अहं को घटाने हेतु साधना के महत्त्वपूर्ण घटक क्या हैं ?
ईश्वर से एकरूपता पाने हेतु प्रतिदिन जो प्रयत्न किए जाते हैं, उन्हें साधना कहते हैं । संक्षेप में, दिनभर में जितना समय हम अधिकाधिक साधना करेंगे, उतनी शीघ्रता से हमारा अहं अल्प होगा ।
अ. सेवा
१. किसी सेवा को श्रेष्ठ तो दूसरी को कनिष्ठ न समझें । भाव ऐसा रहे कि ‘ सेवा अपने तन, मन, धन, बुद्धि एवं अहं को अर्पण करने का माध्यम है ।’ सेवा में ‘सेवक’ का भाव हो । साधक में ऐसा भाव होना चाहिए कि ‘मैं उत्तम ढंग से सेवा करना चाहता हूं; परंतु करन-करावनहार गुरु अथवा ईश्वर हैं’ । जब लगे कि ‘अमुक सेवा मेरे कारण हुई’, तो समझो वह सेवा व्यर्थ चली गई ।
२. शूद्रवर्ण की सेवा से अहं को शीघ्र घटाने में सहायता मिलती है, उदाहरणार्थ बर्तन मांजना, बुहारना इत्यादि ।
३. दैनिक जीवन के सर्व कामकाज को सेवा के रूप में ही करने का प्रयत्न करें, उदाहरणार्थ‘ अपने कपडे इस्त्री करना भी गुरु सेवा ही है’, ऐसा भाव रहेगा तो सेवावृत्ति बढाने में सहायता मिलेगी । ‘मैं सेवक हूं’, यह भाव जितना अधिक होगा, उतनी मात्रा में अहं भी शीघ्र घटेगा ।
आ. त्याग
१. अहं को नष्ट करने के लिए स्वार्थ का त्याग आवश्यक है । स्वार्थ के तीन प्रकार हैं, कायिक, वाचिक एवं मानसिक ।
कायिक स्वार्थ – अन्यों के लिए अपनी देह को कष्ट न उठाना पडे, इस पर ध्यान देना ।
वाचिक स्वार्थ – मेरे शब्दों का सर्व मान रखें एवं मैं किसी से कुछ अधिक बोल भी दूं, तो लोग चुपचाप सुन लें’, ऐसी मनोवृत्ति ।
मानसिक स्वार्थ – मेरे मतानुसार ही सब आचरण करें’ ऐसी वृत्ति ।
२. मन को भानेवाली वस्तु किसी और को देने का अर्थ है, अपनी रुचि का त्याग । ऐसा करने पर ‘स्व’ से जुडे विचार धीरे-धीरे न्यून होने लगते हैं और अहं घटता है ।
३. मन से अपने घर को गुरुचरणों में अर्पित कर, उसे इसी भाव से संभालें कि ‘मैं गुरु के घर का विश्वस्त हूं । ऐसे भाव के कारण घर की वस्तुओं के प्रति अहं घटने लगता है।
४. अन्य साधक की सेवा शीघ्र हो, इस हेतु प्रयत्न करने का अर्थ है अपने समय का त्याग ।
ईश्वरचरणों में सर्वस्व अर्पण करने हेतु चरण-दर-चरण तन, मन, धन एवं प्राण का त्याग आवश्यक है ।
इ. प्रीति (निरपेक्ष प्रेम)
सामान्य व्यवहार में हम जिससे प्रेम करते हैं, उससे कुछ अपेक्षाएं रखते हैं । ईश्वर एवं ईश्वर द्वारा रचित संपूर्ण सृष्टि के विविध अंगों से किसी भी प्रकार की अपेक्षा न रख, केवल प्रेम करना ही ‘प्रीति’ है । जितना हम अन्यों के आध्यात्मिक हित का विचार अधिक करेंगे, उतने परिमाण में स्वयं से संबंधित विचार घटेंगे एवं मन के व्यापक बनने में सहायता मिलेगी । ऐसा करते हुए शनैः-शनैः हम ‘संपूर्ण विश्व ही मेरा घर है’ की अवस्था तक पहुंच पाएंगे ।
ई. नामजप
भगवान का नाम अहं स्थिति को भुलाने का उत्तम साधन है । साधक को नामजप में मग्न होकर अपनेआप को भूल जाना चाहिए, नाम से एकरूप हो जाना चाहिए । – प.पू. भक्तराज महाराज
१. नामजप के द्वारा अहं अल्प होने के संदर्भ में अनुभूतियां
(‘देवता के नामजप में कितनी शक्ति है’, यह इस अनुभूति से स्पष्ट होगा । अर्थात नामजप की शक्ति का अनुभव लेने के लिए नामजप उत्कंठा के साथ एवं भावपूर्ण ढंग से करना आवश्यक है ।)
अनुभूति – ‘२७.८.२००३ के दिन मैं श्री दुर्गादेवी का नामजप कर रहा था । तब ऐसे लगा जैसे श्री दुर्गादेवी बहुत सारे शस्त्र छोड रही हैं । यह सर्व शस्त्र मेरे ‘अहं’ को लग रहे हैं । मन में विचार आया, ‘आज मेरा अहं पूर्णतः नष्ट होनेवाला है क्या ?’ तुरंत दूसरा विचार आया, ‘श्री दुर्गादेवी मेरा अहं चरण-दर-चरण नष्ट करनेवाली हैं ।’ नामजप समाप्त होने पर मुझे ध्यान में आया कि अहं थोडा-बहुत घटा है । मैं कई माह से अपना अहं अल्प करने का बहुत प्रयत्न कर रहा था । मन में उत्पन्न हुई प्रतिक्रिया व्यक्त न करना, किसी भी बात का दुःख न होना जैसे प्रयत्न जानकर करते समय मन पर बहुत तनाव आता था । श्री दुर्गादेवी के नामजप के उपरांत अनुभव हुआ कि प्रतिक्रिया आना एवं किसी भी बात का दुःख होना अपनेआप रुक गया ।’ – वैद्य मेघराज पराडकर, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.