‘सनातन के संतों की अद्वितीयता !’
मेरी साधनायात्रा तो सनातन संस्था द्वारा प्रकाशित ‘गुरु का महत्त्व, प्रकार तथा गुरुमंत्र’ ग्रंथ के मुखपृष्ठ की भांति है । इसमें गुरु को साधक का हाथ पकडकर उसे आगे ले जाते हुए दिखाया गया है । मेरे विषय में भी ऐसा ही हुआ है । जब मैं पीछे मुडकर ‘इसके लिए मैने क्या प्रयास किए ?’, यह देखने का प्रयास करता हूं, तब ‘मैंने तो कुछ भी नहीं किया है’, ऐसा प्रतीत होता है । मेरे जैसे एक जीव से साधना हो तथा इस जीव की उन्नति हो; इसके लिए केवल और केवल परात्पर गुुुरु डॉक्टरजी ने कभी प्रत्यक्ष रूप से, कभी सूक्ष्म रूप से, तो कभी विविध माध्यमों द्वारा मुझसे साधना करवा ली है । मुझमें ‘उन्होंने क्या क्या किया है ?’, इसका वर्णन करने की क्षमता नहीं । विगत कुछ वर्षों से जब मैं रात में सोते समय जब कृतज्ञता व्यक्त करता हूं, तब मुझे ‘मैंने आज दिनभर में कुछ किया ही नहीं है’, ऐसा प्रतीत होता है । ‘मेरे जैसे एक छोटे से जीव से साधना हो; इसलिए उन्हीं के हाथ-पैर ही सेवा कर मुझे आनंद प्रदान कर रहे थे’, ऐसा लगकर मेरा भाव जागृत होता है । उनके चरणों में कृतज्ञता के रूप में लेखन करना चाहा, तब भी उसके लिए शब्द पर्याप्त नहीं होते और मेरी आंखों में भावाश्रु आते हैं । मेरी आंखों के सामने उनका प्रेमरूप आता है । उनका स्मरण कर मेरी बालबुद्धि को जो समझ में आया, उसे लिखने का मैं प्रयास कर रहा हूं ।
१. साधना में आने के पहले की स्थिति
१ अ. शिक्षा, नौकरी तथा व्यवसाय
मैने जहाज निर्माण अभियांत्रिकी की शिक्षा ली है । वर्ष १९९० से २००१ तक मैने एक निजी प्रतिष्ठान में और उसके पश्चात बहुराष्ट्रीय आस्थापन ‘सेजा गोवा लिमिटेड’ में नौकरी की । मैने सहायक अभियंता पदपर नौकरी करते हुए नौकरी को त्याग दिया ।
१ आ. अपने ही कोश में रहना
साधना में आने से पहले मैं बहुत महत्त्वाकांक्षी था । विदेश जाकर धन अर्जित करने की तीव्र इच्छा से मैं प्रयास कर रहा था । मैं स्वयंपर बहुत व्यय करता था । मेरे कुछ चुनिंदा मित्रों के साथ मुझे अच्छा लगता था । ‘व्यापकत्व का अभाव तथा अबोल स्वभाव’ के कारण मुझे दूसरों में घूल-मिलकर रहना अच्छा नहीं लगता था । कभी-कभी क्रोध आना तथा स्वयं के विचारों में ही मग्न रहना, भी मुझसे होता था ।
१ इ. महत्त्वाकांक्षी स्वभाव के कारण नौकरी करते समय बहुत परिश्रम लेना तथा उसी में स्वयं को समर्पित कर लेने के पश्चात भी मन को आनंद तथा संतुष्टि न मिलना
जहाज निर्माण मेरा नौकरी में काम था । इस काम में मैने स्वयं को संपूर्णरूप से समर्पित कर दिया था । मैं दिनरात परिश्रम लेता था; परंतु मेरे मन को संतोष नहीं होता था । वह काम ही ‘टाईड एंड, टाईम बाऊंड (टीप)’ स्वरूप का था । जहाज निर्माण में अनेक पडतालें होती हैं तथा उसे प्रमाणित करनेवाले संबंधित प्रतिष्ठनों के प्रतिनिधियों का तांत्रिकदृष्टि से संतुष्ट होना आवश्यक होता है । इस काम में मैं स्वयं की संतुष्टता ही भूल गया था । अब ऐसा लगता है कि एक दृष्टि से नौकरी में रहते समय ही ईश्वर ने मेरे द्वारा गुणवृद्धि और अहंनिर्मूलन करवा लिया था ।
(टीप १. टाईड एंड : टाईड का अर्थ नदी अथवा समुद्र के पानी में ज्वार और भाटा आना । उस स्थिति के अनुरूप दिया गया काम पूर्ण करना पडता है ।
२. टाईम बाऊंड : इस काम के लिए समयसीमा होने से उस सीमा में ही कोई परियोजना पूर्ण करनी होती है ।)
२. सनातन संस्था के माध्यम से साधना का आरंभ
२ अ. पत्नी श्रीमती बिंदा के माध्यम से प्रतिदिन साधना का विषय सुनने के लिए मिलना तथा साधकों की तडप देखकर मुझे भी इस जन्म में कुछ करने की इच्छा होना
मेरी पत्नी श्रीमती बिंदा सिंगबाळ (आज की सद्गुुरु (श्रीमती) बिंदा सिंगबाळजी) उस समय अधिकोष (बैंक) में नौकरी करती थीं । वर्ष १९९६ में उनके अधिकोष की फोंडा, गोवा की शाखा में उनका स्थानांतरण हुआ । उस शाखा में सनातन संस्था के कुछ क्रियाशील साधक नौकरी करते थे । उससे पत्नी के माध्यम से मुझे प्रतिदिन साधना के कुछ विषय सुनने के लिए मिलते थे । मैं वह सब सुनता तो था; परंतु करता कुछ नहीं था । श्रीमती बिंदा मुझे साधकों की अनुभूतियां तथा संत भक्तराज महाराजजी के चरित्र से संबंधित जानकारी बताती थीं । उससे मेरी जिज्ञासा जागृत हुई । तत्कालीन सत्संगसेविका श्रीमती मंगला मराठे द्वारा मुझे मुंबई जाने की प्रेरणा मिली । डॉ. पांडुरंग मराठे के साथ मैं मुंबई तथा ठाणे के साधकों का त्रैमासिक सत्संग देखने के लिए गया था । वहां के साधकों की तडप देखकर मुझे पहली बार ‘मुझे भी इसी जन्म में कुछ करना चाहिए’, ऐसा लगा ।
२ आ. परात्पर गुुर डॉक्टरजी के चरणोंपर मस्तक रखनेपर ‘मैं जो ढूंढ रहा था, वह यहीं है’, ऐसा प्रतीत होना
उस समय पहली बार मुंबई में परात्पर गुुरु डॉक्टरजी के निवासपर उनका दर्शन हुआ और मुझे उनके चरणों में बैठने की इच्छा हुई । साधना और अध्यात्म के विषय में कुछ भी ज्ञात न होते हुए भी मुझे ‘शिष्य’ ग्रंथ के मुखपृष्ठ का स्मरण हुआ और तब मैने परात्पर गुरु डॉक्टरजी के चरणोंपर अपना मस्तक रखा । तब मुझे यह प्रतीत हुआ, ‘मैं जो ढूंढ रहा था, वह यहीं है ।’ परात्पर गुुरु डॉक्टरजी ने मुझ से पूछा, ‘‘आपको क्या प्रतीत हुआ ?, आपको अच्छा लगा न ?, आपको सिखने के लिए मिला न ?’’ तब मुझे बहुत आनंद हुआ । इस प्रकार से मेरी साधना का आरंभ हुआ ।
२ इ. ‘संत भक्तराज महाराजजी का चरित्र’ ग्रंथ पढने के पश्चात ‘सच्चाई कुछ और है और मैं कुछ अलग ही कर रहा हूं’, इसका भान हो जाना
उस कालावधि में मैं ‘संत भक्तराज महाराजजी का चरित्र’ ग्रंथ को बहुत मन से पढ लिया । उसके कारण मेरी मन की स्थिति में परिवर्तन आने लगा । मेरे मन में त्याग के विचार आने लगे । नौकरी में होते हुए और भौतिक जीवन व्यतीत करते हुए भी ‘सच्चाई कुछ और है और मैं कुछ अलग ही कर रहा हूं’, ऐसा प्रतीत होने लगा ।
२ ई. सांगली की गुरुपूर्णिमा के लिए जाते समय प्रवास में कुलदेवी का नामजप अखंडित ७ घंटोंतक होना
वर्ष १९९६ में मुझे सांगली की गुरुपूर्णिमा में जाने की अवसर मिला । सत्संगसेविका श्रीमती मंगला मराठे ने हम दोनों को भी गुुरुपूर्णिमा महोत्सव में सीखने के लिए जाने का अवसर दिया । तबतक मैं केवल एक ही स्थानीय सत्संग में गया था । गुुरुपूर्णिमा कार्यक्रम में जाने के लिए हम चौपहिया गाडी से यात्रा कर रहे थे । तब पहली बार मुझ से मेरी कुलदेवी का नामजप अखंडित ७ घंटोंतक हुा । वह मुझे अंदर से सुनाई दे रहा था । उससे पहले मैने कभी नामजप नहीं किया था । मुझे ऐसा लगा, ‘संत भक्तराज महाराजजी ने उसी दिन से मेरा नामजप आरंभ करवाया ।’ यह मेरी पहली ही अनुभूति थी ।
२ उ. गुरुसेवा करनेवाले साधकों को मिलनेवाले आनंद को देखकर ‘इस आनंद को प्राप्त करने के लिए मैं कुछ नहीं करता’, ऐसा लगना तथा ‘संत भक्तराज’ नाटक के प्रस्तुतीकरण के समय अलग ही भावविश्व का अनुभव हो जाना
गुरुपूर्णिमा के दिन परात्पर गुुरु डॉक्टरजी साधकों को छोटी-छोटी बातें भी कितनी परिपूर्ण पद्धति से करने के लिए सिखाते हैं, यह मुझे देखने के लिए मिला । ‘उच्चशिक्षित साधक देहभान भूलकर कैसे सेवा करते हैं ?, वे उनमें विद्यमान गुण कैसे समर्पित करते हैं ?, उससे उन्हें कितना आनंद मिलता है?, यह सब मैने देखा । उसके पश्चात अपनी ओर देखनेपर मुझे ‘यह आनंद प्राप्त करने के लिए मैं कुछ भी नहीं करता’, ऐसा मुझे लगा । इस समारोह में मुझे प.पू. रामानंद महाराजजी के चरणोंपर मस्तक रखकर उन्हें नमस्कार करने का अवसर मिला । तब मुझे लगा कि संतों ने मेरे मन को जान लिया । तब मुझ में साधना की तडप बढ गई । इसी स्थानपर ‘संत भक्तराज’ नाटक प्रस्तुत किया गया था । इस नाटक के माध्यम से मैने पढा हुआ ‘संत भक्तराज महाराज का चरित्र’ ही खुल रहा है, ऐसा लगकर मै एक अलग ही भावविश्व में प्रवेश कर गया ।
३. साधना में आनेपर आए परिवर्तन
३ अ. गुुरुकृपायोगानुसार साधना करते समय प्रत्येक कृती गुरुदेवजी को अच्छी लगे, इस प्रकार से करने की तडप उत्पन्न होना तथा साधना के दृष्टिकोण स्पष्ट होकर साधना से संबंधित कृत्यों के आनंद मिलना आरंभ होना
साधना आरंभ करनेपर गुुरुकृपायोगानुसार साधना कर परात्पर गुुरु डॉक्टरजी की कृपा प्राप्त करना, यह मेरा लक्ष्य बन गया । सत्संग में बताए जाने के अनुसार अथवा उत्तरदायी साधकों द्वारा सिखाए जाने के अनुसार मै उस प्रकार से कृती करने का प्रयास कर रहा था । मैं एक भी सत्संग नहीं चुकाता था । परात्पर गुुरु डॉक्टरजी की कृपा से मेरे मन में कभी कोई आशंका नहीं आई । प्रत्येक कृति के समय मेरे मन में ‘परात्पर गुुरु डॉक्टरजी को क्या लगेगा ?’, यह विचार आता था । नौकरी में होते समय मेरे कार्यस्थलतक पहुंचनेतक की मेरी प्रतिदिन की यात्रा में आते-जाते नामजप होने लगा । कामपर अकस्मात कोई तांत्रिक समस्या आनेपर मुझे ईश्वर का स्मरण होकर मेरे द्वारा प्रार्थना की जाने लगी । प्रार्थना से उस समस्या का निराकरण भी होता था । ‘कोई अज्ञात शक्ति मेरी सहायता करती है’, ऐसा प्रतीत होने लगा । प्रतिदिन मेरे साधना के विषय के दृष्टिकोण स्पष्ट होते हुए तथा साधना से संबंधित कृत्यों से मुझे आनंद प्राप्त होने लगा ।
३ आ. साधना का लक्ष्य सुनिश्चित होकर साधना तथा गुुरुसेवा में मनपर अंकित पहले माया के संस्कार अल्प होकर अंतर्मन में परिवर्तन आने का प्रतीत होना
पहले अनावश्यक बातों में मेरा समय व्यर्थ होता था, उदा. अलग-अलग होटलों में जाना, मित्रों के समूह में रहना इत्यादि तत्पश्चात मेरे मनपर अंकित इन बातों का प्रभाव बहुत न्यून हुआ और कुछ समय पश्चात वह दूर ही हो गया । मेरा साधना का लक्ष्य सुनिश्चित हो गया और उसके पश्चात मेरा सब समय साधना और गुरुसेवा में ही व्यतीत होने लगा । पहले जिन वस्तुआें को देखनेपर मुझ में उन्हें पाने की इच्छा होती थी अथवा मैं जिन मित्रों के साथ जिन उपाहारगृहों में जाता था, उनके सामने से आते-जाते हुए भी ‘अब मेरे मन में उससे संबंधित विचार भी नहीं आते, ऐसा मुझे प्रतीत हुआ । मेरी अपेक्षाआें की मात्रा बहुत-कुछ न्यून हो गई थी । गुरुकृपा से मुझपर वह संस्कार ही नहीं रहे थे । मेरा मन अधिकांश समय शांत ही रहता था । उसके पश्चात ‘दूसरों का विचार करना तथा उनके प्रति प्रेम बढाना’, इस दिशा में मुझसे प्रयास होने लगे । साधकों में मिलजुलकर रहने से दूसरों से बातें करने में मुझे आनंद प्रतीत होने लगा । ‘स्वभावदोष तथा अहंनिर्मूलन’ प्रक्रिया के कारण मुझ में अंतर्मुखता बढी, साथ ही प्रार्थना और नामजप की संख्यात्मकता और गुणात्मकता भी बढ गई । मुझे ऐसा लगता है कि यह सब गुरुकृपा के कारण ही हुआ है । ‘मेरे अंतर्मन में परिवर्तन आना’, मेरे लिए एक बडी अनुभूति ही है ।
४. परात्पर गुुरु डॉक्टरजी की सार्वजनिक सभाआें के समय दायित्व लेकर सेवा करना
४ अ. ‘मिली हुई सेवा के साथ अन्य सेवाआें का भी आयोजन कैसे किया जाता है ?, यह सत्संग में सुनकर सीखना संभव होना
इसी समय में अर्थात वर्ष १९९६ में गोवा में परात्पर गुुुरु डॉक्टरजी की सार्वजनिक सभाआें का आयोजन किया गया था । पणजी में उनकी पहली सार्वजनिक सभा थी । उस समय मुझे यातायात और पार्किंग से संबंधित सेवा का दायित्व मिला था । मैं उससे संबंधित सभी सत्संगों को जाता था । उससे मुझे आयोजन के पहलू सिखने मिल रहे थे ।
४ आ. फलक रंगाने की सेवा से तथा गुरुदेवजी को अच्छी लगे, इस प्रकार से सभा से संबंधित सेवा करते हुए बहुत आनंद प्राप्त होना तथा सहसाधकों से निकटता हो जाना
हम इसी समय में हमारे फोंडा की सदनिका में रहने आए थे । हमारी सदनिका में सभा की पार्किंग की व्यवस्था के लिए आवश्यक फलकों को हाथ से रंगाने की सेवा लगभग एक मास से चल रही थी । प्रतिदिन सायंकाल में साधक इस सेवा के लिए आते थे और हम सभी मिलकर वह सेवा करते थे । इस सेवा में मुझे बहुत आनंद मिला । उसके कारण सहसाधकों के प्रति मुझमें अपनापर तथा निकटता बढने लगी । प्रत्यक्ष सभा की सेवा करते समय मन में ‘सबकुछ परात्पर गुुरु डॉक्टरजी को अपेक्षित ऐसा होना चाहिए’, यह एक ही विचार होता था । सभा संपन्न होनेपर मिलनेवाला आनंद कुछ अलग ही था । मुझे सहसाधकों से भी बहुत कुछ सीखने के लिए मिला ।
४ इ. प्रवचन लेने सीखना
सत्संगसेविका श्रीमती मंगला मराठे ने मुझे प्रायोगिक स्तरपर प्रवचन और सत्संग लेना सिखाया । इस सभा के प्रचार के लिए प्रवचन लिए जाते थे । उस समय मैं प्राथमिक प्रवचन लेना सिख गया और प्रवचन लेने भी लगा ।
४ ई. वर्ष १९९७ में गोवा में संपन्न परात्पर गुुरु डॉक्टरजी की सार्वजनिक सभाआें के उपलक्ष्य में सेवा का व्यापक स्तरपर आयोजन सीखने के लिए मिलना
वर्ष १९९७ में गोवा में ७ स्थानोंपर परात्पर गुरु डॉक्टरजी की सार्वजनिक सभाआें का पुनः आयोजन किया गया था । उस समय भी मुझपर यातायात तथा पार्किंग की सेवा का दायित्व था । इस बार इस सेवा का स्वरूप व्यापक स्तरपर होने से उसमें समन्वय का भा अधिक तथा निरंतर कुछ दिनों से करना पडा था । उसके कारण समन्वय करना, कुछ दिनों के लिए नियोजन करना, अनेक स्थानोंपर एक ही व्यवस्था करना, कार्य का व्यापक स्तरपर विचार करना आदि अनेक बातें मुझे प्रायोगित स्तरपर सीखने के लिए मिल गईं । उस समय सद्गुुरु (श्रीमती) बिंदादीदीजी को भी सेवा मिली थी । उस समय मेरा पुत्र सोहम् केवल ८ मास का था । हम कुछ दिनों के लिए उसे लेकर हमारी सदनिका बंद रखकर ही सेवा के लिए बाहर निकले तथे । प्रत्येक स्थानोंपर चि. सोहम् का साधकों के पास रहने का प्रबंध होने से हमें प्रसार के साधकों की ओर से बहुत सहायता हुई । हम सभास्थानपर सेवा के लिए जाते थे, तब अनेक गुना गुरुदेवा का आनंद प्राप्त होता था ।
५. वर्ष १९९९ में सभा के आयोजन की सेवा मिलनेपर नौकरी, सभा का
नियोजन तथा प्रसार में १८ घंटोंतक व्यस्त रहते हुए भी किसी प्रकार की थकान
प्रतीत न होकर अधिकाधिक आनंद मिलना तथा गुुरुकृपा का निजध्यास प्रतीत होना
वर्ष १९९९ में गोवा में अनेक स्थानोंपर सार्वजनिक सभाआें का आयोजन किया गया था । तब मुझे २ सभाआें के आयोजन का दायित्व मिला । इससे मुझे आयोजन के सत्संगों में जाना, स्वयं सत्संग लेना, प्रसार का आयोजन करना, साथ ही साधकों की गुण-कुशलताआें का अध्ययन करना, यह सब बातें प्रायोगिक स्तरपर सीखने मिल गईं । उस समय में सेजा गोवा प्रतिष्ठान में नौकरी कर रहा था । तब मुझे प्रातः ५ बजे उठकर और ६० कि.मी. की यात्रा कर सुबह ८ बजे कामपर जाना पडता था; क्योंकि सुबह लगभग ८ बजे ही मेरा काम आरंभ होकर दोपहर ४.३० बजे मेरा काम समाप्त हो जाता था । कई बार मुझे कामपर अधिक समयतक रूकना भी पडता था । मैं आते-जाते नियोजन की बही और सभी धारिकाएं मेरे साथ रखता था और बस से यात्रा करते समय आगे का नियोजन तथा लेखन करता था । मैं कई बार दूरभाष से ही प्रसार तथा नित्य नियोजन की समीक्षा करता था । सायंकाल ७ बजे फोंडा पहुंचनेपर मैं सीधे सभा के प्रसार में जाता था । मुझे घर आने में रात के १२ बजते थे । सोते समय भी मैं नियोजन की बही सिरहाने के पास रखता था, जिससे की नींद में ही यदि मुझे कुछ सूझ गया, तो मुझे उसे लिखना संभव होता था । ऐसा अनेक दिनोंतक चल रहा था । इस बार मुझे गुरुकृपा का अलग ही निदिध्यास लगा था । मुझे दूसरा कोई सूझ ही नहीं रहा था । यह सब करते हुए मुझे निरंतर आनंद मिलता था । मुझे थकान आना अथवा नींद अधुरी होना, इन बातों का कभी स्पर्श ही नहीं हुआ । सभा संपन्न होने के पश्चात मैं सेवा में और अधिक सक्रिय हो गया ।
६. गुुरुकार्य एवं साधना ही जीवन की प्रधानता बनने से पूर्णकालिन साधना के विषय में हुई विचारप्रक्रिया !
६ अ. दैनिक के वर्गणीदारों की संख्या बढाने की तडप के कारण अभियान चलाया जाना और उससे १०० वर्गणीदार बन जाना
जब दैनिक सनातन प्रभात का गोवा-सिंधुदुर्ग संस्करण आरंभ हुआ, तब मेरे मन में ‘दैनिक का अधिकाधिक वितरण होना चाहिए’, यह एक ही तडप होती थी । उसके लिए वर्गणीदार बढाने के लिए साधकों का नियोजन कर सेवा के लिए जाता था । एक बार मडगाव में अभियान चलानेपर १०० वर्गणीदार बन गए और उससे मुझे बहुत आनंद मिला था ।
६ आ. सनातन संस्था का अंगफलक परिधान कर प्रसार करने में कोई संकोच न होना
दैनिक वितरण तथा वर्गणीदार बनाने की सेवा में मैं अंगफलक परिधान कर घूमता था । गोवा के मडगाव जैसे नगर में हमारे दोनों ओर के कई परिजन रहते हैं । कभी-कभी वे मुझे अंगफलक परिधान की हुई स्थिति में तथा हाथ में दैनिक लेकर घूमते हुए देखते थे; परंतु मुझे उसका कुछ नहीं लगता था ।
६ इ. माया में विद्यमान बातों में मन न लगने से मन में पूर्णकालीन साधना के विचार आरंभ हो जाना
परिजनों के पास जाना, उनके घर के कार्यक्रमों में उपस्थित होना, साथ ही मित्र-सहयोगी, नौकरी आदि में और अन्य किसी बात में मेरा मन नहीं लग रहा था । मैं काम से छुट्टी लेकर सेवा के लिए ही समय देता था । मैने कई बार छुट्टियां लीं और उसी समय मेरे मन में पूर्णकालीन साधना के विचार गूंजने लगे ।
६ ई. विदर्भ के प्रसार दौरे के समय पूर्णकालीन साधना का निश्चय किया जाना
इस कालावधि में श्री. प्रकाश जोशी के महाराष्ट्र के विदर्भ के क्षेत्र में प्रसार दौरे होते थे । उनके एक दौरेे में मुझे उनके साथ सीखने के लिए जाने का अवसर मिला । लगभग १ मासतक चले इस दौरे में मुझे दौरे का नियोजन करना, अभ्यासवर्ग लेना, साधकों को साधना के दृष्टिकोण देना, साथ ही उनको बनाना जैसी अनेक बातें प्रायोगिक स्तरपर सीखने मिल गईं । यह दौरा मेरी साधना की यात्रा को एक नया आयाम प्रदान करनेवाला सिद्ध हुआ । इसी दौरे में श्री. प्रकाश जोशी ने मेरी पूर्णकालीन साधक होनेे की दृष्टि से बहुमोल सहायता की; इसलिए मुझे सदैव उनके प्रति कृतज्ञता प्रतीत होती है । मैं यह दौरा समाप्त कर गौवा लौट आया, तब मुझमें व्यापकता, दायित्व का भान तथा आत्मविश्वास, ये सब बातें बढने का भान हुआ ।
७. पूर्णकालीन साधना आरंभ होनेपर गोवा उत्तरदायी साधक के रूप में की हुई सेवा !
७ अ. डॉ. दुर्गेश सामंत द्वारा सेवा में समय-समयपर प्राप्त मार्गदर्शन
मुझे उत्तरदायी साधक के रूप में सेवा का पर्याप्त अनुभव नहीं था; परंतु सीखने की और सेवा की तडप थी । मुझपर विश्वास कर मुझे यह सेवा दी गई, यह केवल गुुरुकृपा ही है । उस समय मुझे बहुत समस्याएं आती थीं; इसलिए मुझे निरंतर इस विषय में पूछना पडता था । ऐसे समय मैं फोंडा स्थित ‘सुखसागर’ में डॉ. दुर्गेश सामंत के पास जाता था । उस समय उनपर अनेक सेवाआें का दायित्व होता था; परंतु वे घंटों-घंटोंतक मेरा दिशादर्शन करते थे । उससे मुझे निर्णय कैसे किया जाता है ?, इसका मार्गदर्शन मिला । वर्ष २००१ में गोवा में पहली बार सर्वधर्मसभा का आयोजन किया गया था । तब भी मुझे डॉ. सामंत से निरंतर मार्गदर्शन मिलता था । ‘दायित्ववाले साधक के दृष्टिकोण किसी प्रकार से विकसित होने चाहिएं ?, समय का महत्त्व तथा नियोजन, नियोजन में स्थित बारिकियां, साथ ही संस्थास्तरपर विचारप्रक्रिया कैसी करनी चाहिए ?, इसका मुझे प्रशिक्षण मिलता गया ।
७ आ. डॉ. दुर्गेश सामंत के साथ किया गया दौरा तथा विविध उपक्रमों से सीखने मिले सूत्र
तत्पश्चात मैने डॉ. सामंत के साथ दौरा किया । तब कांची कामकोटी पीठ के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती के सुवर्णमहोत्सव के उपलक्ष्य में धर्मसभा का आयोजन, नामफेरियों का आयोजन, सार्वजनिक उत्सवों में विद्यमान अप्रिय घटनाआें को रोकने के लिए अभियान, तनावमुक्ति हेतु अध्यात्म शिविरों का आयोजन इत्यादि अनेक बातें सीखने के लिए मिल गईं । उससे मुझे समाज में संपर्क करना, समाज के लोगों के साथ संवाद करना, उनके साथ बैठकें करना, हिन्दुत्व के विषय में जागृति लाना इत्यादि के अनेक दृष्टिकोण सीखने मिल गए । इसके साथ ही डॉ. सामंत द्वारा किए गए मार्गदर्शन से भी चूकों का विश्लेषण करना तथा चूकों का अध्ययन करना भी सीखने के लिए मिला ।
७ इ. महाराष्ट्र के विविध जनपदों से गोवा आनेवाले साधकों के सूमह का नियोजन सिखना संभव हो जाना
विशिष्ट कालावधि के पश्चात महाराष्ट्र के विविध जिलों के ३० से ३५ साधकों का समूह गोवा में सीखने के लिए आता था । उस समय उनका निवास, अल्पाहार और भोजन का प्रबंध फोंडा के प्रसार में स्थित स्थानीय साधकों के पास किया जाता था । शिविर का आयोजन तथा गोवा दर्शन इत्यादि का भी नियोजन किया जाता था । इस माध्यम से मुझे शिविरों का आयोजन कैसे करना चाहिए, यह भी सीखने के लिए मिला ।
७ ई. परात्पर गुरु डॉक्टरजी के अलौकिक कार्य में विद्यमान निकटता से अनुभव किए हुए महत्त्वपूर्ण क्षण !
गुुरुकृपा से मुझे परात्पर गुुरु डॉक्टरजी के अलौकिक कार्य में विद्यमान कुछ अलौकिक क्षणों का निकटता से देखने का तथा प्रत्यक्षरूप से अनुभव करने का भी अवसर मिला, जो मेरा सौभाग्य है । साधकों को भी आश्रमसेवाआें का तथा व्यापक प्रसार का लाभ मिलता था, जिसके कुछ उदाहरण आगे दे रहा हूं ।
१. वर्ष १९९९ में दैनिक सनातन प्रभात का गोवा-सिंधुदुर्ग संस्करण आरंभ हुआ ।
२. वर्ष १९९९ में दोनापावला में पहला सेवाकेंद्र आरंभ होकर वहां दैनिक सनातन प्रभात का कार्यालय आरंभ हो जाना ।
३. अप्रैल २००० में म्हार्दोळ में सेवाकेंद्र तथा दैनिक सनातन प्रभात के कार्यालय का स्थानांतरण हुआ ।
४. जुलाई २००० में ‘सुखसागर’, फोंडा में दैनिक सनातन प्रभात के कार्यालय का स्थानांतरण हुआ ।
५. वर्ष २००२ में ‘सुखसागर’, फोंडा में ११ ‘पंचमुखी हनुमानकवच यज्ञ’ संपन्न हुए ।
६. वर्ष २००० में सूक्ष्म जगत् का अध्ययन तथा शोधकार्य आरंभ हुआ ।
७. वर्ष २००२ में आध्यात्मिक नामजपादि उपायसत्रों का आरंभ होकर साधकों को उससे लाभ होने लगा ।
८. वर्ष २००३ में रामनाथी आश्रम के निर्माणकार्य का आरंभ हुआ ।
८. साधना में आने के पश्चात निर्वहित दायित्ववाली सेवाएं तथा उससे हुए उपाय
८.अ. विविध सेवाएं करना
साधना में आने के पश्चात अर्थात वर्ष १९९६ से लेकर वर्ष २००३ तक सत्संग और प्रवचन लेना, केंद्रसेवक तथा गोवा उत्तरदायी साधक के रूप में दायित्व निभाना, सर्वधर्मसभाआें का आयोजन, सार्वजनिक सर्वसंप्रदाय सभाआें का आयोजन, गोवा में सार्वजनिक उत्सव जनजागृति अभियान, उज्जैन के कुंभ में प्रसार तथा प्रदर्शनियों का आयोजन करना इत्यादि सेवाआें का दायित्व लेकर उनका निर्वहन करना संभव हुआ ।
८ आ. अनेक अभियान चलाना
दायित्व का निर्वहन करते समय प्रसारसेवकों के मार्गदर्शन के अनुसार सार्वजनिक उत्सव जनजागृति अभियान चलाना, सार्वजनिक उत्सव में होनेवाली अप्रिय घटनाआें के संबंध में समाजजागृति करना तथा वैधानिक पद्धति से उसकार विरोध करने जैसी सेवाएं कीं ।
८.इ. गोवा के सभी साधकों के साथ निकटता होना
मैं सेवा के लिए अलग-अलग केंद्रों में जाता था, तब वहां के स्थानीय साधकों के घर में निवासकरता था । इसलिए मैं अधिकांश सभी साधकों के घर गया हूं और गोवा के सभी साधकों के साथ मेरी निकटता हुई और मुझे उनसे बहुत कुछ सिखने के लिए भी मिला ।
– श्री. नीलेश सिंगबाळ, उत्तर-पूर्वोत्तर भारत मार्गदर्शक, हिन्दू जनजागृति समिति, वाराणसी (जुलाई २०१८)
(अंक में प्रकाशित की जानेवाली अनुभूतियां ‘जहां भाव, वहां ईश्वर’ इस वचन के अनुसार साधकों को प्राप्त उनकी व्यक्तिगत अनुभूतियां हैं । सभी को ही ऐसी अनुभूतियां प्राप्त होगी, ऐसा नहीं होता । संपादक)