‘अक्षरनामा’ नामक संकेतस्थलपर पत्रकार निखिल वागळे ने ‘यह खूनी झुंड आती कहां से है ?’, इस शीर्षक के तले एक लेख लिखा है । उसके साथ ही ‘मैक्स महाराष्ट्र’ नामक ‘फेसबुक’ खातेपर ‘किसने बनाई यह हिंसक भीड ?’ नामक शीर्षक के नीचे एक चलचित्र (वीडियो) प्रसारित किया है । वागळे द्वारा लिखे गए लेख तथा चलचित्र में दिए गए वक्तव्य मानो उनके हृदय के तल से आए हैं, ऐसा लगे, इस प्रकार से उनका यह प्रयास है । इसमें वागळे ने निष्पापता का बहुत अच्छा दिखावा किया है ।
जर्मनी की हार के पश्चात इस्राएल का गुप्तचर संगठन ‘मोसाद’ ने अनेक लैटिन नाजी अधिकारियों को लैटिन अमेरिका और युरोप के कुछ देशों से ढूंढ निकाला और लाखों ज्यू के वंशविच्छेद के लिए कारणभूत मानकर उन्हें फांसीपर चढा दिया । जिस गोबेल्स के प्रचारतंत्र के कारण लाखों ज्यूं की हत्याएं हुईं, वह कदाचित किसी देश में आश्रय प्राप्त कर जीवित रहा होता, तो उसने इस्राईल के विरुद्ध नाजी अधिकारियों को दिए गए मृत्युदंड के विषय में निश्चितरूप से मानवाधिकारों का हनन, एक देश द्वारा दूसरे देश की संप्रभुता में हस्तक्षेप करना, जर्मनों के विरुद्ध वांशिक अभियान चलाना, अधिकारियों के अभियोगों में नैसर्गिक न्याय के तत्त्व का पालन न करना जैसे मनगढंत आरोप लगाए होते । तब लाखों ज्युआें का हत्याकांड हुआ और ईस्राईल ने उसकी प्रतिक्रिया दी, यह बात ही उसके द्वारा रख दी नहीं जाती । कदाचित कुछ उथले प्रवृत्तिवाले व्यक्तियों को ही गोबेल्स अधिक अच्छा लगा होता; क्योंकि उन्हें कुल इतिहास का भान ही नहीं है । वागळे की आचरण उस गोबेल्स जैसा है । ‘झूठ बोलो और जोर से बोलो’ इस मंत्र का जाप करते हुए वागळे तथा उनके गिरोह ने जीवनभर द्वेष फैलाया । आज बहुविधता नष्ट होने के विषय में अथवा असहिष्णुता बढाने के विषय में वागळे रोना रो रहे हैं; परंतु जिस प्रकार से उनके जैसा कोई अपवाद छोडकर जिनका पूजन वागळे करते हैं, ऐसे प्रत्येक विद्रोही विचारक को समाज किस प्रकार से द्वेष, वैचारिक हिंसा तथा सांस्कृतिक आतंकवाद फैलाया है, इसे लोगों के सामने रखना चाहिए ।
१. मराठी साहित्य का अधोगति करनेवालों के विरुद्ध निखिल वागळे द्वारा आलोचना नहीं की जाना
पु.भा. भावे मराठी के सर्वोच्च १०-१५ लेखकों में गिने जाते हैं । उनकी अध्यक्षता में आयोजित साहित्य सम्मेलन को बिखेरने में विद्रोही विचारकों ने प्रधानता ली । इन आधुनिकतावादियों में हाथ में लाठियां, पत्थर और सलाखें लेकर सम्मेलनपर आक्रमण किया । उसमें साहित्यकारों के साथ मारपीट की गई, सैकडों पुस्तकें जला दी गईं और फाडी गईं । उन्होंने पु.भा. भावे को अपना अध्यक्षीय भाषण भी पढने नहीं दिया । डॉ. कुमार सप्तर्षि, एस्.एम्. जोशी, नानासाहेब गोरे, डॉ. बाबा आढाव इन प्रत्येक व्यक्तियों ने इस झुंड का समर्थन करते हुए उन्हें ‘क्रांतिकारी’ कहा । आगे जाकर इन्हीं लोगों ने सम्मेलन के अध्यक्ष का चुनाव जाति के आधारपर होनी चाहिए, यह प्रवाह स्थापित किया । इससे मराठी साहित्य जगत् की अधोगति होती चली गई और उससे डॉ. श्रीपाल सबनीस तथा लक्ष्मीकांत देशमुख जैसे लोगों को अध्यक्षपद का गौरव प्राप्त होने लगा । संपूर्ण महाराष्ट्र में जिन्हें पसंद करनेवाले न्यूनतम १०० समर्थक भी नहीं होंगे, ऐसे ये साहित्यकार महाराष्ट्र को सहिष्णुता का पाठ पढाने लगे । निखिल वागळे जैसे विकृत विचारधारावाले लोगों ने ऐसी प्रवृत्तियों को कभी आलोचना के लिए अपना लक्ष्य नहीं बनाया, उल्टे उनकी प्रशंसा ही की ।
२. कोरेगाव-भीमा के दंगे में मराठा युवक की हुई
हत्या के विषय में मुंह से एक शब्द भी न निकालनेवाले निखिल वागळे !
महाराष्ट्र में २ समुदायों में दंगे होकर सांप्रदायिक और धार्मिक हिंसा भी हो चुकी है । देश में जिस प्रकार से २ समुदाय एक-दूसरे से भिड जाते हैं, उसी प्रकार महाराष्ट्र भी उसका अपवाद नहीं है; परंतु किसी झुंड अकेले, निःशस्त्र तथा निष्पाप, जिन्हें उसका नाम भी ज्ञात नहीं है, ऐसे युवक का पीछा कर उसकी हत्या करने की एकमात्र घटना है कोरेगाव-भीमा में राहुल फटांगळे नामक मराठा युवक की झुंड द्वारा की गई क्रूर हत्या ! इस हत्या के विषय में वागळेसहित एक भी विचारक बोलने के लिए सिद्ध नहीं है । केवल छत्रपति शिवाजी महाराज का चित्र अंकित वेशभूषा धारण करना ही राहुल का एकमात्र अपराध था ।
३. हिन्दुआें में विभाजन कर उनको एक-दूसरे के
विरुद्ध लडाते रहना, ही आधुनिकतावादियों का एकमात्र कार्यक्रम !
‘ईश्वर-अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान’ इस देश की परंपरा है, इस विषयपर विभिन्न समाचार वाहिनियोंपर भावपूर्ण पद्धति से बोलनेवाले असीम सरोदे श्री अंबाबाई तथा श्री महालक्ष्मी ये हिन्दू देवियां पूर्णरूप से भिन्न हैं; इसलिए कोल्हापुर की देवी का उल्लेख ‘श्री महालक्ष्मी’ करनेवालों के विरुद्ध हिंसा की भूमिका अपनानेवाली झुंड के विरुद्ध एक शब्द भी नहीं बोलते । ‘श्रीकृष्ण और विठ्ठल भिन्न हैं’, ‘तिरुपति द्रविडियों की देवता है’ तथा ‘शैव द्रविडपंथीय होने से ब्राह्मणवादी वैष्णवों के देवता श्रीराम तथा श्रीकृष्ण की उपासना न करें’, इस प्रकार का विद्वेषी प्रचार करनेवाले व्यक्ति जब हिन्दू-मुसलमान संघर्ष का प्रश्न उपस्थित होनेपर ये लोग अचानक ही ‘ईश्वर एक ही है; इसलिए चाहे अल्ला हो अथवा जीजस की हिन्दू भी पूजा कर सकते हैं’, इस प्रकार से सामंजस्य की भूमिका अपनाने लगते हैं । संक्षेप में कहा जाए, तो हिन्दू धर्मियों में विभाजन करना तथा हिन्दुआें को एक-दूसरे के विरुद्ध लडाते रहना, ही इन आधुनिकतावादियों का एकमात्र कार्यक्रम होता है ।
४. प्रत्येक संघर्ष के समय शाहू और फुले को आगे कर
‘तोडो और राज्य करो’ की नीति अपनानेवाले सांप्रदायिकतावादी !
हाल ही में जळगाव जिले के जामनेर में कुछ अल्पवयस्क बच्चों से निजी कुंए में तैरने के कारण मारपीट की गई । तब ‘यह घटना शाहू-फुले-आंबेडकर के महाराष्ट्र के लिए लज्जाप्रद है’, का जाप करनेवाले एक भी निधर्मी विचारक ने ‘यह घटना शिवाजी महाराज के महाराष्ट्र के लिए लज्जाप्रद है’, ऐसा नहीं कहा । जिस समय ‘जय भवानी जय शिवाजी’ का नारा दिया जाता है अथवा शिवाजी महाराज के हिन्दवी स्वराज्य का उल्लेख किया जाता है, उस समय उसे ‘ब्राह्मणवादी प्रचार’ कहनेवाले शिवाजी महाराज सामान्य लोगों के नेता थे तथा जातिभेद नष्ट करने में वहीं सब में पहले थे, इसका उल्लेख करनेवाले ये लोग इस जामनेर प्रकरण में उनका नाम नहीं लेते । ‘शिवाजी महाराज के सर्वोच्च स्थान को देखते हुए ये लोग उनके स्थानपर शाहू की स्थापना करने के लिए क्यों उत्सुक हैं, यह वे बताएं ।
शिवाजी महाराज का चित्र अंकित वेशभूषा धारण करनेपर राहुल फटांगळे को पत्थरों से पीटकर उसकी हत्या कर दी गई । छत्रपति शिवाजी महाराज वास्तव में यदि संभाजी भगत द्वारा लिखित ‘शिवाजी अंडरग्राऊंड इन भीमनगर मोहल्ला’ इस नाटक की व्यक्तिरेखा की भांति थे, तो इसी नाटक को अपने सिरपर लेकर नाचनेवाले इन आधुनिकतावादियों ने राहुल फटांगळे को पत्थरों से कूंचकर क्यों मारा ? ६ दिसंबर को जब नागपुर की चैत्यभूमिपर जो भीमसागर पहुंचता है, उस समय उन्हें शिवाजी महाराज का स्मरण क्यों नहीं होता ? संक्षेप में कहा जाए, तो शिवाजी महाराज के नाम के पीछे बहुजनवादी अथवा पिछडों के राजा की उपाधि लगाकर बीच में सांप्रदायिकता लाना तथा सभी समुदाय शिवाजी महाराज का स्वीकार न करें, इस दृष्टिकोण से प्रत्येक संघर्ष के समय शाहू और फुले को आगे करना, यह इस प्रकार की ‘तोडो और राज्य करो’ की नीति है ।
५. मुंबई के लाखों धर्मांधों के कारण नहीं, अपितु कुछ सहस्र संख्यावाले
ब्राह्मणों के कारण समाज का विभाजन होता है, ऐसा कहनेवाले निखिल वागळे !
मुंबई के आजाद प्रांगण में रजा अकादमी द्वारा रोहिंग्या मुसलमानों के समर्थन में बहुत बडा दंगा किया गया । रोहिंग्या मुसलमानों का भारत के साथ कोई संबंध नहीं है । यह समुदाय आतंकी होने से बांग्लादेश तथा म्यानमार (ब्रह्मदेश) ये दोनों देश इस समुदाय को एक-दूसरे की ओर ढकेलने का प्रयास कर रहे हैं । मुसलमान विस्थापितों का खुले मन से स्वागत करनेवाले युरोपीय देश भी इस समुदाय को शरण देना नह चाहते । जर्मनी में ऐसे विस्थापितों को शरण देने के प्रश्नपर क्या वहां की सरकार गिर जाएगी ?, ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई है । स्वयं को विस्थापित कहलवाकर अपनी यात्रा करते हुए इन रोहिंग्या मुसलमानों से अपने मार्ग में जो अन्य समुदाय के परिवारों की हत्या कर तथा उनकी संपत्ति को लूटकर बांग्ला देश तथा ब्रह्मदेश में अपना आतंक स्थापित किया । हाल ही में म्यानमार में की गई खुदाई में रोहिंग्या द्वारा दफनाए गए हिन्दू परिवारों के सहस्रों शव मिल गए । इस बात को आंतराष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी माना है । ऐसे रोहिंग्या मुसलमानों के समर्थन में मुंबई में किए गए दंगें में धर्मांधों ने पत्रकारों को अपना लक्ष्य बनाया । उन्होंने अनेक पत्रकारों को अमानवीय पद्धति से पीटा । समाचार वाहिनियों के एक प्रसारण (ओबी) वैन का मूल्य कुछ करोड रूपएतक होता है । धर्मांधों ने ऐसे ६ वाहनों को नष्ट कर दिया, महिला पुलिसकर्मियों का शीलभंग किया, निजी वाहन तथा संपत्ति को बडी मात्रा में हानि पहुंचाई और अमर जवान ज्योति को ध्वस्त किया । धर्मांध तथा आतंकी समूह के समर्थन में किया गया यह दंगा विगत २ दशकों का सबसे बडा दंगा था । इतनी बडी संख्या में पत्रकारों को पीटा जाना तथा समाचार वाहिनियों की प्रसारण वैनों को जला देना, ऐसी घटनाएं इससे पहले कभी नहीं हुई थीं ।
आजाद प्रांगण में किया गया दंगा निखिल वागळे, कन्हैय्याकुमार, उमर खालिद जैसे लोगों के मत में दंगाखोर झुंड नहीं है । उसके कारण ये लोग उनका उल्लेख आंदोलनकर्ता के रूप में करते हैं । इस दंगे के विषय में वागळे ने फेसबुक अथवा ट्विटरपर लेखन भी नहीं किया और वाहिनियोंपर घंटाभर चर्चा करना तो बहुत दूर की बात है ! आजाद प्रांगण में हाथ में पत्थर, सलाखें, हॉकी स्टीकें तथा पेट्रोल बम लेकर लगभग ६० सहस्र धर्मांध युवक एकत्रित हुए । उनके परिवार के लोगों की संख्या को ध्यान में लिया जाए, तो अकेले मुंबई शहर में ३.५ से ४ लाख देशद्रोही रहते हैं और उन्हें भारतीय समाज को ध्वस्त करना है, यह बात ही भीषण है; परंतु वागळे को उनसे कोई भय नहीं लगता । वे अपने ‘मुंबई शहर में रहनेवाले तथा मध्यमस्तर का जीवन व्यतीत करनेवाले ३५ से ४० सहस्र ब्राह्मणों के कारण समाज में विद्वेष फैलता है’, यह अपने स्वयं के पसंदीदा सिद्धांत को वे अपने मन में संजोए बैठे हैं ।
६. मनुस्मृति की चिकित्सा की मांग करनेवाले लोगों का
संविधान की भी चिकित्सा होनी चाहिए, इस भूमिका से सहमत न होना
हाल ही में न्यायालय ने अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थाआें में प्रवेश तथा नौकरी के लिए अनुसूचित समुदायों का आरक्षण नहीं मिलेगा, यह निर्णय किया है । यह निर्णय मनुस्मृतिपर आधारित नहीं है, अपितु संविधान में जो त्रुटियां रह गई हैं, उनका यह परिणाम है । मनुस्मृति की चिकित्सा करने में कोई आपत्ति नहीं है; परंतु दूसरी ओर जिससे अनुसूचित समुदायों के साथ अन्याय होता हो, तो उसके लिए संविधान की भी चिकित्सा की जानी चाहिए, यही वास्तविक विद्रोही भूमिका है, जो वागळे को स्वीकार नहीं है । कश्मीर में धारा ३७० के कारण वहां के अनुसूचित समुदायों को आरक्षण नहीं मिलता; परंतु धारा ३७० पर चर्चा ही न हो; इसके लिए उमर खलिद जैसे धर्मांध मनुस्मृति के उदाहरण देते रहते हैं और वागळे जैसे लाचार (अ)विचारक उमर खालिद की ही भाषा बोलते हैं । ‘ब्राह्मण बहुजन समुदाय तथा अनुसूचित लोगों का उपयोग कर लेते हैं’, ऐसा प्रतिपादित करनेवाले वागळे जैसे (अ)विचारक अनुसूचित लोगों को उमर खालिद जैसे लोगों को सौंप देते हैं ।
‘पू. संभाजी भिडेगुरुजी का मूल नाम क्या था ?’ ‘ब्राह्मण अपने बच्चों का नाम ‘संभाजी’ क्यों नहीं रखते ?’, जैसे प्रश्न पूछनेवाले ये आधुनिकतावादी यही प्रश्न उनके मुसलमान कॉम्रेडों से नहीं पूछते । डॉ. दाभोलकर ने अपने बेटे का नाम ‘हमीद’ रखा । हमीद दलवाई के बच्चे थे अथवा नहीं, यह मुझे ज्ञात नहीं; परंतु एक भी आधुनिकतावादी ने अपने बच्चे का नाम ‘नरेंद्र’ नहीं रखा है, इसके प्रति मैं आश्वस्त हूं ।
७. छगन भुजबळ जैसे नेता द्वारा पगडी पहनने से ‘जाति की वरिष्ठता
कलंकति होती है’, इस प्रकार की अहंकार क्यों है ?, इसकी चिकित्सा आवश्यक !
भुजबळ जैसे ओबीसी नेता फुले की पागोटी पहने, पुणेरी पगडी ब्राह्मणों को छोडकर अन्य कोई धारण न करें और शिवाजी महाराजजी का फेटा केवल मराठा ही पहने, इस प्रकार से कोई समाज का विभाजन करता हो, तो वह निश्चितरूप से देशद्रोही तथा हिंसक विचारधारावाला है, इसमें क्या संदेह है ? इसमें मजे की बात यह है कि आधुनिकतावादियों के गिरोह में मराठा, ओबीसी, अनुसूचित जातियां, ऐसे किसी भी समुदाय की व्यक्ति सहभागी हुई, तो ऐसे व्यक्ति को अपनी आधुनिकता प्रमाणित करने के लिए ‘इस्लामी पद्धति की गोल टोपी ही पहननी चाहिए’, इस प्रकार का कठोर नियम ही महाराष्ट्र के तथाकथित विचारकों ने बनाया है । ‘ब्राह्मण्य नष्ट करना है, तो सभी को पुणेरी पगडी ही पहननी चाहिए ?’, ऐसा क्यों न कहें ? ‘सभी को गांधी टोपी पहननी चाहिए’, ऐसा कहने की भी इन लोगों की सिद्धता नहीं है । संक्षेप में कहा जाए, तो इन लोगों को टोपी का उपयोग समाज को तोडने के लिए करना है । क्या इनके मन में ‘भुजबळ जैसे ओबीसी नेता ने यदि पगडी पहनी और वह भी मेेरे सामने पहनी, तो अपनी जाति की वरिष्ठता कलंकित होती है’, इस प्रकार का अहंकार है ?, इसकी भी चिकित्सा होनी चाहिए ।
८. शिवाजी महाराज के विषय में विद्वेष फैलाना तथा उन्हीं का नाम लेकर
मराठा समुदाय में ब्राह्मणों के विरुद्ध विद्वेष फैलाना, ही इन अवसरवादी राजनेताआें की नीति !
छत्रपति शिवाजी महाराज का ध्वज भगवा था । ‘भगवा त्याग का रंग है’, ऐसा कहकर हिन्दुत्व के साथ उसका संबंध तोडने के प्रयासरत ब्रिगेडी नेताआें को जिस समय मुसलमानों के साथ मंचपर आना होता है, उस समय उनमें भगवा पगडी पहननेका साहस नहीं होता । तब उसके स्थानपर रंगबिरंगी पगडियां पहनी जाती हैं । संक्षेप में कहा जाए, तो ‘भगवा पगडी पहनकर ब्राह्मण, मराठा, ओबीसी, अनुसूचित समुदाय ऐसे सभी समुदाय के लोग यदि एकत्रित होनेवाले हों, तो वैसा नहीं होने दिया जाता और उसके पश्चात भगवा का अनादर करना’, इस प्रकार की यह विद्वेषी राजनीति है । यदि शिवाजी महाराज बहुजनों के नेता थे और पहले निधर्मी राजा थे, तो पुणेरी पगडी के विषय में आकाश-पाताल एक करनेवाले इन अवसरवादी नेताआें को भगवा पगडी से इतना भय क्यों लगता है ? आजतक एक भी कार्यक्रम में उनके द्वारा भगवा पगडी पहनने का दिखाई नहीं देता; परंतु कुछ कार्यक्रमों में उन्होंने मुसलमानों की गोल टोपी अवश्य पहनी है । संक्षेप में कहा जाए, तो ‘शिवाजी महाराज के विषय में विद्वेष फैलाना और उन्हीं का नाम लेकर मराठा लोगों में ब्राह्मणों के विरुद्ध विद्वेष फैलाना’, ही उनकी नीति है ।
९. ईसाई विद्यालय अथवा मदरसों में बहुविविधता नहीं होनी चाहिए, यह वागळे का हठ क्यो ?
दाडी रख दी अथवा बुर्का पहना; इसलिए किसी के साथ अलग प्रकार का व्यवहार किया गया, तो उससे देश की विविधता के लिए संकट उत्पन्न होता है, यह निखिल वागळे का मत है । किसी ईसाई विद्यालय में कुंकुम लगाया अथवा हाथ में मेहंदी लगाई; इसलिए किसी छात्रा को विद्यालय से निकाला गया, तो वह वागळे को अनुशासन का भाग लगता है । ईसाई विद्यालय अथवा मदरसों में विविधता नहीं होनी चाहिए, ऐसा उनका हठ किसलिए ?
१०. मुसलमानोंपर आक्रमण होने के पश्चात ही
आक्रमणकारियों को ‘झुंड’ कहना, यह वागळे की निधर्मी विचारधारा !
गोरक्षकों को मार लगाते समय ‘मेरे भोजन की थाली में क्या है ? अथवा मेरी रसोई में क्या हो रहा है ?’, इसकी पूछताछ न करें !’, ऐसा कहनेवाले वागळे ‘डॉ. दाभोलकर की संगति में हिन्दुआें के पूजाघरों में क्या है अथवा क्या होना चाहिए ?, इसविषय में उल्टा-पुल्टा बोलनेवाले दाभोलकर की विचारधारावाले मूर्ख वक्ताआें का लज्जाहीनता के साथ समर्थन करते हुए संपूर्ण महाराष्ट्र ने देखा है । गांधीवध के पश्चात इसी झुंड ने ब्राह्मणोंपर आक्रमण किया । इंदिरा गांधी की हत्या के पश्चात सिख्खों का हत्याकांड किया गया । आगे जाकर इसी झुंड ने अनुशासित राजनीतिक दल का मुखौटा धारण कर सांप्रदायिक राजनीति का पुरस्कार किया । वागळे जैसे लोगों के अनुसार यह एक जनप्रतिक्रिया थी । ‘केवल मुसलमानोंपर आक्रमण हुआ, तभी और तभी उसे झुंड कहना’, यह वागळे की सीधी और सरल व्याख्या है ।’
– अधिवक्ता वीरेंद्र इचलकरंजीकर, राष्ट्रीय अध्यक्ष, हिन्दू विधिज्ञ परिषद