१. ‘अहं’ किसे कहते हैं ?
‘मैं, मेरा एवं मुझ’ से संबंधित अभिमान करना, अहं है । मेरा शरीर और मन, मेरे प्राण, मेरी बुद्धि, मेरी संपत्ति, मेरी पत्नी, मेरी संतान, मुझे सुख मिलना चाहिए इत्यादि विचार अहं के कारण ही निर्मित होते हैं ।
‘प्याज को छीलते जाएं, तो केवल उसके छिलके ही निकलते हैं; सार रूप में कुछ नहीं मिलता। इसी प्रकार विचार करें, तो ‘मैं’ नाम की कोई वस्तु नहीं मिलती । अंततः जो कुछ रह जाती है, वह है आत्मा – चैतन्य ।’
२. अहं-निर्मूलन की प्रक्रिया कैसे होती है ?
इस प्रक्रिया में प्रार्थना एवं कृतज्ञता का महत्त्व क्या है ?
जब जीव को अहं का भान होने लगता है, तब उसे अपने दोषों का भान होता है और अहं-निर्मूलन की दृष्टि से उसके प्रयास आरंभ होते हैं । प्रामाणिक प्रयासों के कारण बाह्यमन के स्थूल दोषरूपी प्रतिक्रियाओं का प्रसारण धीरे-धीरे घटने लगता है । जब यह भान प्रार्थना तथा कृतज्ञता के स्तर पर अधिक होता है, तब अंतर्मन धीरे-धीरे जागृत होकर स्वप्रेरणा से इस प्रक्रिया में सम्मिलित हो जाता है ।अंतर्मन की जागृत अवस्था में चित्त पर अंकित मूल दोषरूपी संस्कार-केंद्रों की प्रसारण क्षमता अल्प होने लगती है । अहं अल्प करने की प्रक्रिया को केवल स्वकर्तृत्व की जोड न देकर, कृतज्ञता की भी जोड देने से कृपा के बल पर अहं शीघ्र घटता है ।
३. अहं नष्ट होने का क्या महत्त्व है ?
जरा रूपं हरति धैर्यमाशा मृत्युः प्राणान् धर्मचर्यामसूया ।
क्रोधः श्रियं शीलमनार्य सेवा ह्रियं कामः सर्वमेवाभिमानः ।।
– महाभारत, उद्योगपर्व, अध्याय ३५, श्लोक ४३
अर्थ : वृद्धावस्था रूप का हरण कर लेती है, आशा धैर्य को नष्ट कर देती है, मृत्यु प्राण हर लेती है, द्वेष धर्माचरण का नाश करता है, क्रोध संपत्ति को नष्ट कर देता है, अनार्य (असंस्कृत) व्यक्तियों की सेवा से शील भ्रष्ट हो जाता है, काम लज्जा को मिटा देता है और घमंड (अहं) सबकुछ नष्ट कर देता है ।
अहं, खेत में उगनेवाली घास समान है । जब तक उसे जड सहित उखाड न दिया जाए, तबतक खेत की उपज अच्छी नहीं हो पाती । घास को निरंतर काटते रहना आवश्यक है । उसी प्रकार, अहं को पूर्णतः नष्ट किए बिना उत्तम उपज अर्थात परमेश्वरीय कृपा संभव नहीं । साधना का उद्देश्य है अहं का नाश (लय)। मनुष्य में अहं अत्यंत गहराई तक होता है; साधना द्वारा भी इस पर नियंत्रण पाना सहज संभव नहीं होता । अहं-निर्मूलन हेतु सतर्कतापूर्वक प्रयत्न आवश्यक हैं ।