कंबोडिया के सीम रीप नगर में स्थित एशिया पारंपरिक वस्रों का संग्रहालय !

सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी के नेतृत्व में महर्षि
अध्यात्म विश्‍वविद्यालय के समूह द्वारा दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की अध्ययन यात्रा

सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी

भारत से ४ सहस्र कि.मी. दूरीपर स्थित कंबोडिया में किस प्रकार पहले से हिन्दू संस्कृति विद्यमान थी, इसे निकट से देखने का हमें सौभाग्य मिला । इसके लिए हम महर्षि अध्यात्म विश्‍वविद्यालय के संस्थापक परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के चरणों में कोटि-कोटि कृतज्ञता व्यक्त करते हैं । – सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी

महाभारत में जिस भूभाग का उल्लेख कंभोज देश किया गया है, वह भूभाग है आज का कंबोडिया देश ! यहां १५वीं शताब्दीतक हिन्दू रहते थे । वर्ष ८०२ से लेकर १४२१ की अवधि में वहां खमेर नामक हिन्दू साम्राज्य था, साथ ही कंभोज देश एक नागलोक भी था । कंभोज के राजा ने महाभारत के युद्ध में भाग लिया था, ऐसा भी उल्लेख कुछ स्थानोंपर मिलता है । यह नागलोक होने के कारण शिवलोक भी है । यहां के महेंद्र पर्वतपर श्रीविष्णुजी का वाहन गरुड होने का बताया जाता है । उसके कारण यह एक विष्णुक्षेत्र भी है । इस प्रकारा के हरिहर क्षेत्र कंभोज देश में महर्षि अध्यात्म विश्‍वविद्यालय की ओर से सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी तथा उनके साथ गए ४ साधक-छात्रों द्वारा किए गए अध्ययन यात्रा की कुछ क्षणिकाएं यहां दे रहे हैं ।

सीमरीप नगर में अंकोर वाट मंदिर है । सीमरीप में भारत सरकार द्वारा स्थापित एशिया पारंपरिक वस्रों का संग्रहालय है । प्राचार्य (श्रीमती) अर्चना शास्त्री उसकी निदेशक हैं । २६.३.२०१८ को महर्षि अध्यात्म विश्‍वविद्यालय की ओर से सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी श्रीमती अर्चना शास्त्री से मिलने के लिए संग्रहालय गईं । इस संग्रहालय में भारत, कंबोडिया, म्यानमार, लाओस्, विएतनाम तथा थाईलंड इन ६ देशों के पारंपरिक वस्रप्रावरण रखे गए हैं, साथ ही उनको बनाने की शैली तथा उसके इतिहास के विषय में जानकारी दी गई है । यहां के लोगों की वेशभूषा तथा उनके द्वारा संजोई गई हिन्दू संस्कृति के चिन्हों को हम यहां देखेंगे ।

१. कंबोडिया के लोगों की वेशभूषाआें की विशेषताएं

१. राजवंश से संबंधित लोगों द्वारा प्रत्येक दिन धारण किए गए वस्रों का रंग उस संबंधित ग्रहों के (अथवा उस
दिनविशेष) से संबंधित होना तथा उसके पीछे कार्य में उत्पन्न ग्रहबाधा नष्ट होकर कार्य सफलता का उद्देश्य होना ।

एशिया पारंपरिक वस्रों के संग्रहालय में प्रदर्शित कंबोडिया में उपयोग की जानेवाली कपडों की किनारपर अंकित विविध नक्काशीयां

उस काल के लोगों के पास अब जैसी आधुनिक वैज्ञानिक सुविधाएं नहीं थीं । प्रत्येक १०० कि.मी. दूरीपर संस्कृति, भाषा तथा उनकी परंपराआें में अंतर होता था । प्रत्येक राष्ट्र के राजाआें द्वारा बनाए गए नियम भी अलग थे, उदा. कंबोडिया के राजा ने यह नियम बनाया था कि राजवंश से संबंधित लोग प्रत्येक दिन अलग-अलग रंगों के कपडे पहनें, उदा. रविवार को लाल, सोमवार को भगवा, मंगलवार को जामूनी, बुधवार को हल्का हरा, गुरुवार को घना हरा, शुक्रवार को नीला तथा शनिवार को कत्थई रंग । उस संबंधित दिनोंपर पहने गए वस्रों का रंग उस संबंधित ग्रहों की (दिनों के) विशेषताआें से संबंधित होता था, जिससे की कार्य में उत्पन्न ग्रहबाधा नष्ट होकर कार्य सफल हो, यह उसका उद्देश्य था ।

१ आ. कार्य, साधनापद्धति तथा समुदाय के अनुसार वेशभूषापर नक्काशी होना

युद्ध के लिए जानेवालों की वेशभूषा, उनके रंग, उनपर की जानेवाली बुनाई तथा नक्काशी ये सभी अलग होते थे । कुछ लोग तंत्रमार्ग के अनुसार साधना करते थे, तो कोई तांत्रिक विद्या की शिक्षा लिए हुए होते थे । उनके कपडोंपर तंत्रविद्या से संबंधित नक्काशी तथा बुनाई को देखने से ये लोग तांत्रिक हैं, इसे लोग पहचानते थे । तांत्रिक लोगों की कपडोंपर मंत्रशक्ति से भारित चमकदार वस्तूएं होती थीं । प्रत्येक गांव में अलग-अलग समुदाय के लोग रहते थे । कौन किस समुदाय का है ?, इसे उनके कपडों से पहचानना संभव होता था । विविध समुदायों के लोगों के कपडे चाहे एक जैसे हों, अपितु उनके कपडोंपर अंकित नक्काशी अलग-अलग होती थी । (उपर के छायाचित्र को देखें ।)

 

कंबोडिया के सीम रीप नगर का एशिया पारंपरिक वस्रों का संग्रहालय !

कंबोडिया में उपयोग किए जानेवाले पारंपरिक वेशभूषाआें के प्रारूप !

 

१ इ. वेशभूषा को बनाते समय उस व्यक्ति की सुरक्षा का भी विचार किया जाना

रात को सोते समय उस व्यक्ति को, छोटे बच्चे को तथा शारीरिक रूप से व्यक्तियों को सुरक्षाकवच मिले; इसलिए उनकी चादर तथा उनके ओढनेपर विशेषतापूर्ण नक्काशी होती थी । विशिष्ट नक्काशी, रंग तथा चित्र उस व्यक्ति की रक्षा करते हैं ।, ऐसी उन लोगों की मान्यता थी । वास्तव में, उस समय के लोग सांस्कृतिक दृष्टि से कितने धनवान थे तथा वे लोग प्रत्येक बात का कितनी बारिकियों से विचार करते थे, यह इससे ध्यान में आता है ।

ई. वेशभूषा को प्राकृतिक पद्धति से बनाया जाना, स्थानीय परंपरा के अनुसार
उनको मंत्रसंस्कारित किया जाना तथा नित्य जीवन में उन्हें देवता के समान पूजा जाना

कुछ वेशभूषाआें के बनाने में ५-६ मास भी लगते थे; क्योंकि इन सभी वेशभूषाआें को प्राकृतिक पद्धति से तथा प्राकृतिक सामग्री का उपयोग कर बनाया जाता था । इन कपडों को प्राकृतिक रंगों से रंगाया जाता था । सभी कपडे हाथमागपर बनने से उसमें समय भी लगता था । हाथमागपर कपडों को बुनाते समय स्थानीय परंपरा के अनुसार उनको मंत्रसंस्कारित भी किया जाता था । उस समय में कपडों को नित्य जीवन में बडा महत्त्व था । उनको देवता के समान पूजा जाता था और उनका आदर किया जाता था ।

 

२. पवित्र गंगा नदी के समान मेंकांग नदी
तथा उसके तटपर स्थित हिन्दू संस्कृति के चिन्ह

चादर पर अंकित की गयी सुरक्षाकवच प्रदान करनेवाली नक्काशी

विश्‍व की १२वें क्रम की बडी नदी मेकांग नदी का उगम हिमालय में है । यह नदी चीन, कंबोडिया, म्यानमार, लाओस्, विएतमान तथा थाईलंड इन ६ देशों की जीवनदायिनी है । इस नदी के तटपर निवास करनेवाले ७ कोटि लोगों के लिए वह एक सांस्कृतिक प्रतीक भी है । इस नदी के कारण इन ६ देशों की प्राकृतिक सीमाएं निर्धारित हुई हैं । भारत से गए हमारे पूर्वज समुद्रमार्ग से कंबोडियातक गए तथा वहां से आगे वे इस नदी के मार्ग से ही इन सभी देशों में पहुंचे । उन्होंने वहां के सभी लोगों को धर्मशिक्षा दी तथा वहां मंदिरों का निर्माण किया । इस नदी के कारण इन देशों के साथ व्यापारमार्ग आरंभ हुआ । प्राचार्य (श्रीमती) अर्चना शास्त्री ने हमें बताया कि वहां के राजा भी हिन्दू थे तथा यह नदी पवित्र गंगा नदी के समान है, ऐसा उनमें भाव था । मेकांग शब्द मां गंगा शब्द का अपभ्रंश है ।

कंबोडिया के विश्‍वविख्यात हिन्दू मंदिर के निर्माण के लिए आवश्यक पत्थर इस मेकांग नदी से ही बहकर यहां आए; इसलिळ इस नदी को हमारा भावपूर्ण नमस्कार ! इस नदी के तटपर हिन्दू संस्कृति ही थी तथा उसके चिन्ह हमें वहां की नित्य वेशभूषा तथा पारंपरिक वेशभूषा से मिलते हैं ।

प्रार्थना

परात्पर गुुरु डॉ. जयंत बाळाजी आठवलेजी की कृपा से तथा सद्गुुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळ के मार्गदर्शन के कारण हमें दक्षिणी एशिया के राष्ट्र, उनकी संस्कृति, वहां की हिन्दू संस्कृति के साथ हमारा संबंध, उनकी पारंपरिक वेशभूषा तथा उनकी परंपराआें को निकट से देखने का अवसर मिला तथा उससे हमें सीख भी मिली । गुुरुदेवजी के चरणों में हम साधकों की यह भावपूर्ण प्रार्थना है, इस सेवा के माध्यम से आप हमें मोक्षमार्गपर ले जाएं । आगे जाकर महर्षि अध्यात्म विश्‍वविद्यालय के माध्यम से हमें आपकी अपेक्षा के अनुरूप हिन्दू संस्कृति को संजोने का तथा महान हिन्दू संस्कृति की सीख को संपूर्ण विश्‍व में पहुंचाने का कार्य तन्मयता के साथ करना संभव हो ।

– श्री. विनायक शानभाग, चेन्नई (१४.४.२०१८)

स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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