कुछ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न १. जब कान और नाक के छेदन से पीडा (दु:ख) होती है, तब भी कोई बालिका क्यों छेदन के लिए मान जाती है ? अथवा माता प्रसूतिवेदना भोगने के लिए क्यों तैयार हो जाती है ?

दुःख भोगने के उपरांत ही सुख मिलता है । इसलिए आभूषण पहनने के सुख के लिए कान और नाक के छेदन के लिए बालिका मान जाती है । इसी प्रकार संतानसुख पाने के लिए ही माता प्रसूतिवेदना भोगने के लिए तैयार हो जाती है ।

प्रश्न २. ‘जो सांसारिक विषयों में सुख ढूंढता है । उससे अधिक मूर्ख कोई नहीं । संसार-सागर समान कोई दुःख नहीं ।’ – दासबोध, दशक २, समास १०, पंक्ति ४० का अनुवाद समर्थ रामदासस्वामीजी ने ऐसा क्यों कहा है ?

संसार सुख-दुःख का मिश्रण है । जिस प्रकार दिन के उपरांत रात एवं रात के उपरांत दिन आता है, उसी प्रकार सुख के उपरांत दुःख एवं दुःख के उपरांत सुख आता है । यह शृंंखला अटूट है । यह आगे दिए गए उदाहरणों से स्पष्ट होगा ।

१. घर बनाने से सुख मिलता है; परंतु जब आवास-कर भरने का अथवा घर में कुछ सुधार करने का समय आए, तब दुःख होता है ।
२. लडका जन्मे तो सुख होता है; परंतु वह बात न माने, तो दुःख होता है ।
३. लडकी का विवाह हो जाए तो सुख होता है; परंतु पति उसके साथ अच्छा व्यवहार न करे तो दुःख होता है ।

इसी प्रकार अधिकांश लोग सुख-दुःख के भवसागर में गोते लगाते रहते हैं । जन्म से लेकर मृत्यु तक इस देह को अनेक यातनाएं सहनी पडती हैं ।

प्रश्न ३. बच्चे के हंसने का क्या कारण होता है ?

छोटे बच्चे की दृष्टि स्थिर नहीं होती, घूमती रहती है । वह किंचित स्थिर  होने पर उसे आनंद होता है और वह हंस देता है । देखनेवाले को लगता है कि वह उसकी ओर देखकर हंसा !

प्रश्न ४. साधक को ऐसे कौन से आनंद की प्राप्ति होती है कि वह समस्त ऐहिक सुख छोडकर अध्यात्म की ओर मुडता है ?

ऐहिक सुख-दुःख कर्मजन्य हैं । आध्यात्मिक आनंद कर्मजन्य नहीं है, वह प्रेमजन्य है । जिसे आध्यात्मिक आनंद मिला हो, उस पर ऐहिक सुख-दुःख का कोई प्रभाव नहीं होता । इसलिए गीता में आध्यात्मिक आनंद को ही ‘योग’ कहा गया है । ‘समत्वं योग उच्यते । – श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक ४८’ (संदर्भ : अज्ञात)

प्रश्न ५. दुःखाश्रु एवं आनंदाश्रु में अंतर कैसे पहचानें ?

दुःखाश्रु उष्ण होते हैं एवं आनंदाश्रु ठंडे होते है ।

प्रश्न ६. प्रिय, आमोद एवं प्रमोद में अंतर क्या है ?

मन को सुख देनेवाली वस्तु दिखाई देने पर मन में प्रिय वृत्ति उत्पन्न होती है । उस वस्तु को प्राप्त कर लेने पर आमोद होता है एवं उस वस्तु का उपभोग करते समय प्रमोद होता है ।

प्रश्न ७. सुख-दुःख की परमावधि क्या है ?

‘सुख की परमावधि है मैथुन एवं दुःख की परमावधि है ईश्वरप्राप्ति न होनेपर साधक को होनेवाला दुःख । मैथुन से मिलनेवाला सुख स्थूलदेह द्वारा प्राप्त होता है, इसलिए वह तमप्रवृत्ति की श्रेणी में आता है, तथापि साधक को होनेवाला दुःख सत्त्वगुण के कारण होता है ।’- प.पू. काणे महाराज, नारायणगांव, जनपद पुणे, महाराष्ट्र.

प्रश्न ८. साधना आरंभ करने के उपरांत कुछ समय के लिए कुछ साधकों के दुःख में वृद्धि होने के क्या कारण हैं ?

१. कुछ साधकों ने अनुभव किया है कि साधना आरंभ करने पर उनके दुःख की मात्रा में वृद्धि होती है । दुःख के साथ सुख की मात्रा भी बढती है; परंतु मनुष्य को सामान्यतः दुःख का भान ही अधिक तीव्रता से होता है । इस कारण कुछ लोगों के मन में ऐसा भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि साधना आरंभ करने पर अपने दुःख न्यून होने की अपेक्षा और बढ गए । साधकों में दुःख की मात्रा बढने के कारण आगे दिए गए हैं । यदि मान लें कि व्यक्ति के जन्म के समय उसके प्रारब्धभोग १०० यूनिट हैं, तो १०० यूनिट प्रारब्ध उसे पूर्ण जन्म में भोगकर समाप्त करने पडते हैं । साधकों के विषय में ऐसा नहीं होता । साधना आरंभ करने पर साधक के ४०-५० वर्ष के भोग, १५-२० वर्षों में ही भोगकर समाप्त हो जाते हैं । पहले ही कुछ वर्षों में सर्व भोग भोगकर समाप्त हो जाने से, साधक का आगे का काल अडचनरहित एवं साधना के लिए पोषक होता है ।

२. जब हम चलते हैं, तो हमें वायु के विरोध का अभास नहीं होता; परंतु जब हम दौडने लगते हैं, तो विरोध समझ में आने लगता है । उसी प्रकार जब हम साधना आरंभ करते हैं, तब अनिष्ट शक्तियां, भुवलोक की अतृप्त लिंगदेह, पूर्वजों की अतृप्त लिंगदेह साधना में अडचन पैदा करती हैं । इसलिए भी प्रारंभिक काल में साधकों को अनेक अडचनों का सामना करना पडता है । इसके साथ-साथ भोग सहन करने की मानसिक एवं शारीरिक क्षमता भी ईश्वर एवं गुरु साधकों में उत्पन्न करते हैं । इसलिए साधना के आरंभकाल में साधकों की जो धारणा होती है कि भोग अर्थात दुःख, वह भी धीरे-धीरे क्षीण होती जाती है एवं आगे साधना द्वारा दुःख सहन करने की क्षमता अधिक बढने से, दुःख का पता भी नहीं चलता !

प्रश्न ९ : बुद्धि से कैसे पहचानें कि दुःख का कारण बुद्धि-अगम्य अर्थात आध्यात्मिक है ?

आगे दिए प्रयोजनों में से एक भी लागू होता हो, तो मान सकते हैं कि दुःख का कारण अधिकतर आध्यात्मिक है ।

१. बहुत प्रयत्न करने पर भी परीक्षा, चाकरी, विवाह इत्यादि में अपेक्षित यश न मिलना ।
२. किसी परिवार के कई सदस्यों को कष्ट होना; उदाहरण के लिए – एक परिवार में एक बेटा मनोरोगी था, दूसरे के विवाह के दस दिन पश्चात ही संबंध-विच्छेद हो गया, तीसरे ने पढाई अधूरी छोड दी एवं चौथी, दिखने में सुंदर, सुशिक्षित, अच्छा वेतन पानेवाली बेटी का विवाह निश्चित नहीं हो रहा था । इन सब बातों से माता-पिता तनावग्रस्त थे । सारांश में, घर में प्रत्येक सदस्य दुःखी था । ऐसे कष्ट अधिकतर पूर्वजों की अतृप्त आत्माओं के कारण होते हैं ।

प्रश्न १० : विशाल वस्तुएं सुख देती हैं ! ऐसा क्यों ?

अ. विशाल सागर अथवा अनंत आकाश का दृश्य सुख देता है । खिडकी से सागर अथवा आकाश का थोडा सा भाग दिखाई दे तो सुख नहीं होता ।

यो वै भूमा तत्सुखम् । नाल्पे सुखम् अस्ति । भूमा एव सुखम् । भूमा तु एव विजिज्ञासितव्य इति । भूमानं भगवो विजिज्ञास इति ।
– छान्दोग्योपनिषद्, अध्याय ७, खण्ड २३, वाक्य १

अर्थ : जो अनंत है, उसी में खरा सुख है; अल्पता में (संकीर्णता में) सुख नहीं । असीमितता में ही खरा सुख है; इसलिए अनंत का ज्ञान पा लेना चाहिए ।

आ. जब हमारे मन में व्यापकता आ जाती है, तब असीम आनंद मिलने लगता है ।

प्रश्न ११ : देहभाव के विस्मरण से सुख क्यों मिलता है ?

मन एकाग्र होने पर, देहभाव के विस्मरण से आनंद की अनुभूति होती है; साधना द्वारा देहभाव का विस्मरण हो जाता है, इसलिए मन की एकाग्रता होकर आनंद की अनुभूति होती है ।

प्रश्न १२ : पेट भर जाने पर आनंद क्यों मिलता है ?

ब्रह्म अर्थात आनंद । ब्रह्म स्थिर है; इसलिए जब आनंद होता है तब अपने आप कुंभक हो जाता है; अर्थात श्वासोच्छवास स्थिर हो जाता है, रुक जाता है । (अर्थात अपने आप कुंभक होना आनंद का एक लक्षण है ।) इसके विपरीत, जब अपने आप कुंभक होता है, तब आनंद होता है । वीर्यपात अर्थात बिंदुपतन के समय, पेट भर जाने से तृप्ति की डकार आने पर एवं अष्टसात्त्विक भाव जागृत होने पर, श्वासोच्छवास अपने आप रुक जाता है । इसलिए साधना द्वारा श्वासोच्छवास के धीरे-धीरे घटकर रुक जाने से खरा आनंद प्राप्त होता है । प्रयत्नपूर्वक होनेवाले कुंभक में आनंद नहीं है ।

संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘आनंदप्राप्ति हेतु अध्यात्म’

 

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