खरा सुख कैसे प्राप्त करें ?
मनुष्य सुख के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहता है, फिर भी वह दिनोदिन अधिकाधिक दुःखी हो रहा है । थोडा-बहुत तो खरा सुख मिले, इसके लिए आगे कुछ उपाय बताए गए हैं ।
१. भोगोंका त्याग
‘प्रापणात् सर्वभोगानां परित्यागो विशिष्यते ।’ अर्थात ‘भोगों के उपभोग की अपेक्षा उनके त्याग में ही वास्तविक सुख है ।’
२. सकाम भक्ति
विश्व देवताओं के अधीन है । देवता प्रसन्न हुए तो सुख एवं दुःखी हुए तो दुःख देते हैं । भक्ति से उन्हें प्रसन्न कर सुख पा सकते हैं ।
३. संतसान्निध्य
संतसान्निध्य में सुख, दुःख समान प्रतीत होने लगता है । यह है खरा वैराग्य । संत सुख की इच्छा ही नष्ट कर देते हैं । साथ ही, संतसान्निध्य में दुःख भी सुख लगने लगता है, क्योंकि दुःख भोगने की क्षमता प्राप्त होती है; इसलिए दुःख नहीं होता एवं सान्निध्य का आनंद तो मिलता है ही ।
जिस प्रकार कुछ किरणों से कर्करोग की पेशियों का नाश होता है, उसी समान संतसान्निध्य में अधिक समय रहने पर उनसे प्रक्षेपित तरंगों से मनोलय एवं बुद्धिलय होता है, अर्थात सूक्ष्मदेह एवं कारणदेह का नाश होता है, अविद्या का नाश होता है और वह व्यक्ति आत्मानंद अनुभव करता है ।
परम सुख, दुःख स्वीकारने के अभ्यास से ही मिलता है ! दु:ख स्वीकारने के मार्ग क्या हैं ?
‘दुःख पर दान, यज्ञ इत्यादि उपाय नहीं हैं, दुःख को स्वीकार करना आवश्यक है । दुःख से उत्पन्न विकार से छूटने के लिए उस विकार का वेग सहने का अभ्यास कर लें और जब तक स्थूल शरीर में हैं तभी तक यह करें । अति सुख अर्थात परम सुख, दुःख स्वीकारने के अभ्यास से ही मिलता है । हठयोग से यही साध्य होता है ।
महावीर तप से ही मुक्त हो गए । तप अर्थात दुःख को स्वीकारना । पिछले जन्मों के कर्मों की शुद्धि के लिए महावीर ने २२ उपाय बताए । प्रत्येक उपाय में दुःख का स्वीकार है ।
तप के प्रकार
अ. बाह्यतप
१. अनशन (भोजन ग्रहण न करना)
२. ऊनोदरिका (कम खाना)
३. भिक्षाचर्या (जितना मिले, उतना ही ग्रहण करना)
४. रसपरित्याग (वसायुक्त पदार्थ न खाना)
५. कायाक्लेश (उष्णता, ठंडी इत्यादि शरीरिक कष्ट झेलना)
६. संलीनता : काम-क्रोध को जीतकर इंद्रियदमन करना एवं अशुभ विचार, उच्चार एवं आचारों का त्याग करना
आ. अंतर्तप
१. प्रायश्चित
२. विनम्रता
३. वैयावृत्य (सेवाधर्म)
४. स्वाध्याय (शास्त्रों का मनन एवं पठन)
५. ध्यान व्युत्सर्ग (शरीर ममत्वका त्याग)’ (संदर्भ : अज्ञात)
इ. नामजप द्वारा दुःख-परिहार
‘नामजप से भवरोग दूर होता है । भव अर्थात विषय । विषय की आसक्ति, सर्व रोगों की नींव है । नाम लेने से ईश्वर के प्रति प्रेम उत्पन्न होता है एवं अन्य आसक्ति छूट जाती है । सर्व दुःखों का मूल है, विषयों की आसक्ति। नामजप द्वारा आसक्ति अपने आप छूट जाती है; इसलिए दुःख मिट जाते हैं । ईश्वर आनंदरूप हैं, इसलिए नामजप की डोर से उनसे कसकर जुडे रहेंगे, तो दुःख भला वहां कैसे रह सकता है ?’ (संदर्भ : अज्ञात)