‘यदि व्यक्ति के जीवन में धर्म नाम के चैतन्य का अभाव रहेगा, तो असुरी वृत्ति की एक प्रभावळ इस विश्व में निर्माण होगी । यह प्रभावळ देशविघातक सिद्ध होगी, उसके लिए परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी की प्रेरणा से निर्माण हुए सनातन संस्था के समान एक विशाल कल्पवृक्ष की इस विश्व को अत्यंत आवश्यकता है ।
अध्यात्म एवं वेदप्रामाण्यवादियों की दृष्टि से धर्म कल्पनातीत है । हमें इस बात की कल्पना भी करना असभंव है; अतएव धर्मचैतन्य, धर्मऊर्जा तथा धर्मसंस्कार जिवीत रखने का महान कार्य गोवा के सनातन आश्रम में किया जाता है । वह केवल आश्रम नहीं है, तो ‘पृथ्वी पर होनेवाला स्वर्ग’ ही है ।
हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं कि, इतनी सूक्ष्म शक्तियाँ इस आश्रम के विस्तीर्ण वातावरण में फ़ैल रही है । हम इस बात का अनुभव कर रहे हैं । इससे भी आगे जाकर ‘इस की अनुभूति कर सकते हैं’, यह कहना बिलकुल अतिशयोक्ति नहीं है; किन्तु यह बात महामूर्ख एवं बुद्धिप्रामाण्यवादियो की कल्पनाशक्ति से भी दूर का एक वास्तव है ।
कठोपनिषद में ‘नचिकेता’ नाम की एक कथा है । धर्मप्रामाण्यवादी शक्ति के अंगभूत अंतर्भाव होनेवाला नचिकेता इस युवक ने एक बार प्रत्यक्ष यमराज को प्रश्न पूछा कि, ‘‘महाराज मृत्यु के पश्चात् किस की मृत्यु होती है तथा कौन शेष रहता है ?’’ सामने की व्यक्ति आध्यात्मिक दृष्टि से वैभवसंपन्न होने के कारण यमराज आकस्मित हुए । उन्होंने इस बालक की बुद्धि को भुलभुलैय्या करने का प्रयास किया तथा बताया कि, ‘‘बालक, मैं तुम्हें प्रचंड साम्राज्य प्रदान करता हूं । भविष्य की कित्येक पिढीयों तक तुम्हें ऐश्वर्यसंपन्न करता हूं ।’’ किन्तु नचिकेत का उद्देश्य ही पृथक था । उसने इन सभी प्रलोभनों को अस्वीकृत कर बताया कि, ‘मुझे केवल उत्तर की अपेक्षा है ।’’ असहाय हुए यमराज ने मृत्यु का तथा उसके पश्चात् का अध्यात्म, गूढ एवं तत्त्वज्ञान बताया ।’’ यहां नचिकेत ने अध्यात्म का पुरुषार्थ सिद्ध कर दिखाया । धर्म की ऊर्जा का तथा चैतन्य का नचिकेत का विचार एक स्त्रोत है । इसी स्त्रोत का अमृतकुंभ, पहाड़ी पर निर्मित तथा निसर्ग से पूर्ण – सनातन आश्रम में हमें देखने को मिलता है ।
जीवन की दिशा तथा दशा कर्म पर निर्भर रहती है । उस समय उस कर्म की दिशा एवं दशा में परिवर्तन करने का सामर्थ्य ईश्वरी साधना में होता है । श्रीमद्भागवत गीता के तृतीय अध्याय में यज्ञ के १२ प्रकार बताएं गए हैं । सनातन आश्रम का तत्त्व ईश्वरी साधना एक तत्त्व मानता है । नम्रता पूर्वक मैं यह सूचित करने की इच्छा करता हूं कि, ‘यदि हमें प्रत्यक्ष में अनुभूति प्राप्त करनी है अथवा जिन्हें अध्यात्म का स्पर्श अथवा गंध नहीं है, उस प्रत्येक व्यक्ति ने जातपात की रूकावट दूर कर सनातन के दिव्य आश्रम को केवल एक बार भेंट कर अनुभूतिजन्य प्रचिती प्राप्त करनी चाहिए ।’
मुझे विश्वास के साथ यह भी प्रतीत होता है कि, ‘व्यक्ति के हाथ से हुए पाप का संचित में रूपांतर होता है । कालांतर से वह प्रारब्ध में परिवर्तित होता है तथा एक बार वह परिपक्व हुआ कि, कर्म के अनुसार उसका प्रारब्ध आगे फल देता है । यह हमारे धर्मनिष्ठ तत्त्वज्ञान की बैठक है । मृत्यु को एक बार आलिंगन देना ही पडता है । मोक्ष अथवा वैकुंठ इसी कर्म के अधीन हैं; किन्तु साधना से जीवन व्यतीत किया, तो वह साधना मोक्ष के मार्ग की हमें प्रचिती देगा । यही अध्यात्म का तत्त्व परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी के विचारों का स्त्रोत है ।’