अहं को दूर करने के उपाय
इसके चार प्रकार हैं –
अ. मानसशास्त्रानुसार,
आ. कर्मयोगानुसार,
इ. ज्ञानयोगानुसार,
ई. भक्तियोगानुुसार एवं
उ. गुरुकृपायोगानुसार
अ. मानसशास्त्रानुसार अहं को दूर करने के उपाय
१. स्वभावदोष घटाना
प्रत्येक में ही कुछ स्वभावदोष होते हैं । स्वभावदोष होना अहं का ही भाग है । चित्त के रुचि-अरुचि, वासना, स्वभावादि केंद्रों के संस्कार जब घटने लगें, तो तदनुरूप अहं भी घटने लगता है । इन संस्कारों के क्षय का एक उपाय है, स्वसूचना देना । इस संदर्भ में अधिक विश्लेषण सनातन के ग्रंथ ‘स्वभावदोष-निर्मूलन प्रक्रिया (स्वसूचनाओं द्वारा स्वभावदोेष-निर्मूलन)’ में किया गया है ।
व्यक्ति के अहं का पूर्णतः निर्मूलन होने के लिए स्वभावदोष-निर्मूलन के साथ-साथ, सूत्र ‘अहं को घटाने हेतु साधना के महत्त्वपूर्ण घटक’ के अंतर्गत दिए गए अन्य प्रयत्न भी सातत्य से करना आवश्यक है ।
२. अपनी भूल-चूक स्वीकारने की वृत्ति
पहले चरण में चूक स्वीकारना सीखें; दूसरे चरण में अपनी चूक के लिए ईश्वर से एवं जिस व्यक्ति के संदर्भ में वह चूक हुई है, उन से क्षमा मांगें । इस से अहं को क्षीण करने में सहायता मिलती है ।
३. नम्रता
एक सुवचन है – ‘विद्या विनयेन शोभते ।’ प्रत्येक व्यक्ति एवं वस्तु के प्रति हम जितने नम्र होंगे, उतनी शीघ्रता से अहं भी घटेगा ।
४. अन्यों से सीखने की वृत्ति रखना
निरंतर अन्यों को सिखाने की अपेक्षा अन्यों से सीखने की वृत्ति रखनी चाहिए | जहां अज्ञान (अर्थात मैं कुछ नहीं जानता) हो, वहां अहं नहीं होता।
५. प्रशंसा की अपेक्षा न रखना
सब कुछ गुरु / ईश्वर की इच्छानुसार अथवा नियमानुसार हो रहा है, ऐसा भाव सदैव रखें, तो प्रशंसा की अभिलाषा नहीं होती । यदि कोई हमारी प्रशंसा करे, तो उस प्रशंसा का रूपांतर साधना की दृष्टि से कुछ सीखने में करने से प्रशंसा का अहंकार नहीं होता ।
६. मान की अभिलाषा न रखना
‘मेरा सम्मान हो, मुझे सम्मान मिले’, ऐसा लगने से अपने ‘मैं’पन का पोषण होता है ।
७. अपनी तुलना श्रेष्ठ लोगों से करना
बचपन की अहंरहित वृत्ति, बडे होने पर दो विशेष कारणों से नष्ट हो जाती है – विद्या एवं धन । इन्हीं दो कारणों से ऐसी वृत्ति बनती है कि ‘मैं बहुत कुछ जानता हूं और मैं श्रेष्ठ हूं ।’ यही वृत्ति आगे चलकर हमारे लिए घातक सिद्ध होती है । संत कबीर अपनी भक्ति की तुलना गोपियों की भक्ति के साथ करते हुए कहते हैं –
कबीर कबीर क्या कहे । जाये जमुना तीर ।
एक गोपी के प्यार में । बह गये लाख कबीर ।।
८. छोटे बच्चोंके संग खेलना
छोटे बच्चों के साथ खेलने से, हम अपनी ‘महानता’ को थोडा-बहुत भूल जाते हैं ।
९. अपने संबंध में अन्यों को कुछ न बताना
अपने सुख-दुःख, प्रापंचिक कामकाज आदि संबंधी जो अन्यों को अधिक बताता है, उसमें देहबुद्धि होती है । अपने विषय में अन्यों को कुछ न बताने से देहभान अपनेआप ही घटने लगता है ।
१०. परेच्छा से वर्तन करना
परिजनों के साथ स्वेच्छा से नहीं, परेच्छा से वर्तन करना चाहिए | ‘स्वयं को अन्यों से भिन्न समझना’, अहं का ही एक लक्षण है ।
११. अन्यों के साथ बोलते समय –
१. अनेक बार अपने अथवा अन्य साधकों के स्वभावदोषों के कारण हमारी उनके साथ नहीं बनती । ऐसे में उस साधक को केवल ‘एक व्यक्ति’ न समझकर ‘ईश्वर का एक लघुरूप’ मानें एवं उसके साथ आत्मीयता बढाने का प्रयत्न करें ।
२. किसी व्यक्ति के समक्ष तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त न करना
३. सामनेवाला व्यक्ति कुछ बोल रहा हो, तो बीच में न बोलना
४. धीमे स्वर में एवं नम्रतापूर्वक बोलना
आ. कर्मयोगानुसार अहं को दूर करने के उपाय
मनुष्य को अपने नाम, पद, कर्तृत्व आदि का बहुत अहं होता है । परेच्छा या आज्ञापालनसे कर्म करने पर ऐसा अहं धीरे-धीरे घटने लगता है ।
इ. ज्ञानयोगानुसार अहं को दूर करने के उपाय
१. ‘मैं’, ‘मेरा’ कहने से बचना
अपने विषय में ‘मैं’, ‘मेरा’ न कहें । ‘ऋषि-मुनि एवं संत-महात्मा ‘मैं’ से बचते थे । अनेक ऋषि-मुनियों ने अपने नाम वेद-उपनिषदों में नहीं लिखे । अत: अनेक आध्यात्मिक लेखों में ऋषि-मुनियों ने इस प्रकार लिखा है –
अ. ‘आपने जो प्रश्न किया है, वही प्रश्न किसी ने महर्षि नारद से किया था । उन्होंने जो उत्तर दिया, वही मैं आपको बताता हूं ।’
आ. ‘एक बार ब्रह्मदेव से यह प्रश्न पूछा गया, तो ब्रह्मदेव ने उसका उत्तर इस प्रकार दिया ।’
इ. ‘पार्वती के प्रश्न के उत्तर में शिवजी ने कहा ।’
२. विश्वकी व्हृाापकता से अपनी तुलना करना
अठारह विश्व हैं । प्रत्येक विश्व में अनंत कोटि ब्रह्मांड हैं । उनमें से एक ब्रह्मांड में हमारी एक पृथ्वी है । पृथ्वी पर अनंत कोटि जीवों में मैं एक हूं, अर्थात सागर के तट पर अनंत कोटि बालू के कणों से भी गौण मैं हूं’, ऐसा विचार करने से अहं अल्प होता है ।
ई. भक्तियोगानुसार अहं दूर करने के उपाय
१. ‘देह मेरा नहीं, मैं परमेश्वरका हूं’, इसका सदैव भान रखना
‘देह मेरा नहीं, मैं परमेश्वरका हूं’, इसका सदैव भान रखना चाहिए । – श्री गोंदवलेकर महाराज
संतों में देहभान नहीं होता । वे देवता से कितने एकरूप हो चुके होते हैं, यह उनके बोलचाल में भी कैसे व्यक्त होता है, आगे दिए उदाहरण से स्पष्ट होगा । महाराष्ट्र के जनपद सिंधुदुर्ग में बांदा के संत प.पू. दास महाराज (प.पू. रघुवीर महाराज) हनुमानभक्त हैं । एक बार एक व्यक्ति प.पू. दास महाराजजी को अंट-संट बोला । तब प.पू. दास महाराजजी ने हनुमानजी से कहा, ‘‘मुझे नहीं, उन्होंने आपको कहा है । मुझ से यह सहन नहीं होता ।’’ अर्थात प.पू. दास महाराजजी को नहीं लगा कि अनाप-शनाप बोलनेवाले व्यक्ति ने उनके लिए कुछ कहा है । संत ईश्वरसे इतने एकरूप हो चुके होते हैं, इसीलिए उनमें अहं बहुत अल्प रहता है ।
२. ‘मैं भगवान का हूं’ ऐसा भाव रखना
भगवान के विषय में ऐसा ही भाव रखें कि ‘मैं भगवान का हूं’ । इससे सतत मन से भगवान की सेवा करने की इच्छा होती है ।
३. भान रखना कि सबकुछ परमेश्वर का है
भान रखना कि सबकुछ परमेश्वर का है, वे सर्वत्र हैं और वे ही सबकुछ करते हैं । इससे ‘स्व’के विचार अल्प होंगे तथा परमेश्वर के प्रति भाव बढेगा ।
श्री गुरुदेव रानडे को इस आशय का एक निमंत्रण पत्र मिला – ‘अमावस्या के दिन से हम सप्ताह (पाठ) करनेवाले हैं । आप भी पधारें ।’ इस निमंत्रण को पढकर गुरुदेव बोले, ‘‘हम करनेवाले हैं, का क्या अर्थ है ? ‘होनेवाला है’, ऐसा लिखना चाहिए था ।’’
परमार्थ के समान प्रपंच में भी भाव रहे कि ‘ईश्वर ने किया’ । उदा. ‘मैंने सीखा’ की अपेक्षा भाव रखें कि ‘ईश्वर ने सिखाया’, ‘ईश्वरने नौकरी दिलवाई’, ‘ईश्वरने मेरा विवाह करवाया’ । भूख, नींद, छींक, उबासी जैसी देह संबंधी छोटी-छोटी क्रियाओं पर भी जहां हमारा कोई नियंत्रण नहीं है, वहां भला हम किस बात का ‘अहं’ रखें !
४. भगवान के चरणों में संपूर्ण शरणागत होना
महाभारत में एक प्रसंग है । चौसर में पांडव कौरवों से हार जाते हैं । उस समय, दुर्योधन दुःशासन को पांडवों की भार्या द्रौपदी को राजदरबार में लाकर निर्वस्त्र करने की आज्ञा देता है । अंततः द्रौपदी श्रीकृष्ण का स्मरण करती हैं; श्रीकृष्ण आते हैं और द्रौपदी के वस्त्र बढाते हुए उनकी लाज बचाते हैं । तदुपरांत द्रौपदी श्रीकृष्ण से पूछती हैं, ‘‘आपने आने में इतना विलंब क्यों किया ?’’ उत्तर में श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘‘जबतक तुमने अपने वस्त्र पकड रखे थे, तबतक तुम्हें आशा थी कि मैं स्वयं अपनी लाज बचा सकती हूं’; परंतु जब तुमने यह जानकर कि ‘लाज बचाना संभव नहीं’, तब तुम पूर्णतः शरणागत हुर्इं और मैं तुम्हारी सहायता के लिए आया ।’’
५. प्रार्थना
प्रार्थना का अर्थ है, ‘भगवान के समक्ष विनम्र होकर इच्छित वस्तु उत्कंठा से मांगना’ । (जिसके गुरु हों, वह साधक अपने गुरु से ही प्रार्थना करता है ।) किसी प्रसंग में भगवान से प्रार्थना करने से हमारी असमर्थता व्यक्त होती है, साथ ही कर्तापन भी अपनी ओर नहीं रहते हुए ईश्वर की ओर रहता है । प्रार्थना के उपरांत गुरु अथवा भगवान ‘तथास्तु’ कहते हैं, इसलिए प्रार्थना का अपेक्षित फल मिलता ही है; इसके अतिरिक्त ‘गुरु अथवा भगवान ही यह कार्य करवा रहे हैं’, ऐसा भाव उत्पन्न होने से कार्य के संबंध में अहं निर्मित नहीं होता ।
प्रार्थना के कुछ उदाहरण
अ. ‘हे गुरुदेव / भगवान, आप ही ध्यान दिलाइए कि ‘मेरा अहं किन बातों से बढता है ।’
आ. ‘हे गुरुदेव / भगवान, मुझे ऐसे व्यक्तियों से मिलवाइए अथवा मेरे जीवन में ऐसे प्रसंग लाइए, जिन से अहं को घटाने में सहायता मिले ।’
इ. दास्यभाव बढाने हेतु प्रार्थना : ‘हे ईश्वर / गुरुदेव, आप अनंत रूप धारण कर सर्व साधकोंपर कृपा करते हैं । आप यह सर्व हमारे लिए ही करते हैं । हम आपके दास हैं । हनुमानजी समान दास्यभक्ति करना आप ही मुझे सिखाइए । ऐसा करने से मैं आपकी परिपूर्ण सेवा कर पाऊंगा । सद्गुरुनाथ, आपकी कृपा के बिना हम कुछ भी नहीं कर सकते । ‘करन-करावनहार आप ही हैं’, यह भान हमें सतत रहे । हमपर कृपा कीजिए कि हमारा अहं न बढे । गुरुदेव आपकी कृपा नहीं होगी, तो तुरंत हम में ‘कर्तापन’ आ जाता है । हम आपके दास हैं, इसका हमें निरंतर भान होने दीजिए ।’
अहं को घटाने में प्रार्थना के सहायक होने के संदर्भ में हुई अनुभूति
१. देवदर्शन के लिए जाना अपने हाथ में है, इस प्रकार का अहं रखनेवाले साधक को निकलने से पूर्व तीव्र कष्ट होना एवं ‘आपके दर्शन के लिए आप ही मुझे ले जाएं’, ऐसी प्रार्थना करनेपर कष्ट का निवारण होना : ‘एक बार मुझे हरेश्वर के दर्शनके लिए जाना था । यात्रा के दो दिन पूर्व वहां के पंडित ने भगवान से मेरे लिए आशीर्वाद मांगा कि मैं हरेश्वर आऊं । जब मुझे इसका पता चला तो मैंने कहा, ‘‘मैं तो जाऊंगा ही । इतनी छोटी-छोटी बातों के लिए आशीर्वाद क्यों मांगते हो ?’’ हरेश्वर की यात्रा के लिए सवेरे ६ बजे निकलना था । उस दिन प्रातःकाल ४ बजे ही पेट में तीव्र वेदना होने लगी । फिर हरेश्वर भगवान से ही प्रार्थना की, ‘आप के दर्शन के लिए आप ही मुझे ले जाएं ।’ इसके पश्चात कोई कष्ट नहीं हुआ । इस से प्रार्थना का सामथ्र्य समझ में आया एवं अपने विषय में अहं अल्प होने में सहायता हुई ।’ – एक साधक
किसी कार्य की पूर्ति के लिए केवल प्रार्थना ही पर्याप्त नहीं होती; प्रार्थना के साथ प्रयत्न भी आवश्यक है । ‘प्रयत्नान्ति परमेश्वर’ उक्ति के अनुसार परमेश्वर हमारी सहायता करते हैं । यदि प्रयत्न की वृत्ति हममें न हो, तो परमेश्वर भी हमारी सहायता नहीं करते ।
६. कृतज्ञता
शरणागति की प्रक्रिया कृतज्ञता व्यक्त किए बिना पूर्ण नहीं होती । कृतज्ञता द्वारा कर्तापन ईश्वर / गुरु को अर्पण किया जाता है, इसलिए अहं को अल्प करने में सहायता मिलती है ।
जिस ईश्वर के कारण हम श्वास ले पाते हैं, उनके प्रति केवल शाब्दिक कृतज्ञता व्यक्त करने से पूर्ण लाभ नहीं होता । ईश्वर के प्रति कृतज्ञता हमारे आचरण में दिखाई देनी चाहिए । ईश्वर का नाम सदैव मुख में रहे, ईश्वर के बच्चों का अर्थात समस्त जनों का उद्धार हो, अर्थात ईश्वरप्राप्ति हेतु उन्हें अध्यात्मज्ञान अविरत देने से यह ईश्वर के प्रति सच्ची कृतज्ञता होगी । यदि सतत भान रहे कि करन-करावनहार ईश्वर की कृपा से ही आध्यात्मिक उन्नति हो रही है, तो साधना का अहं नहीं होता ।
तुलसी-तुलसी क्या करे तुलसी बन की घास ।
कृपा हुई श्रीराम की तो बन गए तुलसीदास ।।
– संत तुलसीदास
ई. गुरुकृपायोगानुसार अहंं दूर करने के उपाय
भक्तियोगानुसार अहंं दूर करने के उपाय के सर्व सूत्र यहां भी लागू होते हैं । केवल इस साधनामार्ग में निर्गुणरूपी ईश्वर की अपेक्षा सगुणरूपी ईश्वर, अर्थात गुरु ही साधकों के भगवान होते हैं । इस साधनामार्ग में शिष्य गुरु के पास अथवा दूर रहते हुए, गुरु के बताए अनुसार साधना करता है । गुरु की कृपा से शिष्यका अहं शीघ्र घटता है, इसलिए किसी भी अन्य साधनामार्ग की तुलना में इस मार्ग में अहं-निर्मूलन की प्रक्रिया शीघ्र होती है ।
१. गुरु की आज्ञा में रहना एवंं गुरु के लिए भिक्षा अथवा गुरुकार्य के लिए दान मांगना
संन्यास धर्म में भिक्षा मांगना सिखाया जाता है । भिक्षा अथवा दान मांगते हुए यदि परिचित लोग ‘नहीं’ कह दें, तो अपेक्षा भंग होती है और अन्यों से मांगने पर जब भिक्षा न मिले, तो अपमान होता है । यह सब सहना आना चाहिए, इसलिए गुरु अपने शिष्य की देहबुद्धि घटाने के लिए भिक्षा, दानादि मांगने की आज्ञा देते हैं ।
२. गुरु के सान्निध्य में रहना
गुरु के सान्निध्य में रहने से अहं शीघ्र घटता है । इसके कारण आगे दिए हैं ।
अ. गुरु के उपदेश एवं कृत्य से अहं को घटाना सीख सकते हैं ।
आ. गुरु के डांटने से अहं घटता है ।
इ. गुरु के सान्निध्य में नामजप अपने आप होता है, इसलिए अहं नहीं होता कि ‘मैं नामजप करता हूं’ ।