सुख-दुःख के क्या कारण हैं ?
सुख की इच्छा ही दुःख का कारण है । दुःख के बंधनों से छूटने का एक ही मार्ग है और वह है ऐहिक सुख की कामना को नष्ट करना; क्योंकि सुख की इच्छा से ही मनुष्य पुण्य करने जाता है, परंतु साथ ही पाप भी कर बैठता है और जन्म-मृत्यु का यह कालचक्र चलता रहता है । प्रलयकाल में ब्रह्मदेव निद्रा में होते हैं, इसीलिए सृष्टि की उत्पत्ति नहीं होती । उस समय जीव को विश्राम मिलता है । इस विश्राम का क्या उपयोग ? ब्रह्मदेव के जाग जाने पर पुनः हमारे कर्मानुसार वे हमें जन्म देते ही हैं । जब तक वासना (अर्थात सुख की इच्छा) है, तबतक जन्मचक्र चलता रहेगा । सुख की इच्छा जहां समाप्त होगी, वहीं खरा सुख है । यह अवस्था प्राप्त हो जाए, तो व्यक्ति के दुःखी होने का प्रश्न ही नहीं उठेगा । संतों की यही अवस्था होती है । सुख-दुःख के अज्ञान से छूटने हेतु ही धर्म है ।’
‘अंग्रेजों ने हमारे यहां जो शिक्षाप्रणाली लागू की, उससे धर्मनिष्ठा नष्ट हुई एवं अर्थनिष्ठा बढ गई है । इससे धनोपार्जन ही शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य हो गया है । शिक्षा से हमें बोध मिलता है कि सरस्वती एवं लक्ष्मी हमारी
धर्मनिष्ठा का आनुषंगिक फल हैं; परंतु अब यह धारणा पूर्णतया लुप्त हो गई है । ‘ऐहिक, पारलौकिक एवं मोक्ष, ये तीन प्रकार के सुख धर्मनिष्ठा पर ही अवलंबित हैं’, ऐसा हमारी संस्कृति बताती है । इसके विपरीत ‘सुख अर्थाधीन है’, इस पश्चिमी धारणा के कारण मनुष्य सुखलोलुप हो गया एवं विज्ञान ने तीव्रता से प्रगति की । इसी के परिणाम स्वरूप मनुष्य और अधिक विषय -वासनाओं की ओर आकर्षित हुआ । पश्चिमी राष्ट्रों में अनैतिकता की भरमार हो गई । आज सर्वाधिक धनी माने जानेवाले देश अमरीका में जितनी अनैतिकता एवं दुःख हैं, उतने और कहीं भी नहीं !’ – प.पू. काणे महाराज, नारायणगांव, महाराष्ट्र
दुःखों के आध्यात्मिक कारणों की तीव्रता एवं उपाय
हमारे जीवन में ८० प्रतिशत दु:ख का कारण आध्यात्मिक होता है ।
इसका विवरण एवं उदाहरण –
१. प्रारब्ध
प्रारब्धभोग भोगकर समाप्त करने के लिए ही तो हमारा जन्म होता है !
२. अनिष्ट शक्तियों की पीडा
अ. अनिष्ट शक्तियां : अनिष्ट शक्तियों से पीडित व्यक्ति समान व्यवहार करनेवाले से यदि अच्छे स्पंदन प्रतीत हों, तो समझें कि उसके शरीर में कल्याणकारी क्षूद्र देवता का संचार है; स्पंदन अत्यंत कष्टदायक हों तो समझें कि अनिष्ट शक्तियों का कष्ट है एवं अल्प कष्टदायक हों अथवा कुछ भी प्रतीत न हो तो समझें कि वह व्यक्ति मनोरोगी है । सामान्य व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर २० प्रतिशत होता है, जबकि मोक्ष तक पहुंचे व्यक्ति का स्तर १०० प्रतिशत होता है । २० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर के व्यक्ति यों को सूक्ष्म के स्पंदन प्रतीत नहीं होते । साधना द्वारा ३५ प्रतिशत से अधिक आध्यात्मिक स्तर हो जाने पर जब सूक्ष्म के स्पंदन प्रतीत होने लगें, तब ही यह सब समझ सकते हैं ।
१. व्यसन : व्यक्ति यों के व्यसन अधिकांशतः व्यसनी भूत के आवेश से निर्मित होते हैं । इसीलिए डॉक्टर ८०-९० प्रतिशत व्यसनी व्यक्ति यों को व्यसनमुक्त नहीं कर पाते । संत कर सकते हैं; क्योंकि संत उन भूतों को दूर भगा सकते हैं ।
२. एक महिला को प्रत्येक रात १२ से २ बजे के बीच बहुत खुजली होती थी । खुजलाने पर त्वचा से रक्त निकलने लगता था । त्वचारोगतज्ञों से ४ वर्ष उपचार करवाने पर भी वह ठीक नहीं हुई । साधना करने पर वह तीन महीनों में ही ठीक हो गई।
आ. करनी : अनिष्ट शक्ति द्वारा संपूर्ण वंशनाश होने के कुछ उदाहरण –
१. एक गृहस्थ की २३ वर्षीय बेटी की मृत्यु एक दुर्घटना में हो गई, २७ वर्षीय मझले बेटे की सगाई दो बार एवं २९ वर्षीय बडे बेटे की सगाई तीन बार टूट गई । यह सब ६ महीने की अवधि में हुआ ।
२. एक युवक के सात भाई एवं दो बहनों ने आत्महत्या की ।
इ. पूर्वजों की लिंगदेह : इनके द्वारा होनेवाले कष्टों के कुछ लक्षण इस प्रकार हैं – विवाह न होना, पति-पत्नी में अनबन, गर्भधारण न हो पाना, गर्भपात हो जाना, संतान का जन्मतः अपंग होना, बेटियां ही जन्म लेना इत्यादि ।
ई. ग्रहपीडा : शनि, मंगल इत्यादि से कष्ट कैसे होता है, यह ज्योतिषशास्त्र बताता है । कर्मयोग अनुसार प्रत्यक्ष में ग्रह कोई भी कष्ट नहीं देता । किस समय क्या सुख-दुःख भोगने होंगे, यह प्रारब्ध के अनुसार निश्चित होता है । ग्रहों का महत्त्व केवल इतना ही है कि वे जीवन के घटनाक्रम को दर्शानेवाली एक बडी घडी समान हैं ।
३. कल्याणकारी शक्तियां
अ. कुलदेवता : आगे दिए दो प्रयोजनों के कारण कुलदेवता कष्ट दे सकते हैं ।
१. कुलाचार-पालन न करने पर कुलदेवता के रुष्ट होने की संभावना रहती है ।
२. अभ्यास की क्षमता होने पर भी अभ्यास न करनेवाले बच्चे पर माता-पिता क्रोधित होते हैं । उसी प्रकार आध्यात्मिक उन्नति की क्षमता होने पर भी यदि कोई साधना नहीं करता है, तो कुलदेवता क्रोधित होते हैं ।
(कुलदेवता संबंधी अधिक जानकारी सनातन के ग्रंथ ‘अध्यात्म का प्रस्तावनात्मक विवेचन’ में दी है ।)
आ. वास्तुदेवता : निद्रानाश के विकार पर दस वर्ष से मनोचिकित्सक द्वारा उपचार करवाने पर भी, एक व्यक्ति को कोई लाभ नहीं हो रहा था । तब उसे अपने पलंग की दिशा में परिवर्तन करने का सुझाव दिया गया और उसके ऐसा करने पर उसी रात से उसका कष्ट दूर हो गया । आगे वास्तुशांति हो जाने के पश्चात पलंग की दिशा में परिवर्तन करने की भी आवश्यकता नहीं रही ।
४. शरीर की शक्ति से संबंधित
अ. कुंडलिनीचक्र एवं नाडी में प्राणशक्ति के प्रवाह में बाधा : सहस्रारचक्र के अतिरिक्त प्रत्येक चक्र एवं नाडी का शरीर के किसी न किसी भाग से संबंध रहता है । इन भागों में यदि प्राणशक्ति के प्रवाह में बाधा उत्पन्न हो, तो उनसे संबंधित शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट हो सकते हैं ।
१. एक साधक की छाती में वेदना होती थी, इसलिए डॉक्टर ने उसके हृदयस्पंदन का आलेखन (ई.सी.जी.) किया । उसमें हृदयरोग का कोई लक्षण नहीं मिला । इसलिए कार्डिएक न्यूरोसिस का निदान कर मनोचिकित्सकों ने उसका छः वर्ष तक उपचार किया, परंतु इससे कोई लाभ नहीं हुआ । तब अध्यात्म के किसी जानकार ने बताया कि ‘अनाहतचक्र में बाधा होने के कारण छाती में वेदना होती है’ और उस बाधा को दूर करने हेतु उसे साधना बताई । तीन महीने साधना करने पर वह बाधा दूर हो गई एवं साधक ठीक हो गया ।
२. स्वाधिष्ठानचक्र में बाधा होने से नपुंसकत्व हो सकता है ।
आ. प्राणशक्ति की न्यूनता : इसके लक्षण हैं – शारीरिक थकान, निरुत्साह आदि । जब कोई ऐसी शिकायतें लेकर डॉक्टर के पास जाता है, तब वे उसे शक्ति वर्धक औषधियां देते हैं अथवा किसी काम में मन न लगना, निरुत्साह इत्यादि के लिए डॉक्टर निराशा घटाने की गोलियां देते हैं । तो भी वह ठीक नहीं होता ।
५. अन्य
अ. वस्त्र : एक लडकी को नीले कपडे पहनने से मना किया; ऐसा करने पर पढाई में उसकी एकाग्रता बढ गई ।
आ. काल एवं समष्टि पाप : इनके बढने से विश्व में क्या होता जा रहा है, इसकी जानकारी समाचार-पत्रों द्वारा प्रतिदिन ही हमें मिलती है !
संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘आनंदप्राप्ति हेतु अध्यात्म’
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