साधक कौन है व समष्टि साधना से संबंधित विशेषताएं क्या हैं ?
जो सहजता, सुंदरता तथा सानंदता, इन तीन ‘स’कारों सहित कृत्य करने का प्रयास करता है, वह साधक है ।
१. सहजता (जो दिखाई दे, वह कर्तव्य)
‘जो दिखाई दे, वह कर्तव्य’, इस भाव से प्रत्येक कार्य करने पर वह सहज होता है । इससे निरंतर वर्तमान काल में रहा जा सकता है, जिससे भूत और भविष्य काल के विचार घट जाते हैं । परिणामस्वरूप संस्कार घटने में सहायता होती है ।
२. सुंदरता (प्रत्येक कार्य सुंदर, परिपूर्ण करना सीखना तथा आगे दूसरों को भी सिखाना)
कोई भी कार्य स्वयं भली-भांति सुंदर तथा दूसरों को समझ में आए, इस प्रकार करने से दूसरों को भी वह अच्छे से समझ में आता है तथा उससे अन्य जीवों को भी आनंद होता है । ‘यह कार्य मुझे केवल अपने लिए सुंदर नहीं करना, अपितु दूसरों को आनंद देने हेतु करना है’, यह जीव का समष्टि भाव है । समष्टि में कोई कार्य करने के उपरांत उसे सरल बनाकर अन्यों को सिखाना एवं अपने समान दूसरा साधक तैयार करना ईश्वर को अपेक्षित है । सुंदर कृत्य सदैव चैतन्यदायक एवं आनंददायक होते हैं ।
३. सानंदता (प्रत्येक कार्य केवल स्वयं के आनंद तक
ही सीमित न होकर दूसरे को आनंद देने के लिए भी है ।)
सहजता तथा सुंदरता से होते हुए जीव धीरे-धीरे सानंदता की ओर अग्रसर होता है । प्रथम दो चरणों में जीवका ईश्वर से द्वैत होता है । प्रत्येक कार्य सानंदता के साथ करते-करते जीव की यात्रा सायुज्य मुक्ति की ओर शीघ्र हो सकती है ।
गुरुकृपायोग समष्टि साधना से जीव को अर्थ दे, परमार्थ की ओर कैसे प्रवृत्त करती है ?
अ. ‘अर्थ
जीवमें यदि जिज्ञासा हो, तो ‘अर्थ’ समझमें आता है । अर्थ समझना अर्थात ज्ञान होना । ज्ञानके उपरांत समझ में आता है कि हम कितने अज्ञानी हैं ।
आ. सार्थ
जब ज्ञान प्राप्त होता है, उस समय ‘ईश्वर हमारी कितनी सहायता करते हैं’, यह ध्यान में आने से ईश्वर पर जीव की श्रद्धा बढती है एवं उसके पश्चात उसे भान होता है कि ईश्वर पर उसका विश्वास कितना ‘सार्थ’ था । इस प्रकार जीव अर्थ से अर्थात ज्ञान से सार्थकता की ओर बढता है ।
इ. परमार्थ
व्यष्टि साधना करनेवाले जीव को जीवन का केवल अर्थ समझ में आता है; परंतु जब तक वह समष्टि साधना नहीं करता, तब तक वह परमार्थ साध्य नहीं कर सकता । नरजन्म प्राप्त होने के उपरांत, जब जीव को जीवन की सार्थकता का तीव्रता से बोध होता है, तब उसे परमार्थ साध्य होता है । परमार्थ में उसे अपने साथ ही दूसरे के जीवन का भी अर्थ समझ में आता है; तब वह दूसरे जीव को भी अध्यात्म के प्रति प्रवृत्त करने का प्रयास करता है । इसे ही ‘परमार्थ साध्य होना’ अथवा ‘समष्टि साध्य होना’ कहते हैं । परमार्थ साध्य होना, अर्थात समष्टि साधना से श्रेष्ठ मोक्षप्राप्ति की दिशामें मार्गक्रमण । गुरुकृपायोग समष्टि साधना से जीव को अर्थ से परमार्थ की ओर प्रवृत्त करता है ।
साधनाका ‘संधिकाल’ किसे कहते हैं ? इसका महत्व क्या है ?
ईश्वर अपनी योजना के अनुसार किसी युग से संबंधित विशेष कार्य, किसी परात्पर अवतारी जीव के माध्यम से पूरा करते हैं । जो जीव ऐसे ईश्वरीय संकल्पस्रोत से लाभ उठाता है, वह मोक्ष का अधिकारी बनता है । कलियुग में तारक-मारक संयुक्त शक्ति के बलपर ईश्वर अनिष्ट शक्तियों का नाश करते हैं तथा आशीर्वाद देकर साधना करनेवाले जीवों की रक्षा करते हैं । इसके अतिरिक्त वे अनिष्ट शक्तियों को नष्ट करने हेतु आवश्यक विघटनकारी सामर्थ्य प्रदान करते हैं । इससे ऐसे जीव में क्षात्रतेज एवं ब्राह्मतेज का अनूठा संगम होता है, जिससे वे अन्य युगों की तुलना में अल्पकाल में मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं । अत: जिस कलियुग में ईश्वर की तारक-मारक शक्तियां संयुक्तरूप से कार्य करती हैं, उसे साधना का ‘संधिकाल’ कहा जाता है । अभी गुरुकृपायोगानुसार साधना करनेवाले जीव इस संधिकाल के स्वत्वाधिकारी (हकदार) हैं ।