गुरुकृपायोग की महिमा
ईश्वरप्राप्ति के लिए कर्मयोग, भक्तियोग, ध्यानयोग, ज्ञानयोग आदि विविध योगमार्ग (साधनामार्ग) हैं । इनमें एक है ‘गुरुकृपायोग’, जिसमें सभी योगमार्गाें का समावेश है । इसीलिए, गुरुकृपायोगानुसार साधना करनेवाले साधक को किसी विशेष साधनामार्ग का आश्रय नहीं लेना पडता, उसकी आध्यात्मिक उन्नति सहज, सर्वांगीण और दूसरे योगमार्गाें की तुलना में शीघ्र होती है । इसलिए, ‘गुरुकृपायोग’ को ईश्वरप्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ ‘सहजयोग’ भी कहा गया है ।
केवल अपने बल पर साधना कर ईश्वर को प्राप्त करना, अति कठिन होता है । इसकी अपेक्षा अध्यात्म के किसी अधिकारी व्यक्ति अर्थात गुरु अथवा संत के मार्गदर्शन में साधना करने से ईश्वरप्राप्ति का ध्येय शीघ्र साध्य होता है । विभिन्न योगमार्गों से साधना करने में अनेक वर्ष व्यर्थ न गंवाकर अर्थात अन्य समस्त मार्गों को छोडकर किस प्रकार शीघ्र गुरुकृपा प्राप्त की जा सकती है, यह गुरुकृपायोग सिखाता है । इस कारण स्वाभाविक ही इस मार्ग द्वारा आध्यात्मिक उन्नति शीघ्र होती है ।
क्या कारण है कि आध्यात्मिक उन्नति के लिए
केवल आसन एवं प्राणायाम विशेष उपयोगी नहीं होते ?
१. आसन एवं प्राणायाम से केवल क्रमश: स्थूलदेह एवं प्राणदेह की शुद्धि हो सकती है, अर्थात उनकी सात्विकता बढती है । इस प्रकार की शुद्धि अन्य साधनामार्गों से भी होती है । अतः आसन एवं प्राणायाम का आध्यात्मिक उन्नति हेतु विशेष उपयोग नहीं होता । फिर भी जो लोग अन्य मार्गों का अनुसरण नहीं कर सकते, उन्हें आसन एवं प्राणायाम से न्यूनतम व्यावहारिक जीवन के लिए उपयोगी शरीरिक स्वास्थ्यलाभ मिलता है । देहशुद्धि का तथा प्रारब्धानुसार प्राप्त दैहिक भोगों का कोई संबंध नहीं है । फिर भी देहशुद्धि से इतना लाभ अवश्य होता है कि इससे प्रारब्धभोग भोगने की शारीरिक क्षमता बढ जाती है ।
२. किसी भी योग से साधना करने पर स्थूल एवं प्राणदेह की अधिकतम शुद्धि २० से ३० प्रतिशत हो सकती है । अत: इन देहों का त्याग किए बिना स्वर्गलोक अथवा अगले लोकों में प्रवेश नहीं किया जा सकता । स्वर्गलोक में प्रवेश मिलने के लिए प्रत्येक देह की न्यूनतम शुद्धि ५० प्रतिशत होना अनिवार्य है । इसीलिए महर्षि विश्वामित्र अपनी तपस्या का अधिकतम बल लगाकर भी अयोध्या के राजकुमार सत्यव्रत को (आगे त्रिशंकु नामसे विख्यात) सदेह स्वर्ग भेजने में विफल रहे ।
३. गुरुद्वारा बताई गई साधना करने से साधना में बाधाएं अल्प आती हैं । इससे साधना में शीघ्र उन्नति होती है ।
ध्यानयोग में मन के निर्विचार होने का
महत्व है; परंतु गुरुकृपायोग में नहीं ! ऐसा क्यों ?
ध्यानयोग की भांति ‘मन निर्विचार होना तथा निर्विकल्प होना’ इस बातको गुरुकृपायोग में विशेष महत्व नहीं दिया गया है; क्योंकि इस अवस्था में साधक पर अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण की आशंका रहती है ।
हठपूर्वक मुद्रा कर साधना करनेकी तुलना में
गुरुकृपायोगानुसार समष्टि साधना करना क्यों अधिक महत्वपूर्ण है ?
उत्तर : इसलिए कि हठपूर्वक मुद्रा कर साधना करने से मुद्राओं में अटकने का भय रहता है ।
हठयोग से कुंडलिनी जागृत करने से किस संकट की संभावना होती है ?
कुछ लोग हठयोग से प्रयत्नपूर्वक कुंडलिनी जागृत करने का प्रयत्न करते हैं । इस मार्ग में कुछ भी हो सकता है । कोई पागल भी हो सकता है; परंतु वही कुंडलिनी गुरुकृपा से जागृत होने पर आपनेआप ऊर्ध्वगामी होकर साधक में पूर्ण परिवर्तन लाती है । कुंडलिनी यदि गुरुकृपा से जागृत हुई हो, तो वह गुरुकृपा ही उस कुंडलिनी को उचित मार्गसे ले जाती है और इस कालावधि में साधक की श्रद्धा भी अपनेआप बैठती है ।
गुरुकृपायोग में इडा, पिंगला एवं सुषुम्ना, इन
तीनों नाडियों की शुद्धि एक ही समय पर कैसे होती है ?
गुरुकृपायोग कर्मयोग, भक्तियोग एवं ज्ञानयोग का त्रिवेणी संगम होने से और इडा नाडी से भक्तियोग, पिंगला नाडी से कर्मयोग एवं सुषुम्ना नाडी से ज्ञानयोग साध्य होने के कारण, गुरुकृपायोग से तीनों नाडियों की शुद्धि एक साथ होती है तथा अन्य साधनामार्गाें से साधना करते समय एक समय पर एक ही नाडी की शुद्धि होती है ।
आध्यात्मिक स्तर के अनुसार किस प्रकार योगमार्ग में परिवर्तन होता है ?
ईश्वरप्राप्ति हेतु हमारे यहां कर्म, ज्ञान और भक्ति, ऐसे अलग-अलग योग मार्ग हैं; परंतु कोई अपनी प्रकृति के अनुसार किसी भी मार्ग से ईश्वरप्राप्ति कर सकता है । अब यह योग मार्ग क्या है ?
१. कर्मकांड
५० प्रतिशत से निम्न आध्यात्मिक स्तर के (टिप्पणी) व्यक्ति कर्मकांडानुसार साधना करते हैं ।
कर्ममार्ग का अर्थ है लोगों को निःस्वार्थ रूप से सहायता करना, निर्धनों को भोजन देना, पानी के प्याऊ लगाना आदि प्रकार के कार्य जो करते हैं, उन्हें हम कर्मयोगी कह सकते हैं । सभी के अंदर परमेश्वर का रूप देखकर वे निःस्वार्थ रूप से सेवा करते रहते हैं । इससे उनकी कर्मयोगानुसार साधना होती है ।
२. भक्तियोग
जिस साधक का आध्यात्मिक स्तर ५० प्रतिशत से अधिक होता है; उसमें पूजाविधि से प्रक्षेपित शक्तितरंगें ग्रहण करने की क्षमता उत्पन्न होती है । ऐसे साधक का आंतरिक चैतन्य भक्ति करने से धीरे-धीरे बढने लगता है । तब उपासना के लिए उसे बाह्य वस्तुओं की आवश्यकता नहीं रहती । तदुपरांत उसकी आध्यात्मिक यात्रा धीरे-धीरे कर्मकांड से उपासनाकांड की ओर, अर्थात मानसपूजा की ओर होती है । ऐसा साधक ही खरा भक्तियोगी होता है ।
कुछ लोग भक्ति द्वारा ईश्वर को अनुभव करने का प्रयास करते हैं । जैसे प्रत्यक्ष भगवान मेरे घर में ही है, यह अनुसंधान रखते हुए दिनभर के कर्म करना अथवा प्रत्येक कर्म मैं भगवान के लिए कर रहा हूं, यह भाव रखना भक्तियोग है ।
३. ज्ञानयोग
जब साधक ‘भाव’ में स्थिर होने लगता है, तब ज्ञानयोग में प्रवेश करता है ।
कुछ लोग ज्ञानयोगी अर्थात शास्त्रों का अध्ययन करना और लोगों को वह सिखाना । ज्ञान द्वारा वे परमेश्वर को समझने का प्रयास करते हैं ।
परंतु इन सभी योग मार्ग की मर्यादाएं हैं । ईश्वरप्राप्ति इस ध्येय को यदि १०० प्रतिशत मानें, तो इन मार्गोंं के द्वारा हम ६० प्रतिशत तक पहुंच सकते हैं ।
४. गुरुकृपायोग (सहजयोग)
अंततः, साधक निराकार प्रकाश के चैतन्य का आलंबन लेकर, गुरुकृपायोग में अथवा सहजयोग में प्रवेश करता है ।
कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग इत्यादि किसी भी मार्गद्वारा साधना की जाए, अंत में गुरुकृपा के बिना ६० प्रतिशत से अधिक उन्नति करना कठिन है । ‘गुरुकृपायोग’ साधनामार्ग में साधक विभिन्न योगमार्गों से साधना करने में समय व्यर्थ न कर, अर्थात इन समस्त मार्गों को छोडकर, किस प्रकार शीघ्र गुरुकृपा प्राप्त करें, यह सिखाता है । इसलिए सहज ही इस मार्ग से शीघ्र उन्नति होती है । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने गुरुकृपायोग के विषय में बताया है । इसमें उन्होंने जो अष्टांग साधना बताई, वह शीघ्र उन्नति का मार्ग है । स्वभावदोष निर्मूलन, अहं निर्मलन, नामस्मरण, सत्संग, सेवा, त्याग, प्रीति और भावजागृति, यह अष्टांग साधना द्वारा हम जलद शिष्य बनकर श्रीगुरु को प्राप्त कर सकते हैं ।
टिप्पणी – प्रत्येक व्यक्ति में सत्व, रज और तम, ये त्रिगुण रहते हैं । जब व्यक्ति साधना, अर्थात ईश्वरप्राप्ति हेतु प्रयत्न आरंभ करता है, तब उसमें रज-तम गुणों की मात्रा घटने लगती है और सत्वगुण की मात्रा बढने लगती है । सत्वगुण की मात्रा पर आध्यात्मिक स्तर निर्भर होता है । सत्वगुणका अनुपात जितना अधिक, उतना आध्यात्मिक स्तर अधिक होता है । सामान्य व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर २० प्रतिशत रहता है । साधना द्वारा ६० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर को प्राप्त व्यक्ति को महर्लोक में स्थान मिलता है । ६० प्रतिशत और उसके आगे के आध्यात्मिक स्तर को प्राप्त व्यक्ति के लिए मृत्यु के उपरांत पुनर्जन्म नहीं होता । ऐसा व्यक्ति आगे की साधना अथवा मानवजाति के कल्याण हेतु स्वेच्छा से पृथ्वी पर जन्म ले सकता है । ७० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर के व्यक्ति की गणना संतों (गुरुओं) में की जाती है । देहत्याग उपरांत उसे जनलोक प्राप्त होता है । ८० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर के व्यक्ति की गणना सद्गुरुओं में और ९० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर के व्यक्ति की गणना परात्पर गुरुओं में की जाती है । उन्हें देहत्याग उपरांत क्रमशः तप और सत्य लोक प्राप्त होता है । मोक्ष को प्राप्त व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर १०० प्रतिशत होता है । तब वह त्रिगुणातीत हो जाता है ।
गुरुकृपायोग में समाहित विविध योगों से सहजयोग के आचरण की प्रक्रिया क्या है ?
१. कर्मयोग एवं भक्तियोग
भाव जागृत होकर, प्रत्यक्ष प्रार्थना के स्तर पर कर्मयोग एवं भक्तियोग का आचरण सहजता से होता है ।
२. ध्यानयोग एवं ज्ञानयोग
अहं-निर्मूलन के विषय में साधक में दृढ भावना होती है कि मैं बहुत अज्ञानी हूं । इस कारण, उसका स्वयं के प्रति चिंतन बढता है । इससे ध्यानयोग (अंतर्मुखता) एवं ज्ञानयोग का आचरण होता है ।
३. सहजयोग
स्वभावदोष-निर्मूलन प्रक्रिया से जीव का स्वभाव पारदर्शक बनता है । इससे सहजयोग का आचरण होता है ।