१. कुछ दिन पश्चात फांसी होनेवाली है, यह ज्ञात
होते हुए भी निर्भयता के साथ लिखा गया आत्मवृत्त
क्रांतिकारी दामोदर हरि चापेकर द्वारा लिखे गए आत्मवृत्त का कारण यह था कि यह हत्या करने के लिए चापेकर कैसे प्रेरित हुआ, इसकी सच्चाई लिखने के लिए उन्हें कहा गया । येरवडा कारागृह में कारावास भोगते समय ही उन्होंने ८ अक्टूबर १८९७ को अपना यह आत्मवृत्त लिखकर पूर्ण किया । मोडी लिपी में लिखा हुआ यह आत्मवृत्त कई वर्षोंतक येरवडा कारागृह में वैसा ही पडा रहा । कुल मिलाकर मराठी साहित्य की दृष्टि से यह आत्मवृत्त बहुत महत्त्वपूर्ण है । यह आत्मवृत्त तो एक साहसिक क्रांतिकारी का खुला आत्मवृत्त है । उन्होंने अपने इस आत्मवृत्त में वे स्वयं क्रांतिकारी कैसे बनते गए, इसका चरणबद्ध पद्धति से वर्णन किया है । विशेष बात यह कि कुछ दिन पश्चात मुझे फांसी दी जानेवाली है, यह ज्ञात होते हुए भी वे सबकुछ निर्भयता से बताते जाते हैं ।
२. आयु के १५वें वर्ष में मन में अंकुरित क्रांतिकार्य का बीज
अपनी आयु के १५वें वर्ष से ही (तब उनके छोटे भाई की आयु १२ वर्ष थी ।) उनके मन में अंग्रेजों के विषय में प्रचुर क्षोभ उत्पन्न हुआ था । केवल इतना ही नहीं, अपितु एक रेल यात्रा में उनके मन में अंग्रेजों से प्रतिशोध लेना चाहिए, यह भावना भी उत्पन्न होती है । उनके पिता हरि चापेकर विख्यात हरिदास थे ! उन्हें कीर्तन के लिए दूर-दूर से आमंत्रित किया जाता था । ये दोनों भाई उनके सहयोगी बनकर काम करते थे । एक बार रायपुर जाते समय घना अरण्य देखकर इन दोनों भाईयों के मन में यह विचार आता है कि, कुछ शौर्य दिखाकर छिपने के लिए यह स्थान बडा ही अच्छा है । तो हो गया ! यही उनके मन में प्रस्फुटित हुआ क्रांतिकार्य का अंकुर, जो आगे जाकर विकसित होता जाता है तथा रैंडसाहब की बलि चढाता है !
३. चापेकर भाईयों की राष्ट्रकार्य की दिशा
एक बार यदि लक्ष्य सुनिश्चित हो गया, तो उसके लिए शारीरिक बल अर्जित करना तथा परिश्रम का सामना करना निश्चित है, इसे ध्यान में रखकर ये दोनों भाई व्यायाम, सूर्यनमस्कार तथा मीलों दूरीतक पैदल चलने का अभ्यास करते थे । वे यात्रा के समय बैलगाडी में न बैठकर पैदल जाते थे । वे दोनों शरीर बलवान हो तथा परिश्रम का सामना करने के लिए बल अर्जित करना, इस दृष्टि से ये सब करते हैं । अंग्रेज तथा अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध काम करते रहना, यह उनके काम की एक दिशा ! दूसरी दिशा यह थी कि समाजसुधारों के लिए उनका बडा विरोध था । समाजसुधारकों के नाक में दम करना, यह उनके काम की दूसरी दिशा है । उससे ही उन्होंने सुधारक नामक पत्रिका के संपादक पटवर्धन तथा सुधारक कुलकर्णीपर प्राणघातक आक्रमण किया तथा उनको धमकीभरा पत्र लिखा ।
४. धर्म के सुधारों का उचित विरोध
राष्ट्रप्रेम का अर्थ सामाजिक सुधारों का विरोध, यह सूत्र उनके लेखन से स्पष्ट होता जाता है । स्वराष्ट्रप्रेम तथा स्वधर्मप्रेम ये दोनों बातें एक-दूसरे से अलग है ही नहीं, अपितु वे एक ही हैं, यह वे ध्वनित करते जाते हैं । उसके पश्चात हमारे धर्म में जो परंपराएं हैं, चाहे वो कैसी भी क्यों न हों; परंतु वो हमें प्रिय हैं । उनमें सुधारों की कोई आवश्यकता ही नहीं, ऐसा वे बताते हैं, अपितु ऐसी भूमिका अपनाना ही राष्ट्रहित की भूमिका, यह भी उनका मत था ।