामजप से
संबंधित महाभूत (तत्त्व) आैर कुछ विशेष न्यासस्थान (विकारसूची)
कुछ सूचनाएं
१. अधिकतर नामजपों के आगे कोष्ठक में उस नामजप से संबंधित महाभूत (तत्त्व) बताए हैं । उस तत्त्व के आधार पर मुद्रा आैर न्यास जानने की क्रिया सूत्र ‘२’ में बताई है । कुछ नामजपों के आगे ‘*’ संकेत है । उन नामजपों के समय की जानेवाली सामान्य मुद्रा के
विषय में विश्लेषण सूत्र ‘२’ में किया है ।
२. न्यासस्थान (न्यास करने हेतु आवश्यक स्थान) जानने की क्रिया सूत्र ‘२’ में बताई है । विकारसूची में दिए कुछ विकारों में ‘विशेष
न्यासस्थान’ दिया है । इसका विश्लेषण भी सूत्र ‘२’ में किया है ।
विकार-निर्मूलन हेतु नामजप ग्रंथ में बताई
मुद्रा-उपचार पद्धति हिन्दू धर्म के ज्ञान पर आधारित !
‘मानव के हाथ की पांच उंगलियां पृथ्वी, आप, तेज, वायु तथा आकाश इन पंचमहाभूतों का प्रतिनिधित्व करती हैं । ‘प्रत्येक उंगली एवं उससे संबंधित महाभूत’ इस विषय में हमने जो जानकारी दी है वह ‘शारदातिलक’ (अध्याय २३, श्लोक १०६ पर किया भाष्य) तथा ‘स्वरविज्ञान’ इन ग्रंथों में दी गई जानकारी के अनुसार ही है ।
मुद्रा कर उसके साथ शरीर में स्थित कुंडलिनीचक्रों के स्थान पर या विविध अवयवों के स्थान पर ‘न्यास’ करना, यह हमने बताई उपचारपद्धति का एक भाग है । ‘प्राचीन काल से मंत्रयोग में मातृकान्यास करने के लिए बताया है । उसमें पांच उंगलियां व तलुवे से विविध अवयवों के स्थान पर न्यास करने के लिए बताया है ।’ (संदर्भग्रंथ : भारतीय संस्कृतिकोश, खंड ४ एवं ७) अध्यात्म, कृति का शास्त्र है । उसमें प्रयोगशीलता व सृजनशीलता है । धर्म में निहित ज्ञान का उपयोग करते समय हमने जिज्ञासु वृत्ति से अभ्यास किया । विविध मुद्रा, न्यास व नामजप के संदर्भ में स्वयं प्रयोग कर अनुभव लिया । कई साधकों ने भी इस पद्धति से प्रयोग किए । इसके लाभ ध्यान में आने पर अब ग्रंथ के माध्यम से सभी के समक्ष यह उपचार पद्धति प्रस्तुत है ।’