आनंदप्राप्ति की इच्छा क्यों होती है ?
तुकाराम महाराजजी ने कहा है, ‘आनंद हमारे अंतर में ही समाया हुआ है । साधना करने पर हमें आनंद की अनुभूति होती है । शरीर रूप भंवर में आनंद रूप तरंगें उठती हैं । ऐसा अनुभव होता है मानो संपूर्ण शरीर में आनंद ही आनंद समाया हो । जब स्वयं में व्याप्त आनंद की अनुभूति होती है, तब चारों ओर आनंद ही आनंद होता है ।’ (तुकाराम महाराजजी द्वारा रचित पंक्तियों का भावार्थ)
आनंद जीव का एवं विश्व का स्थायीभाव, स्वभाव, स्वधर्म है । इसलिए अपने मूल स्वरूप को पाना, अर्थात आनंद प्राप्त करना एवं मूल स्वरूप को पाकर होनेवाली आनंद की अनुभूति को बनाए रखना ही जीव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है ।
आनंद स्वरूप होते हुए भी आत्मा को (जीव को) आनंद की अनुभूति क्यों नहीं होती ?
यश्च मूढतमो लोके यश्च बुद्धेः परं गतः ।
तावुभौ सुखमेधेते क्लिशत्यन्तरितो जनः ।
– श्रीमद्भागवत, स्कन्ध ३, अध्याय ७, श्लोक १७
अर्थ : इस विश्व में दो ही प्रकार के लोग आनंद में रहते हैं – १. पूर्ण अज्ञानी एवं २. वे लोग जिन्होंने बुद्धि पर विजय प्राप्त की हो । बीच की श्रेणी के लोग दुःख ही भोगते रहते हैं । सत्-चित्-आनंदमय ब्रह्म का अंश जो आत्मा है, वह आनंदमय ही है । इस आत्मा के चारों ओर माया का जो आवरण है, उसे अविद्या कहते हैं । अविद्या (माया) दुःख का मूल कारण है । पैसा, घर, परिवार, गांव, देश इत्यादि विषयों के कारण व्यक्ति आसक्त होता है । किसी व्यक्ति अथवा वस्तु के प्रति आसक्ति जितनी अधिक होगी, उतना ही दुःख होने की संभावना अधिक होगी । कोई आदर्श सामाजिक कार्यकर्ता अथवा संत जैसे व्यक्ति समाज अथवा भक्तगणों के प्रति आसक्त हो सकते हैं । प्रत्येक को सबसे अधिक आसक्ति स्वयं के बारे में, अर्थात अपने शरीर एवं मन के विषय में होती है । थोडी सी वेदना अथवा व्याधि भी किसी को दुःखी कर सकती है; इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को शनैः-शनैः अपने विषय में अनासक्त होकर वेदना एवं व्याधि को हंसते हुए स्वीकारना चाहिए ।
जीव आनंद से ऊबता क्यों नहीं ? सप्तलोकों से आनंद का क्या संबंध है ?
इसका कारण यह कि आनंद जीव का स्वभाव है, उसी समान जैसे शक्कर का स्वभाव मिठास है । एक लोक का आनंद दूसरे लोक के आनंद से एक करोड गुना होता है; उदाहरणार्थ, भुवलोक में साधना करनेवाले जीव को मिलनेवाला आनंद भूलोक के जीव को मिलनेवाले आनंद से एक करोड गुना अधिक है ।