‘जो असीमित एवं अनंत है, वही खरे सुख का अर्थात आनंद का उद्गम स्थान होता है । वह चिरकालीन आनंद देता है और दुःख से हमें सदा के लिए छुटकारा दिलाता है ।’ हम अशाश्वत (अथवा अनित्य) विषयों से आनंद पाने का प्रयत्न करते हैं । अशाश्वत (अथवा अनित्य) विषय सीमित अथवा परिवर्तनशील होते हैं, इस कारण उन बातों में स्थायी सुख नहीं होता । स्वयं के शाश्वत (अथवा चिरंतन तत्त्व) को जाने बिना ही अशाश्वत (अथवा अनित्य) विषयों से सुख, शांति प्राप्त करने का कितना भी प्रयत्न करें, उससे कोई लाभ नहीं होता । हमारा आनंद हमारे अंतःकरण में ही है । इसलिए कोई और हमें आनंद देगा, ऐसी अपेक्षा न रखें । हम जीवन के शाश्वत मूल्य को जान लें, तो अशाश्वत विषयों से भी हम आनंद प्राप्त कर सकते हैं । शाश्वत मूल्य समझने की पद्धतियां आगे दी हैं।
१. धर्म का पालन
सुखार्थाः सर्वभूतानां मताः सर्वाः प्रवृत्तयः ।
सुखं च न विना धर्मात् तस्माद्धर्मपरो भवेत् ।।
– वाग्भट (अष्टांगहृदय, सूत्रस्थान, अध्याय २, श्लोक १९)
अर्थ : समस्त प्राणियों की प्रवृत्तियां सुखप्राप्ति हेतु ही होती हैं (यहां सुख शब्द का प्रयोग आनंद के अर्थ से किया गया है ।); परंतु धर्मपरायण होने पर ही उन्हें अपेक्षित सुख मिलता है; इसलिए धर्मपरायण होना चाहिए । धर्माचरणी मनुष्य ज्ञानी, अज्ञानी कैसा भी हो, उसे सुख प्राप्त होगा ही । इसीलिए, कोई भी अधर्म से यदि व्यवहार न करे, तो सर्व वर्ण एवं जाति में परस्पर अत्यंत प्रेमभाव रहेगा एवं परिणाम स्वरूप विश्व सुखी होगा ।
२. साधना
चित्त पर बने वासना, रुचि-अरुचि, स्वभावदोष आदि के संस्कार मिटा दिए जाएं, अविद्या का नाश किया जाए, तब ही हमें अपने अंदर विद्यमान आनंद की अनुभूति हो सकती है । इन संस्कारों को, अविद्या को नष्ट करने की पद्धति को ‘साधना’ कहते हैं ।
स्वभावदोष-निर्मूलन के लिए प्रयास करना, अहं-निर्मूलन के लिए प्रयास करना, नामजप, सत्संग, सत्सेवा, सत्के लिए त्याग, भावजागृति के लिए प्रयास करना और सब के प्रति प्रीति, साधना के ये आठ प्रमुख अंग हैं । साधना से चित्त पर बने संस्कार मिट जाते हैं । साथ ही संचितकर्म भी घट जाता है और प्रारब्ध के दुःख भोगने की क्षमता बढ जाती है । साधना के कारण अनुचित क्रियमाणकर्म से भी व्यक्ति बच सकता है; क्योंकि साधना से सात्त्विकता बढने पर निर्णय योग्य ही होते हैं ।
३. संतसान्निध्य
‘मनुष्य में वासना जितनी अल्प होगी, उसका सान्निध्य उतना ही आनंददायक होगा । बालक में वासना मात्र बीज रूप में होने पर भी हम उसके प्रति आकर्षित होते हैं । यदि यह सत्य है, तो भगवान की कृपा से जिसका समूल वासनाक्षय हो गया हो, उसका सान्निध्य आनंददायक होगा । संतों से आनंद की तरंगें प्रक्षेपित होती रहती हैं । पंचज्ञानेंद्रिय, मन एवं बुाqद्ध के परे सूक्ष्म की बातें समझ आने लगें, तो उन आनंदतरंगों की अनुभूति प्रत्येक साधक को होती है ।
४. सुख पाने की इच्छा का त्याग
जीवन में हम भौतिक सुखों का त्याग जितना अधिक करेंगे, उतना ही हमारे लिए दुःख की मात्रा घटेगी और साथ ही आध्यात्मिक सुख अर्थात आनंद की मात्रा बढेगी । इसलिए कहा गया है, ‘प्रापणात् सर्व भोगानाम् परित्यागो विशिष्यते ।’, अर्थात ‘सब भोग के उपभोग की अपेक्षा, उनका त्याग विशेष महत्त्वपूर्ण है’ । भोग का सुख तात्कालिक है, तो त्याग में प्रथम दुःख, तदुपरांत आनंद है। इसी प्रकार जो शक्ति सुख की इच्छा करने में व्यय होती है, वह शक्ति अपने आप में ही आनंदस्वरूप होती है । यह समझने पर इच्छा ही उत्पन्न नहीं होगी ।
५. ‘प्रेम रूप’ बनना
व्यक्ति का सुख-दुःख कर्मजन्य होता है, इसलिए सबको समान सुख कभी भी नहीं मिल सकता, ऐसी हमारी संस्कृति की सीख है । सुख-दुःख कर्मजन्य हैं; परंतु प्रेम कर्मजन्य नहीं है । इसलिए हम दूसरों को उनके दुःख में सहानुभूति दर्शा सकते हैं । इससे उस दुःखी जीव का मनोबल बढता है और उसके लिए दुःख सुसह्य हो जाता है । यही हमारे धर्म की विशेषता है । ऐसा प्रेम करने से मनुष्य की वृत्ति सात्त्विक एवं त्यागी बनती है और शनैः-शनैः उसकी आवश्यकताएं भी न्यून (कम) होती जाती हैं । आगे वह आत्मलाभ कर सकता है ।
६. अहंभाव नष्ट करना
आनंद अर्थात ‘स्व’ को भूलना । ‘धर्म कहता है कि ब्रह्म में विलीन हो जाने पर शाश्वत सुख मिलता है । यदि यह सच है, तो व्यक्ति की दृष्टि से ‘मोक्ष अर्थात आत्मा का ब्रह्म में विलीन होना’ ही परमोच्च साध्य है । धर्म कहता है कि ‘देह को त्यागना है; साथ-साथ ‘मैं’ के अस्तित्व को भी भुला देना है । ऐसी स्थिति में हमें सुख प्राप्त होगा ।’