अहं के घटने पर आध्यात्मिक उन्नति के लक्षण क्या हैं ?
अ. श्वासोच्छ्वास घट जाना : अहं का तामसिक, राजसिक एवं सात्त्विक अहं में रूपांतर होता जाए, तो श्वासोच्छ्वास की गति घटती जाती है । एक मिनट में चार-पांच बार ही श्वसन होने लगे, तो केवल शुद्ध अहं का भान शेष रह जाता है ।
आ. प्रीति उत्पन्न होना : शुद्ध अहं में व्यापकता आ जाए, तो उसे ‘प्रीति’ कहते हैं ।
इ. अहं के पूर्णतः अंत होनेपर ऐसा अनुभव होता है,
जो कुछ कियो सो तुम कियो, मैं कुछ कियो नाहीं ।
कहीं कहो जो मैं कियो, तुम ही थे मुझ माहीं ।।
– संत कबीर
अहं-निर्मूलन हेतु कुछ प्रेरणादायी अनुभूतियां
अनुभूति १.
एक बार प.पू. डॉक्टरजी (परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी) ने कहा, ‘‘तुम्हारी साधना एकांगी हो रही है । तुममें ३० प्रतिशत (सामान्य व्यक्ति
समान) अहं है । अब आश्रम की अन्य सेवाएं भी सीखो । ’’ धीरे-धीरे आश्रम के प्रत्येक विभाग में मैं सेवा करने लगी । उस समय मैं ईश्वर से प्रार्थना करती, ‘मुझे सबकुछ साधना की दृष्टि से देखना सिखाएं । छोटी-छोटी बातों से आनंद प्राप्त करना आप मुझे सिखाएं ।’ निरंतर ऐसी प्रार्थना के फलस्वरूप ईश्वर मुझे शनैः-शनैः प्रत्येक कृत्य साधना के दृष्टिकोण से सिखाने लगे । इस कारण अपने साथ ही अन्यों का विचार होने लगा । इसलिए अहं अपनेआप ही घटने लगा । इसके कुछ उदाहरण आगे दिए हैं ।
ईश्वरद्वारा शूद्रवर्ण की सेवा का अवसर देना : आश्रम के प्रवेशद्वार पर अनेक बार चप्पलें अव्यवस्थित पडी दिखाई देतीं, तो ईश्वर सुझाते, ‘यह शूद्रवर्ण की सेवा का सुवर्ण अवसर है, इसे नहीं छोडना !’ मैं उन चप्पलों को स्टैंड पर रख देती । शूद्रवर्ण की सेवा से अहं को शीघ्र घटाने में सहायता मिली ।
सर्व सेवाएं अपनी लगना एवं उन्हें करते हुए आनंद का अनुभव होना : आश्रम में भोजनगृह के निकट रखे एक डिब्बे में यदि सौंफ समाप्त हो जाती, तो मैं स्वयं उस में सौंफ भर देती । इससे पूर्व दिखाई देता था कि सौंफ समाप्त हो चुकी है; परंतु डिब्बा पुनः भरने की बात नहीं सूझती थी । उस समय लगता था कि यह सेवा रसोई-विभाग के साधकों की है । धीरे-धीरे प्रत्येक विभाग की सेवा मुझे अपनी लगने लगी । इसके साथ ही, आश्रम में जब मैं घूमती, तो अनावश्यक जल रही बत्तियां और चलते हुए पंखे बंद करना, कुर्सियों को पटल के (मेज के) साथ सटाना, पायदान उचित स्थान पर सीधा रखना, स्नानगृह से बाहर आते हुए साबुनदानी, बालटी, लोटा इत्यादि को व्यवस्थित रखने की सेवाएं मुझे ईश्वरने ही दी हैं, इसका भान तीव्रता से होता । इससे पूर्व मैं प्रत्येक साधक से पूछा करती थी, ‘मेरे लिए कोई सेवा है क्या ?’ परंतु अब साधक अधिकार से मुझे सेवा देने लगे । केवल अपना ही नहीं, बल्कि अन्यों का विचार होने से, अहं अपनेआप ही घटने लगा एवं सर्व सेवाओं में आनंद मिलने लगा ।
ईश्वरका छोटी-छोटी बातों से अन्योंका विचार करना सिखाना : पहले भोजन के लिए बैठते हुए, मैं केवल अपने लिए पानी का गिलास लिया करती थी । उसके उपरांत दोनों हाथों से दो गिलास लाने लगी । दूसरा गिलास किसी साधक को दे देती । इस छोटे से कृत्य से ईश्वर ने अन्यों का विचार करना एवं आनंद प्राप्त करना सिखाया । अन्यों के विचार की वृत्ति होने से अहं भी शनैः-शनैः घटने लगा ।
अन्यों का समय बचाने एवं उनकी सेवा में सहायता करने की सीख ईश्वर से मिलना : भोजन के उपरांत मैं अपनी थाली, कटोरी मांजकर उनके स्थानपर रख देती थी । इसके साथ ही अन्यों के बर्तन भी वहां रखने लगी । ऐसा करने से, उन बर्तनों को संभालने में रसोईघर के साधकों के समय की बचत होने लगी । पहले मेरा दृष्टिकोण संकुचित था कि मुझे अपने ही बर्तन संभालकर रखने हैं; अब वह बदल गया । पीने का पानी लेते हुए मन से सूचना मिलने लगी कि ‘पहले टंकी का ढक्कन खोलकर देखो कि पानी पर्याप्त है अथवा नहीं । यदि न हो, तो शीघ्र ही उसमें पानी भरो, केवल १०-१५ मिनट लगेंगे । ऐसा करने से तुम टंकी भरने वाले साधक का समय भी बचा सकती हो ।’ इस प्रकार प्रत्येक सेवा में दूसरे साधकों का समय बचाने के सतत विचार से अहं शीघ्र घटता गया ।
ईश्वर एवं प.पू. डॉक्टरजी ने विविध प्रसंगों द्वारा कैसे सिखाया, इस संदर्भ में अन्यों को बताते समय लगना कि मेरी नहीं, वरन् डॉक्टरजी की स्तुति हो रही है : साधना पथपर चलते हुए, ईश्वर एवं प.पू. डॉक्टरजी ने मुझे अनेक छोटे-छोटे प्रसंगों से कितना सिखाया, इस संदर्भ मेेंं जब अन्यों को बताती, तो लगता कि इसमें ‘मेरा’ विचार नहीं वरन् ‘प.पू. डॉक्टरजी की स्तुति हो रही है ।’
– सद्गुरु (श्रीमती) अंजली मुकुल गाडगीळ
अनुभूति २
दैनिक ‘सनातन प्रभात’ की बिक्री करने के उपरांत पैसे अन्यों के घर जाकर मांगने में अहं के कारण लज्जा आती है, इस बात का भान होना एवं ऐसा लगना कि अहं नष्ट करने के लिए ही प.पू. डॉक्टरजी ने दैनिक वितरण करने की सेवा दी है : एक गांव में मेले के निमित्त से अध्यात्मप्रसार करना था । उसी के अंर्तगत मुझे दैनिक ‘सनातन प्रभात’ के अंक वितरण करने की सेवा मिली थी । दैनिक का वितरण करते समय दो अलग-अलग घरों में दो रुपए (उस समय दैनिक का देयमूल्य ‘दो रुपए’ था ।) के छुट्टे न होने के कारण उन घर के लोगों ने दैनिक के अंक वापस कर दिए । तब मैंने उन से कहा कि ‘‘आप दैनिक लें और पढें । आज सायं अथवा कल मैं दो रुपए ले जाऊंगा ।’’ उन्होंने इस बात को मान्य कर लिया । शाम को ‘ग्रंथ-प्रदर्शनी एवं बिक्रीकेंद्र’ पर सेवा करते समय मुझे उन से दो रुपए लेने का स्मरण हुआ । उस समय मेरे मन में विचार आया कि ‘केवल चार ही रुपए तो हैं । रहने देते हैं । नहीं जाएंगे ।’ तब मुझे भान हुआ कि ‘उस घर में जाकर दो रुपए मांगने में मुझे लज्जा आ रही है, क्योंकि मेरा अहं जागृत हो रहा था ।’ यह भान होते हुए भी मैं एक साधक को साथ में लेकर एक घर में गया । वहां उन्होंने तुरंत दो रुपए दे दिए । ‘मैं साधक को साथ में लेकर गया यानी अभी भी मेरा अहं जागृत है ।’, इस बात का मुझे तीव्रता से भान हुआ । ‘मुझे यह सेवा अहं अल्प करने के लिए प.पू. डॉक्टरजी ने दी है’, ऐसा लगा । इसके उपरांत दूसरे घर में पैसे मांगने के लिए मैं अकेला ही गया । उसी समय मेरी प.पू. डॉक्टरजी से प्रार्थना भी हुई कि ‘मेरा अहं शीघ्र ही अल्प करेेंं ।’ उस घर से दैनिक के पैसे लेकर बाहर निकलने पर बहुत ही हलका प्रतीत हो रहा था ।
– श्री. प्रशांत लक्ष्मण चणेकर, डिचोली, गोवा.
अनुभूति ३
‘मुझमे अहं अधिक नहीं है, ऐसा लगना भी अहं की अधिकता का संकेत है’, इस बात का बोध होना : मुझे लगता था, मुझमें अधिक अहं नहीं है । अंजली दीदी ने (सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळ) ने़ सूक्ष्म से निरीक्षण कर बताया कि मुझमें अहं अधिक है । ‘मुझमें अहं अधिक नहीं है, ऐसा लगना’ भी अधिक अहं का संकेत है ।
अल्प बोलने में भी अहं होता है, इसका भान होना : सद्गुरु (श्रीमती) अंजली दीदी ने अहं घटाने के प्रयत्नों का एक आवश्यक भाग बताया – सब से बातें करना एवं सबके साथ मिलजुलकर रहना । उस समय मन में विचार आए कि ‘बचपन से ही मैं मितभाषी (अल्पभाषी) हूं, ऐसे स्वभाव के कारण अहं कैसे बढ सकता है !’ फिर विचार आया कि ‘जैसा अंजलीदीदीने कहा है, वैसा ही करूंगी; क्योंकि ईश्वर को यही अपेक्षित है । उन्होंने कहा है, इसलिए १०० प्रतिशत मुझमें परिवर्तन होगा ।’ तब ‘मन में शंका उत्पन्न होना’ भी अहं का ही संकेत है ।
प्रतिक्रिया द्वारा व्यक्त अहं का बोध होना : रसोई-विभाग में मुझे सवेरे अल्पाहार बनाने की सेवा दी गई । एक बार अल्पाहार बनाते हुए देखा कि डिब्बे में जीरा नहीं है । जीरा खोजने में ही १५-२० मिनट लग गए । उस समय मन में प्रतिक्रिया आई कि जीरा समाप्त होने की बात कल रात को भोजन बनानेवाले को पता चली होगी । कोई वस्तु समाप्त हो जाती है, तो वह पुनः भरकर क्यों नहीं रखते ? अल्पाहार में विलंब हो जाता है । ‘अल्पाहार मैं बना रही हूं’ इस भान के कारण प्रतिक्रिया आई । ‘ईश्वर मुझ से सेवा करवाते हैं’, यदि ऐसा विचार होता, तो नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं आती । यह भान हुआ कि ‘अल्पाहार के लिए आवश्यक सामग्री है अथवा नहीं, इसपर ध्यान देना मेरा ही उत्तरदायित्व है’ । अगले दिन से सबकुछ उचित ढंग से करने के प्रयत्न आरंभ हुए और अल्पाहार भी निर्धारित समय से पहले ही बनने लगा । उस दिन से अन्य सेवाओं में भी इस प्रकार की प्रतिक्रियाओं की मात्रा अल्प हुई एवं स्वयं पर ध्यान रहने लगा ।
शुद्धलेखनवर्ग में अपनी चूकों को स्वीकारने की सिद्धता से अहं घट जाना : लेखन को सुधारने के लिए प्रतिदिन आश्रम में वर्ग का आयोजन होता था, जिस की पद्धति कुछ ऐसी थी – एक साधक कुछ पढकर सुनाते एवं अन्य साधक उसे लिख लेते; तदुपरांत वही सूत्र मूल प्रति से मिलाया जाता, यह जांचने के लिए कि हमारा लेखन शुद्ध है या नहीं । सूत्र पढते समय किसी शब्द में चूक होती, तो अन्य साधक बताते । इससे अपनी चूकों को शांत मन से स्वीकारने की सिद्धता हुई । इससे पहले यदि कोई मेरी चूक बताता, तो मुझे तुरंत क्रोध आ जाता था ।
– कु. सुरेखा संभाजी चव्हाण (पहले सूक्ष्म विभाग में सेवारत साधिका)
अनुभूति ४.
‘मैं अहं घटाने का प्रयत्न कर रहा हूं, ऐसा कहना भी अहं का ही एक लक्षण है’, इस बात का बोध होना : मुझमें बहुत अहं था । इसे घटाने के लिए, मैं अन्य साधकों के साथ फोंडा (गोवा) के सनातन आश्रम में सीखने गया था । जब साधक मुझे आश्रम में आने का उद्देश्य पूछते तो मैं बताता कि हम अहं घटाने का प्रयत्न कर रहे हैं । फिर श्रीमती मंगला मराठे ने मुझे ध्यान दिलाया कि ‘मैं अहं घटाने का प्रयत्न करता हूं’, ऐसा विचार भी अहं का लक्षण है ।
‘अहं जागृत होने के प्रसंगों का भान करवाएं’, ईश्वर से यह प्रार्थना करने पर बोध होना : पू. (श्रीमती) गाडगीळ ने बताया, ‘अहं का लय हो’, ऐसी प्रार्थना करने की अपेक्षा बोलो कि ‘अहं जागृत होने के प्रसंगों का भान करवाएं ।’ ऐसी प्रार्थना करने पर पता चलने लगा कि ‘छोटी-छोटी बातों में मेरा अहं कैसे उभर आता है ।’ इसके दो उदाहरण आगे दिए हैं ।
१. एक बार आश्रम में भंडारगृह में अनाज भरते हुए, मेरे साथ सेवा कर रही साधिका से थोडा अनाज बिखर गया । यह देखकर मन में प्रतिक्रिया उठी कि उचित ढंग से भरा होता, तो नहीं बिखरता । उसी समय मुझ से बहुत सारा अनाज बिखर गया । ईश्वर ने इस प्रसंग द्वारा मुझे ध्यान दिलाया कि ‘मैं उस साधिका की तुलना में अच्छे ढंग से अनाज भरता हूं’, इस बातका अहं न हो ।
२. मुझे ठंडे पानी से स्नान करने की आदत है । एक दिन जब एक साधक स्नान के लिए तपा हुआ पानी ला रहे थे, तो मैंने उन से कहा, ‘आपकी आयु के युवक स्नान के लिए तपा हुआ पानी क्यों लेते हैं ? ठंडे पानी से स्नान करना चाहिए ।’ उसी दिन ठंडे पानी से स्नान करने पर मुझे ‘वात’के कारण कष्ट हुआ और हाथ पैर फूल गए । तुरंत ही उस साधक से अहंकार से बोलने के लिए ईश्वर से क्षमा मांगी एवं इसका भान दिलाने के लिए कृतज्ञता भी व्यक्त की ।
‘ईश्वर से भीख मांगना’ इस विषय पर चिंतन होना : फरवरी २००५ में ‘ईश्वर से भीख मांगना’ इसपर मेरा आगे दिए अनुसार चिंतन हुआ – ‘सामान्यतः भिखारी दिखने में काला-सांवला होता है एवं उसके कपडे फटे हुए होते हैं । ईश्वर की दृष्टि में मैं भी एक भिखारी ही हूं क्योंकि मेरा मन रज-तम गुणों से दूषित हो काला हो गया है एवं स्वभावदोषों के कारण वह कपडे की भांति फट गया है । इस कारण मैं ईश्वर की राजसभा में हक अथवा अधिकार से कुछ भी नहीं मांग सकता । इसलिए ईश्वर के पास भीख ही मांगनी चाहिए । शरणागत भाव एवं आत्र्तता से ही याचना करनी चाहिए ।’
– अधिवक्ता योगेश वामनराव जलतारे (पहले सूक्ष्म विभाग में सेवारत साधक)
अनुभूति ५.
हावभाव द्वारा व्यक्त होनेवाले सूक्ष्म अहं का भान होना : एक बार गाडी में मैं अकडकर, सीट पर हाथ रखकर बैठी थी । उसी क्षण विचार आया, ‘प.पू. डॉक्टरजी यदि साथ होते, तो क्या मैं इस प्रकार बैठती ?’ इस प्रसंग के पश्चात मैं उचित ढंग से बैठने लगी । हावभाव द्वारा भी सूक्ष्म अहं किस प्रकार व्यक्त होता है, इसका तीव्रता से भान हुआ ।
– श्रीमती मंगला पांडुरंग मराठे