अहं के कारण क्या हानि होती है और इसे नष्ट करना महत्त्वपूर्ण क्यों है ?
१. सामान्य व्यक्ति अहं के कारण दुःख भोगता है !
‘मैं करता हूं’ कहोगे । तो तुम दुःख पाओगे ।
‘राम करता है’ मानोगे । यश-कीर्ति-प्रताप पाओगे ।
– श्री दासबोध
अहं जितना अधिक होगा, व्यक्ति उतना ही दुःखी होगा । मानसिक रोगियों का अहं सामान्य व्यक्ति की तुलना में अधिक होता है; इसलिए वे अधिक दुःखी होते हैं । इसके विपरीत, संत मानते हैं कि सब कुछ परमेश्वर का है, किसी पर भी अपना अधिकार नहीं है, इसलिए वे कभी दुःखी नहीं होते, सदैव आनंद में रहते हैं ।
२. पाठ, होम-हवन, नामजप इत्यादि में अहं की भावना
रखने से विघ्न उत्पन्न होते हैं । अहं न हो, तो विघ्न नहीं आते ।
३. ‘मैं’ पन की भावना होने पर दान का लाभ नहीं होता है !
अ. महाभारत में एक कथा है । एक ब्राह्मण एवं उसके परिजनों ने भूखे रहकर अपने हिस्से का अन्न द्वार पर आए एक वृद्ध अतिथि को भिक्षा रूप में दे दिया । वृद्ध अतिथि अन्न ग्रहण कर तृप्त हुआ । तदुपरांत अतिथि ने हाथ धोए । इतने में वहां एक नेवला आया और जहां उस अतिथि ने हाथ धोए थे, उसी स्थान के जल से नेवले ने अपने शरीर को भिगोया । इस से नेवले का आधा शरीर सुनहरा हो गया । यह बात चारों ओर फैल गई । धर्मराज युधिष्ठिर तक यह समाचार पहुंचा, तो उन्हें विचार आया, ‘मैं तो लाखों लोगों को भोजन करवाता हूं । यदि यहां पर नेवला आकर अपना शरीर भिगोए, तो उसका शेष शरीर भी सोने का बन जाए ।’ नेवला आया और उसने वैसा किया; परंतु उसका शरीर सुनहरा नहीं हुआ । धर्मराज ने इसका कारण पूछा, तो भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, ‘‘तुम्हें अहं है कि लोगों को तुम ही भोजन करवा सकते हो, अन्नदान कर सकते हो । इसलिए उस नेवले का शरीर सुनहरा नहीं हुआ ।’’
आ. ‘जहां अहं का अंत होता है, वहीं ओंकार का आरंभ होता है ।’ – प.पू. भक्तराज महाराज
एक बार प.पू. भक्तराज महाराज एवं उनके एक शिष्य के बीच यह संभाषण हुआ ।
शिष्य : अपने खेत, सबकुछ मैं आपको देता हूं ।
बाबा (प.पू. भक्तराज महाराज) : अपने व्यय (खर्च) के लिए अपने पास ही रखो ।
शिष्य : मेरे मरने के उपरांत सबकुछ आपका हो जाएगा ।
बाबा : मरे हुए लोगों का हमें कुछ नहीं चाहिए !
शिष्य : तो क्या करूं ?
बाबा : आगे देखेंगे ।
इस प्रसंग के पश्चात संकलनकर्ता प.पू. डॉ. आठवलेजी ने महाराजजी से प्रश्न किया – बाबा, आपके कहने का उद्देश्य क्या था ?
बाबा : मेरे खेत, मेरा घर, मेरे मरने के उपरांत आदि में ‘मैं’ नहीं होना चाहिए ।
इ. श्री गोंदवलेकर महाराज कहते थे, ‘सर्वस्व न दें तो भी ठीक है; परंतु ‘स्व’ (अहं) अर्पण करना चाहिए ।’ कर्ण ने सर्व दिया; परंतु ‘स्व’ नहीं दिया; इसके विपरीत गीता श्रवण करने पर अर्जुन ने ‘स्व’ अर्पित कर दिया, इसलिए वे भगवान के प्रिय हुए ।