मराठी समाचारवाहिनी ‘एबीपी माझा’पर ‘माझा हस्तक्षेप’ कार्यक्रम में परिचर्चा
पुणे महापालिका विगत १५ वर्षों से गणेशमूर्तियों के विसर्जन के लिए तात्कालीन हौजों का निर्माण करती है । दैनिक ‘पुणे मिरर’ में प्रकाशित समाचार में विसर्जन के पश्चात इन मूर्तियों को तथा इस हौज में के पानी को नदी में छोडा जाता है, ऐसी जानकारी दी गई है । प्रशासन इस प्रकार से भक्तों का दिशाभ्रम कर रहा है । साथ ही प्रशासन द्वारा इन मूर्तियों को ट्रैक्टर में भरते समय उनपर खडे रहना, तोडना इस प्रकार के कृत्य कर इन मूर्तियों को खदानों में किसी भी प्रकार से फेंका जाता है । प्रशासन के इस कृत्य से उन्हें भक्तों की भावनाआें से कोई लेना-देना नहीं है, यही ध्यान में आता है । हिन्दू जनजागृति समिति के महाराष्ट्र एवं छत्तीसगढ राज्यों के संगठक श्री. सुनील घनवट ने ऐसा प्रतिपादित किया । गणेशोत्सव के उपलक्ष्य में मराठी समाचारवाहिनी ‘एबीपी माझा’पर आयोजित कार्यक्रम ‘माझा हस्तक्षेप’ में वे सहभागी थे । इस परिचर्चा में पंचांगकर्ता तथा खगोलशास्त्र के अभ्यासी दा.कृ. सोमण, संगठन ‘सामाजिक समरसता’ के महाराष्ट्र निमंत्रक रमेश पांडव, सनातन संस्था की प्रवक्ता श्रीमती नयना भगत भी उपस्थित थीं । ‘एबीपी’ की नम्रता वागळे ने इस परिचर्चा का सूत्रसंचालन किया ।
भक्तों की भावनाआें का विचार न होने से ही प्रशासन द्वारा गणेशभक्तों
का दिशाभ्रम किया जाता है !- सुनील घनवट, हिन्दू जनजागृति समिति
श्री. घनवट ने आगे कहा,
१. प्रदूषर का आक्रोश कर इकोफ्रेन्डली मूर्तियां बनाने के सुझा दिए जाते हैं, साथ ही विसर्जन के लिए अमोनियम बाईकार्बोनेट का उपयोग करने के लिए भी कहा जाता है । वास्तव में संपूर्ण वर्ष में नदी में धोवनजल छोडे जाने से बडी मात्रा में प्रदूषण होता है; परंतु इस विषय में कोई कुछ नहीं करता और श्री गणेशमूर्तियों के कारण प्रदूषण होने का दुष्प्रचार किया जाता है ।
२. अंनिस द्वारा ‘कागद की लुगदी से मूर्ति बनाएं’, ऐसा कहकर प्रशासन का साथ लेकर उपक्रम चलाया जाता है । वास्तव में राष्ट्रीय हरित आयोग द्वारा दिए गए ब्यौरे के अनुसार कागद की लुगदी से बनाई गई मूर्ति के कारण सर्वाधिक प्रदूषण होता है । इसलिए अयोग्य जानकारी देकर समाज का किया गया दिशाभ्रम, साथ ही उसके कारण पर्यावरण की होनेवाली हानि की भरपाई वे कैसे करेंगे, इसका भी उत्तर उन्हें देना चाहिए ।
सनातन संस्था धर्मशास्त्र बताकर समाज का उद्बोधन करती है ! – श्रीमती नयना भगत, सनातन संस्था
सनातन संस्था ‘आदर्श गणेशोत्सव कैसे मनाएं ?’, साथ ही शास्त्र के अनुसार श्री गणेशपूजन तथा विसर्जन कैसे करना चाहिए ?, इस विषय में उद्बोधन करती है । श्री गणेशजी की मूर्ति प्लास्टर ऑफ पैरिस की न होकर शाडू मिट्टी की होनी चाहिए, यह हमारा मत है । विधिवत् पूजित मूर्ति का बहते पानी में ही विसर्जन करना चाहिए, यह शास्त्र हम सभी को बताते हैं ।
सनातन संस्था का अभियान का उद्देश्य समझ न लेकर
सनातन को अपकीर्त करने के उद्देश्य से नम्रता वागळे का हठीलापन !
१. सनातन संस्था ने श्री गणेशमूर्तियों का विसर्जन तात्कालीन तालाबों में न कर बहते पानी में ही करें, यह अपना हठ इस वर्ष भी चलाया । साथ ही सनातन संस्था का पर्यावरणपूरक गणेश विसर्जन का विरोध क्यों ? इसीलिए इस परिचर्चा का आयोजन किया गया है ।
२. सामाजिक संस्था, प्रशासन जैसे अनेक घटक तात्कालीन हौजों में विसर्जन का आवाहन करते हैं; परंतु सनातन संस्था ने पत्रकार परिषद लेकर मानो उनके पास धर्म का ठेका है, इस आवेश में तात्कालीन हौजों में विसर्जन न करने का आवाहन किया है ।
३. धर्म को यदि काल के अनुरूप बदला नहीं गया, तोेे धर्म मनुष्य के पैर की शृंखला बन जाएगा । मनुष्य ने मनुष्य के लिए ही धर्म लिखा है, उसमें काल के अनुरूप परिवर्तन लाए जाने चाहिएं, अन्यथा गणेशोत्सव हमारे लिए आनंद का समारोह नहीं रहेगा ।
जिस नदी में धोवन जल होता है, उस नदी में ही विसर्जन क्यों करना चाहिए ?, यही प्रश्न नम्रता वागळे बार-बार पूछ रही थीं । वास्तव में नदी कैसे प्रदूषित होती है, यह श्रीमती नयना भगत बता रही थीं; परंतु नम्रता वागळे उनका कुछ सुनने की स्थिति में ही नहीं थीं ।
धर्मशास्त्र की कोई जानकारी न होते हुए भी उसपर बोलनेवाले
पंचांगकर्ता तथा खगोलशास्त्र के अभ्यासी दा.कृ. सोमण ! (कहते हैं)
‘बहते पानी में विसर्जन करने की बात बतानेवाले धर्मग्रंथ कालबाह्य हो चुके हैं !’
१. धर्मशास्त्र के अनुसार अथवा किसी भी ग्रंथ में गणेशमूर्ति का बहते पानी में विसर्जन की बात नहीं बताई गई है । किसी ग्रंथ में पहले चाहे ऐसा बताया भी गया हो, तब भी उस समय मूर्तियों की संख्या अल्प थी ।
२. आज नदियां अस्वच्छ बन गई हैं । इसलिए वहां विसर्जन नहीं करना चाहिए । सभी स्थानोंपर बहता पानी नहीं होता । हम गणेशजी का विसर्जन नहीं करते, अपित उस मूर्ति में विद्यमान देवत्व को निकालकर विसर्जन करते हैं; इसलिए तात्कालीन तालाबों में ही मूर्तियों का विसर्जन करना चाहिए ।
३. त्योहार प्रकृति की रक्षा के लिए हैं, प्रकृति का भक्षण करने के लिए नहीं । यदि हमने समय रहते पर्यावरण की ओर ध्यान नहीं दिया, तो अगली पीढी हमें क्षमा नहीं करेगी ।
४. मूर्ति का अनादर नहीं होना चाहिए । समुद्र में मूर्तियों का विसर्जन करने के पश्चात दूसरे दिन भी मूर्तियां भग्न अवस्था में समुद्रतटपर आती हैं । प्रदूषण कर त्योहार नहीं मनाने चाहिए । मूर्तियों का विनियोग ठीक से होना चाहिए ।
५. नदी का पानी स्वच्छ होनेपर भी उस पानी में विसर्जन नहीं करना चाहिए; क्योंकि यह जिन धर्मग्रंथों में लिखा गया है, वो ग्रंथ अब कालबाह्य हो चुके हैं ।
६. मूर्तियों का विसर्जन करने से उससे प्रदूषण होकर नदी में रहनेवाले जलचर जीवों के प्राणों के लिए संकट उत्पन्न हो सकता है ।
धर्म के टिकने के लिए विज्ञान की नहीं, अपितु धर्म के अनुसार
आचरण की आवश्यकता है, यह भी ज्ञात न होनेवाले रमेश पांडव !
(कहते हैं) ‘विज्ञानानुकूल आग्रह रखने से ही धर्म टिक पाएगा !’ – रमेश पांडव, महाराष्ट्र निमंत्रक, सामाजिक समरसता
१. आज अनेक गांवों में सूखे जैसी स्थिति है । जहां पानी की गिल्लत होती है, वहां मूर्तियों का विसर्जन कैसे करेंगे ? बहते पानी की संकल्पना देखने के लिए नहीं मिलती ।
२. युरोप में जहां नदी में जाने की तक अनुमति नहीं होती, तो यहां बहते पानी में विसर्जन कैसे किया जा सकता है ?
३. धर्मशास्त्रीय व्यक्तियों को सामान्य लोगों को धर्म का मार्ग बताना चाहिए, इस प्रकार से त्योहारों की हानि नहीं करनी चाहिए । हमारे आग्रह कालानुरूप, समयानुरूप और विज्ञानानुकूल होने चाहिएं । ऐसा करने से ही धर्म टिक पाएगा ।
४. तात्कालीन हौजों में मूर्तियों के विसर्जन के पश्चात मूर्तियों का किया जानेवाला अनादर, यह श्री. सुनील घनवट का सूत्र उचित है । इसपर प्रशासन को ध्यान देना चाहिए ।